दैनिक भास्कर, 6 जून 2008 : नेपाल की गाड़ी फिर अधबीच में फंस गई है| शाह ज्ञानेंद्र को हटाने में नेपाली नेताओं ने जिस एकता का परिचय दिया था, वह पिछले एक हफ्ते में हवा हो गई है| नेपाली राजनीति आज शीर्षासन की मुद्रा में है| चुनाव संपन्न हुए दो माह होने आए लेकिन अभी तक न तो नई सरकार बनी है और न ही संविधान निर्माण का कार्य शुरू हुआ है| नेपाली राजनीति का आगे भी यही हाल रहा तो जो संविधान साल में बनना है, उसे दस साल से भी ज्यादा लगेंगे| संविधान बने या न बने, नेपाल का नेपाल बने रहना भी मुश्किल हो जाएगा| माओवादी नेता कह रहे हैं कि यदि कोइराला गद्दी नहीं छोड़ेंगे तो वे नेपाल को ‘लाल गणराज्य’ घोषित कर देंगे| माओवादी नेताओं का धैर्य अब चुकने लगा है| वे बातचीत से थकने लगे हैं| वे नेपाल को ‘लाल’ गणराज्य घोषित करेंगे| याने हिंसक तख्ता-पलट करेंगे| जबरन सत्ता छीन लेंगे| वे जो कह रहे हैं, वह कर भी सकते हैं| उनके पास फौज है, हथियार है, काफी जन-समर्थन है, पैसा है और सबसे बड़ी बात यह कि हौसला है|
आखिर माओवादी इतने हताश और कुपित क्यों हो गए हैं? वे यह महसूस कर रहे हैं कि नेपाल की जनता ने उन्हें 38 प्रतिशत सीटें दी हैं, जबकि नेपाली कांग्रेस और एकीकृत माक्र्सिस्ट-लेनिनिस्ट (एमाले) पार्टी को कुल मिलाकर 37 प्रतिशत दी हैं| इसके बावजूद ये दोनों पार्टियां मिलकर माओवादियों को सरकार नहीं बनाने दे रही हैं| माओवादियों को उनका हक नहीं मिल रहा है| इन दोनों दलों को सत्ता का चस्का काफी पहले से लगा हुआ है| 10 अप्रैल का संविधान सभा का चुनाव इनकी इतनी दुर्गति कर देगा, इसका इन्हें तनिक भी अनुमान न था| इसीलिए इन्हें चुनाव से जो नहीं मिला, वह वे बातचीत से लेना चाहती हैं| इन पार्टियों ने अब हारने के बाद ऐसे प्रस्ताव रखे हैं, जो उनके मूल प्रस्तावों को ही काट डालते हैं| उनकी कोशिश यह है कि माओवादी सरकार तो बना लें लेकिन वह सरकार नख-दंतहीन हो, अपंग हो और प्रतिपक्ष की कठपुतली हो|
अपने इस मनोरथ को पूरा करने के लिए पराजितों ने प्रस्ताव रखे हैं| पहला यह कि नए शासन में राष्ट्रपति का पद भी स्थापित किया जाए| पिछले 18 माह में जिस अंतरिम संविधान से देश चल रहा है, उसमें राष्ट्रपति का कोई प्रावधान नहीं है लेकिन फिर भी माओवादी मान गए कि राष्ट्रपति का नया पद बना दिया जाएगा| यह खुश खबर थी लेकिन माओवादी कह रहे हैं कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही हमारी पार्टी के होंगे| प्रचंड और बाबूराम भट्टराई दोनों की कुर्सी चाहिए| प्रतिपक्ष यह माने बैठा था कि राष्ट्रपति कोइरालाजी बन जाएंगे और प्रधानमंत्री प्रचंड लेकिन माओवादी इसे मानने को तैयार नहीं है| उनका अहंकार सातवें आसमान पर जा बैठा है| प्रचंड जैसा महान नेता राष्ट्रपति का नाम-मात्र् का पद क्यों ढोए और यह भी कैसे हो सकता है कि वह किसी राष्ट्रपति के नीचे प्रधानमंत्री बनकर रहे? इसीलिए दोनों पद माओवादियों के पास ही होने चाहिए| यह तर्क बहुत बोदा है| माओवादी यह मानकर चल रहे हैं कि राष्ट्रपति कुछ भी कुचाल कर सकता है| यह सेनाधिपति होता है और वह सरकार और संविधान सभा भी भंग कर सकता है| सैद्घांतिक दृष्टि में यह सही है लेकिन राष्ट्रपति के पद का निर्माण करते समय यह दो-टूक शब्दों में क्यों नहीं लिख दिया जाता कि अंतरिम नेपाली राष्ट्रपति भारत के राष्ट्रपति जैसा ही होगा|
