नवभारत टाइम्स, 20 जून 2008 : पाकिस्तान में चुनाव के बाद चार महिने बीत गए लेकिन शासन-संचालन अभी चार कदम भी आगे नहीं बढ़ा है| जैसे-तैसे गठबंधन सरकार तो बन गई लेकिन दोनों प्रमुख दल – पीपीपी और मुस्लिम लीग (न) रस्साकशी में उलझे हुए हैं| मुस्लिम लीग ने पिछले माह गठबंधन सरकार से अपने मंत्रियों को हटा लिया है| केंद्र सरकार चल तो रही है लेकिन लंगड़ा रही है| पाकिस्तानी जनता राजनीति के इस खेल से हतप्रभ है| जो मुद्दे सरकार बनते ही हल हो जाने चाहिए थे, वे लंबे खिचते चले जा रहे हैं| इन मुद्दों के कारण लोकतंत्र् का झंडा उठानेवाले नेताओं की छवि मलिन होती जा रही है|
ये मुद्दे क्या हैं? यों तो छोटे-मोटे कई मुद्दे हैं लेकिन तीन मुद्दे प्रमुख हैं| पहला मुद्दा है – 60 जजों की वापसी ! दूसरा मुद्दा है, मुशर्रफ को हटाना और तीसरा मुद्दा है – राष्ट्रपति के अधिकारों में कटौती| इन तीनों मुद्दों पर दोनों दल मोटे तौर पर सहमत हैं लेकिन असली मुसीबत तब खड़ी होती है जब बारीकियों में उतरा जाता है| हर मुद्दे में पेंच के अंदर पेंच है| दोनों दलों के नेता इन पेंचों को अपने-अपने हिसाब से सुलझाना चाहते हैं ताकि आगे जाकर उनको श्रेय मिले और जब पाकिस्तानी राजनीति का फायनल मैच हो तो वे अपने प्रतिद्वंदी को ज़ीरो पर आउट कर सकें| आज मुशर्रफ मुद्दों का मुद्दा बन गए हैं| सारी राजनीति मुशर्रफ के ईद-गिर्द घूम रही है|
जहॉं तक जजों की वापसी का सवाल है, नवाज़ शरीफ पहले दिन से ही अत्यंत मुखर हैं| जजों की वापसी को लेकर पहले बेनज़ीर और फिर ज़रदारी, दोनों का ही रवैया शुरू में ढुलमुल रहा है लेकिन लोकमत के दबाव में जरदारी को चुनाव के पहले ही घोषणा करनी पड़ी कि संसद बनने के 30 दिन के अंदर ही जजों की वापसी हो जाएगी| जाहिर है कि इस घोषणा का श्रेय नवाज़ शरीफ को ही मिला लेकिन यह घोषणा अगर लागू हो जाती तो इसका अंतिम श्रेय ज़रदारी को मिलता, क्योंकि उनकी पार्टी बड़ी है और प्रधानमंत्री भी उन्हीं की पार्टी के हैं| घोषणा लागू नहीं हुई और 30 दिन निकल गए| फिर 12 मई का दिन तय हुआ| वह भी निकल गया| ज़रदारी की प्रतिष्ठा पैंदे में बैठने लगी| लोगों को शक होने लगा| ज़रदारी सौदेबाज़ हैं, कहीं वे मुशर्रफ से कोई गुप्त सौदा तो नहीं कर बैठे| जजों की वापसी का मतलब था, मुशर्रफ की बर्खास्तगी, क्योंकि ये जज लौटते ही मुशर्रफ के चुनाव को अवैधानिक घोषित करते और उन्हें राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ता| मुशर्रफ ने मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी समेत 60 जजों को हटाया तो ये सब जज मुशर्रफ को उनकी कुर्सी में कैसे जमे रहने देते| मुशर्रफ ने सेनाध्यक्ष रहते हुए राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था| यह कानून का सरासर उल्लंघन था| लोगों को यह पता था कि बेनज़ीर ने राष्ट्रपति के चुनाव से अपने उम्मीदवार को हटाकर मुशर्रफ की मदद की थी| यह मानकर चला जा रहा था कि अमेरिका ने मुशर्रफ और बेनज़ीर का यह समझौता करवाया था कि वे एक-दूसरे को बर्दाश्त करेंगे| आसिफ ज़रदारी इसी समझौते को आगे बढ़ाते हुए लग रहे थे| उनके कुछ बयानों में उन्होंने यह तक कह दिया कि उन्हें मुशर्रफ से कोई खास दिक्कत नहीं है|
