दैनिक भास्कर, 23 नवंबर 2002, चीन की तुलना यूरोपीय विचारकों ने महादैत्य से की है| उनका कहना है कि यदि वह सोता है तो उसे सोने दो| यदि वह जाग गया तो वह दुनिया को हिला देगा| इस दैत्य ने कभी दुनिया को सचमुच हिला दिया था| चीनी क्रांति 1949 में हुई| लगभग तीन दशक तक ‘लंबा संघर्ष’ चलता रहा| न सिर्फ चीन में लाखों लोग मारे गए बल्कि भारत, वियतनाम, कोरिया, ताइवान, जापान और यहाँ तक कि सोवियत संघ ने भी माओ-त्से-तुंग की क्रांति का मजा चखा| ‘चीन के अध्यक्ष, हमारे अध्यक्ष हैं’, यह नारा कहाँ-कहाँ नहीं गूंजा| नेपाल से लेकर फ्रांस और 20 हजार कि.मी. दूर चिली और ब्राजील में भी चीनी क्रांति की घंटियाँ बरसों-बरस बजती रहीं| शीत युद्घ के ज़माने में सोवियत संघ ने चाहे अमेरिका का सामरिक दम फुलाया हो लेकिन जैसी वैचारिक टक्कर माओ-त्से-तुंग ने दी, दुनिया के किसी अन्य नेता ने नहीं दी| माओ का चीन अब हू जिंताओ का चीन बन चुका है| यह चौथी पीढ़ी है| पहली पीढ़ी में माओ और चाऊ-एन-लाई, दूसरी में दंग स्याओ फिंग, तीसरी में च्यांग चेमिन और अब चौथी में हू जिंताओ हैं| माओ और जिंताओ के चीन में जमीन-आसमान का अंतर है| चीन अब भी महादैत्य है| सवा अरब लोगों का देश है| दुनिया के इस सबसे बड़े देश में अब वर्ग-संघर्ष, गाँवों से शहरों का घेराव, सांस्कृतिक क्रांति और घास खाएंगे, बम बनाएँगे जैसे नारे सुनाई नहीं पड़ते| चीनी महादैत्य अब पहले की तरह बेचैन दिखाई नहीं पड़ता | अब वह एक नए नशे में चूर होता दिखाई पड़ रहा है| वह नशा है, पूंजीवाद का| महादैत्य के इस मदिरा-पान पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के 16वें अधिवेशन ने अपनी मुहर लगा दी है|
यों तो साम्यवादी चीन को पूंजीवादी सड़क पर चलाने का दुस्साहस सबसे पहले दंग स्याओ फिंग ने यह कहकर किया था कि बिल्ली काली है कि गोरी, इससे क्या मतलब ? यह देखो कि वह चूहे मारती है या नहीं| दंग को दुनिया के मार्क्सवादियों ने पूँजीवादीमार्गी कहकर लगभग 25 साल पहले कूड़ेदान के हवाले कर दिया था लेकिन ‘गेंग ऑफ फोर’ को हराकर वे सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे और उन्होंने माओवाद को नई दिशा दी| उनके काम को 13 साल पहले च्यांग चेमिन ने अपने कंधे पर उठाया और चीन को दुनिया के अर्थ-सबल राष्ट्रों की श्रेणी में पहुँचा दिया| आज चीन की अर्थ-व्यवस्था एक टि्रलियन डॉलर से भी बड़ी है और उसका माल दुनिया के सबसे उन्नत देशों का पसीना छुटा रहा है| इस पूंजीवादी चमत्कार को बरकरार रखने के संकल्प के साथ ही पेइचिंग में 16वीं काँग्रेस समाप्त हुई है| माओ के विचार और दंग के सिद्घांत की तरह चेमिन के नाम से कोई बात अब तक प्रसिद्घ नहीं हुई थी लेकिन अपना ताज जिंताओ के सिर पर रखते हुए चेमिन ने ‘तीन प्रतिनिधित्वों’ की बात न सिर्फ कही बल्कि उसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में भी जुड़वा दिया| ये तीन प्रतिनिधित्व क्या हैं ? एक तो चीन की प्रचंड बहुसंख्या के मूलभूत हित तो हैं ही याने किसान-मजदूर-कर्मचारी वर्ग के हित का प्रतिनिधित्व, लेकिन उनके साथ-साथ “उत्पादन की उन्नत