यदि माओवादियों को ध्वज-मात्र् राष्ट्रपति भी स्वीकार नहीं है तो वे आखिर क्या चाहते हैं? सिर्फ एक तिहाई बहुमत पाकर नेपाल मे क्या वे अपनी तानाशाही स्थापित करना चाहते हैं? जाहिर है कि उन्हें इस तरह का कोई जनादेश नहीं मिला है| सच्चाई तो यह है कि जो चुनाव 10 अप्रैल को हुए हैं, वे नई सरकार बनाने के लिए नहीं बल्कि एक संविधान सभा बनाने के लिए हुए हैं| अंतरिम संविधान का कोई प्रावधान ऐसा नहीं है कि जिसके अनुसार कोइरालाजी को इस्तीफा देना जरूरी हो| उन्हें केवल 2/3 बहुमत से हटाया जा सकता है| अकेले माओवादियों के पास साधारण बहुमत भी नहीं है| वे दो-तिहाई बहुमत कहां से लॉंएगें? यदि वे दादागिरी करेंगे तो उनकी छवि चौपट हो जाएगी| अभी उनके युवा कार्यकर्ताओं ने एक व्यापारी की हत्या कर दी थी| उनके विरूद्घ पूरा काठमांडो बंद हो गया था| यह बानगी भर है| यदि माओवादी दुबारा हिंसा पर उतारू हो गए तो उनका जनाधार खिसकने लगेगा| भारत, अमेरिका, यहॉं तक कि चीन भी उनका विरोध करेगा| वे कहीं के नहीं रहेंगे| अभी तक उन्होंने जिस गरिमा और परिपक्वता का परिचय दिया है, उसे वे आगे क्यों नहीं बढ़ाते?
राष्ट्रपति का पद वे प्रतिपक्ष को देकर अपनी सत्ता मजबूत क्यों नहीं करते? यों तो 2/3 बहुमत के बिना वे सत्तारूढ़ भी नहीं हो सकते| अभी 1/3 से थोड़े ज्यादा बहुमत पर ही उन्हे सत्ता मिल जाएगी| जहॉं तक सत्ता से हटाने के लिए साधारण बहुमत की बात है, प्रतिपक्ष के लोग अपनी जुबान खद ही काट रहे हैं, वे अपने वादे से खुद मुकर रहे हैं लेकिन बात मान लेने में भी माओवादियों का ज्यादा नुकसान नहीं है| यदि 2/3 की बजाय साधारण बहुमत से सरकार गिराने का अधिकार संविधान-सभा को दे दिया गया तो क्या होगा? माओवादी सभी दलों को मिला-जुलाकर सरकार चलाऍंगे| अपनेवाली नहीं चला पाऍंगे| वर्तमान नेपाल को फिलहाल ऐसी शासन-व्यवस्था ही चाहिए| इसी आधार पर माओवादी सभी दलों को मिलाकर ‘राष्ट्रीय सरकार’ भी बना सकते हैं| यदि माओवादी गिरेंगे तो वह सरकार भी गिरेगी| उस सरकार में सबकी साझेदारी रहेगी| सारे दल अस्थिरता पैदा करना क्यों चाहेंगे?
यदि माओवादी यह मानकर चल रहे हैं कि उन्हें दो साल राज करने का निरंकुश जनादेश मिल गया है और वे जैसा चाहेंगे, वैसा संविधान बना लेंगे तो वे वास्तव में किसी स्वप्न-लोक में ही विचरण कर रहे हैं| उन्हें खंडित जनादेश मिला है| यदि वे इस खंडित जनादेश पर अपना मनमाना आदेश थोपना चाहेंगे तो नेपाल दुबारा हिंसा के नए दौर में प्रविष्ट हो सकता है| यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा| माओवादियों को फिलहाल जो अवसर हाथ लगा है, वह भी जाता रहेगा| वे राजवंश की वापसी के सबसे उत्कट उदगाता सिद्घ होंगे| यदि वे धीरज और दूरदृष्टि से काम लेंगे तो सर्वसम्मति से संविधान भी बन जाएगा, उस पर उनकी छाप भी रहेगी और अंतरिम सरकार के दो साल उन्हें अगले पांच साल के लिए जमा भी देंगे| उस पांच वर्ष की नई अवधि के लिए वे नेपाली जनता से अपना मनोवांछित जनादेश मांग सकेंगे|
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