शक्तियों” का दूसरा प्रतिनिधित्व और ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक रुझान’ का तीसरा प्रतिनिधित्व ! यदि मार्क्स, लेनिन और माओ जिन्दा होते तो वे च्यांग चेमिन की क्या गति करते ? शायद उन्हें त्रात्स्की या ल्यू शाओ ची की तरह अस्त हो जाना पड़ता| अब से पचास साल पहले जो कुफ्र था, आज वह ईमान है| जिसे कभी ‘बुर्जुआ मानसिकता’ कहा जाता था, वह चीन का नया चेहरा है| चीनी नेता अब न तो वर्ग-संघर्ष की बात करते हैं, न द्वद्वंात्मक भौतिकवाद की और न ही अतिरिक्त मूल्य की| उन्हें अब विश्व क्रांति से भी कोई मतलब नहीं है| इस समय उनका एक सूत्री कार्यक्रम है – चीन की जनता को सम्पन्न और खुशहाल बनाना| सम्पन्नों और विपन्नों के शाश्वत संघर्ष की मार्क्स की कल्पना अब ढेर हो चुकी है| मार्क्स की कल्पना और उसकी संतान, सोवियत संघ की अर्थी 1991 में साथ-साथ निकल गई लेकिन चीन है कि जिन्दा है और दनदना रहा है| शायद इसीलिए कि कट्टर साम्यवादी होते हुए भी माओ ने शुरू से ही चीन को स्वतंत्र रास्ते पर चला दिया था| रूस की तरह चीन में कोई गोर्बाचोव नहीं हुआ| सोवियत संघ 73 साल में बिखर गया लेकिन पिछले 53 साल में चीन का काया-कल्प हो गया| चीन का नया रूप उस विचित्र अरबी काल्पनिक प्राणी की तरह हो गया है, जिसका मुख सुन्दरी का है और धड़ घोड़े का है|
यह विचित्रता केवल चीन में ही है| उसकी अर्थ-व्यवस्था पूंजीवादी है लेकिन राज्य-व्यवस्था साम्यवादी है| पार्टी की 16वीं काँग्रेस में आए दो हजार प्रतिनिधियों में से एक ने भी खड़े होकर यह नहीं पूछा कि अर्थ-व्यवस्था का यह उदारवाद राज्य-व्यवस्था में क्यों नहीं लाते ? इतने बड़े चीन में सिर्फ एक पार्टी ही क्यों है ? इस बगीचे में सिर्फ लाल फूल ही क्यों खिलते हैं ? भारत की तरह भगवा, काले, पीले, नीले फूल क्यों नहीं खिल सकते ? यदि चीनी नेतृत्व ने विभिन्न वर्गों का अस्तित्व स्वीकार किया है तो उनके वर्गहितों के प्रतिनिधित्व की छूट क्यों नहीं है ? राज्य अब भी नीचे और पार्टी ऊपर क्यों है ? 16वीं काँग्रेस के भाषणों में ‘समाजवादी लोकतंत्र’ और चीन की ‘आध्यात्मिक सभ्यता’ का जि़क्र जरूर हुआ लेकिन राज्य और पार्टीतंत्र का ध्यान केवल ‘अर्थ पशु’ की भूख मिटाने पर ही क्यों टिका हुआ है ? लोकतंत्र और आध्यात्मिकता का प्रचार करनेवाले लोकपि्रय संगठन ‘फालुन दफा’ पर गाज़ क्यों गिरती रहती है ? शुद्घ पंूजीशाही और शुद्घ पार्टीशाही कौनसे मार्क्सवाद की प्रतीक है ? भारतीय कम्युनिस्टों की चुप्पी भी बड़ी रहस्यमयी है| वे कुछ बोलते क्यों नहीं ? पूंजीशाही और पार्टीशाही की यह जुगलबंदी क्या हमारे मारवाड़ी मॉडल की तरह नहीं है, जिसमें नई पीढ़ी को पैसा कमाने की पूरी छूट होती है लेकिन पारिवारिक शिकंजे की पकड़ भी उतनी ही मजबूत होती है|
मारवाड़ी परिवारों में जैसे सतांतरण प्राय: शालीनतापूर्वक हो जाता है, वैसे ही चीन में भी इस बार न तो गाली-गलौज़ हुआ और न ही तलवारें खिंचीं| च्यांग चेमिन की छाया इतनी गहरी थी कि पार्टी काँगे्रस के आखिरी दिन तक यह पता ही नहीं चला कि चीन के अगले सम्राट हू जिंताओ कहीं हैं भी या नहीं| अंग्रेजी में लोग पूछ रहे हैं, हू इज़ हू ? यह हू कौन है ? हू जिंताओ माओ की तरह बनिए के बेटे हैं और अभी साठ के भी नहीं हुए हैं| चीनी हिसाब से वे अभी जवान हैं| जिस देश में अस्सी-अस्सी साल के नेतागण कुर्सी के चिपके रहते हों, वहाँ पोलितब्यूरो में सब सत्तर से नीचे हों और पार्टी महासचिव सिर्फ 59 का हो, यह अपने आप में सत्ता पलट है| वर्तमान प्रधानमंत्री और संसदाध्यक्ष भी बाहर हो गए हैं| हू को छोड़कर पोलितब्यूरो की कार्यसमिति के सभी आठ सदस्य नए हैं| ऐसा नया पोलितब्यूरो काफी खतरनाक भी सिद्घ हो सकता है लेकिन आशा है कि नहीं होगा| इसके दो कारण हैं| एक तो आठ में से छह च्यांग चेमिन के लोग हैं और दूसरा चेमिन चीन की सबसे शक्तिशाली संस्था सैन्य आयोग के अध्यक्ष अभी कुछ वर्षों तक बने रहेंगे| वे मार्च तक राष्ट्रपति पद पर भी जमे रहेंगे याने असली सतांतरण आहिस्ता-आहिस्ता होगा|
इसमें शक नहीं कि वास्तविक पोलितब्यूरो और पार्टी-नेतृत्व नया है लेकिन समस्याएँ तो पुरानी हैं| इस समय आर्थिक उदारवाद के कारण चीन में बेरोजगारी की संख्या सवा करोड़ तक पहुँच गई है| भुखमरी और अपराध बढ़ गए हैं| गाँव और शहरों की खाई चौड़ी होती जा रही है| शंघाई न्यूयार्क से नया और शेन-जेन हाँगकाँग से ज्यादा जानदार लगता है लेकिन पेइचिंग का पिछवाड़ा दिल्ली के करोलबाग की तरह और शंघाई के गाँव बिहार के गाँवों की तरह लगते हैं| पूर्वी चीन 21वीं सदी में थिरक रहा है और पश्चिमी चीन 19वीं सदी में लड़खड़ा रहा है| तिब्बत और इस्लामी आतंकवाद पेइचिंग के अन्तरराष्ट्रीय सिरदर्द हैं| माओ और ल्यू शाओ ची के उपदेश कहीं सुनाई नहीं पड़ते और चीनी भ्रद्रलोक कन्फ्यूशियस और ताओ को कभी का भुला चुका है| शाक्यमुनि का प्रभाव बौद्घ मंदिरों तक सीमित है| मार्क्स और माओ ताबूत में बंद हैं और उस बंद ताबूत पर पूंजीवाद का जिन्न डोल रहा है| दुनिया का ध्यान सत्ता के खेल पर उतना नहीं है, जितना इस जिन्न के नाच पर है| चीन के नए सत्ताधीशों ने अभी सिंहासन के पहले पायदान पर चरण रखा है| उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे ताइवान पर नरम पड़ेंगे या तिब्बत को आज़ाद कर देंगे या पाकिस्तान के कान खींचेंगे या पूंजीवाद के पोप अमेरिका के आगे साष्टांग दंडवत करेंगे| चीन बाहरी दवाब के आगे घुटने नहीं टेकेगा| उसकी गति रूस-जैसी नहीं होगी लेकिन खुली अर्थ-व्यवस्था के अपने दबाव होंगे| बाहर पढ़ रहे 60 लाख छात्र और विलायत-पलट 36 लाख छात्र अपने साथ क्या केवल कागज की डिगरियाँ और डॉलर ही लाएँगे ? लगभग एक करोड़ प्रवासी चीनी और उनका अरबों डॉलर का विनिवेश क्या चीनी समाज-व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेगा ? यह ठीक है कि गोर्बाचौव और येल्तसिन के रूस की तरह चेमिन और जिंताओ का चीन धराशायी नहीं होगा लेकिन पूंजीवाद के जिन्न को अपनी छाती पर नचानेवालों को यह नहीं भूलना चाहिए, जैसा कि स्वयं कार्ल मार्क्स ने कहा था कि उत्पादन की शक्तियाँ समाज के राजनीतिक और सांस्कृतिक महाढाँचे के निर्माण में सर्वाधिक निर्णायक भूमिका निभाती हैं|
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