ज्यों-ज्यों दिन बीतते जा रहे थे, पाकिस्तान में मुशर्रफ विरोधी ज्वार की लहरें ऊपर उठती चली जा रही थीं| वकीलों के आंदोलन को मध्यम वर्ग, शहरी तबकों और मीडिया का समर्थन बढ़ता चला जा रहा था| इस जज-समर्थक आंदोलन के असली नेता एतजाज अहसन हैं, जो कि बेनज़ीर की पार्टी और सरकार के प्रमुख स्तंभ रह चुके हैं लेकिन इसका राजनीतिक श्रेय नवाज़ शरीफ को मिल रहा था| आखिरकार नवाज़ ने अपने मंत्र्ियों को गठबंधन से हटा लिया| अब ज़रदारी और नवाज़ के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है लेकिन मामला जहॉं का तहॉं है| ज़रदारी कहते हैं कि वे एक विस्तृत संविधान संशोधन करके जजों की वापसी करेंगे ताकि राष्ट्रपति मुशर्रफ या वर्तमान अदालत उस पर आपत्ति नहीं कर पाए जबकि नवाज़ कहते हैं कि जजों को साधारण कार्यकारी आदेश से बहाल किया जाए| संशोधन पारित करने के लिए दो-तिहाई बहुमत कहां से लाएंगे? क्या मुशर्रफ की मुस्लिम लीग (का) संशोधन के पक्ष में मतदान करेगी? यहां दोनों नेताओं के तर्कों में कुछ न कुछ दम है लेकिन ज़रदारी की राय अधिक व्यावहारिक मालूम पड़ती है| जजों की वापसी के सवाल पर शाही मुस्लिम लीग (क़ा) का एक बड़ा हिस्सा सरकार का साथ देने को तैयार है| इसके अलावा संशोधन के द्वारा न्यायपालिका के अन्य काम-काज को भी सुधारा जा सकता है|
जहॉं तक मुशर्रफ को हटाने का सवाल है, ऐसा नहीं लगता कि वे अपने आप पद छोड़ देेंगे| उन्हें या तो अदालत हटाए या संसद हटाए| जजों की वापसी नहीं हो पा रही है और महाभियोग लगाने के लिए सरकार के पास दो-तिहाई बहुमत नहीं है| ज़रदारी कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते| हालांकि उन्होंने यह साफ़-साफ़ कह दिया है कि मुशर्रफ के दिन लद गए हैं लेकिन वे फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं| उन्हें शायद अब भी यह अंदेशा है कि अमेरिका और आर्मी मुशर्रफ के साथ हैं| यह अंदेशा निराधार है| लेकिन दो-तिहाई मत में मुश्किल पड़ सकती है, हालांकि मुस्लिम लीग (क़ा) के अध्यक्ष चौधरी शुजात हुसैन ने अपने सांसदों को तटस्थ रहने के संकेत दे दिए हैं| इसके बावजूद यदि सत्तारूढ़ दल गच्चा नहीं खाना चाहते तो वे वे ऐसा कर सकते हैं कि महाभियोग चलाने के पहले राष्ट्रपति के अधिकारों में कटौती का संशोधन-विधेयक ले आएं| यदि यह विधेयक पास हो गया तो महाभियोग का रास्ता खुल जाएगा और उसके पहले ही राष्ट्रपति का पद मुशर्रफ के लिए शर्मिंदगी का पद बन जाएगा| वे ‘साग-सब्जी’ की तरह सड़ते क्यों रहेंगे? एक तीर से दो शिकार हो जाएंगे| यदि अब भी ये मुद्दे अटके रहे तो सबसे ज्यादा नुकसान ज़रदारी को होगा| ज़रदारी की यह जिद भी गलत है कि नया राष्ट्रपति भी उन्हीं की पार्टी का होगा| नेपाल के प्रचंड की तरह ज़रदारी भी खंडित जनादेश का सही अर्थ समझ नहीं पा रहे हैं| वे प्रकारांतर से मियां नवाज़ शरीफ के हाथ मजबूत कर रहे हैं| मुशर्रफ को फांसी पर लटकाने की बात कहकर मियॉं नवाज़ अपना कद छोटा क्यों कर रहे हैं?
ज़रदारी को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे सरकार चला रहे हैं| पिछले चार माह का रेकार्ड घाटे ही घाटे का है| आतंकवाद और मंहगाई ने जनता को त्र्स्त कर दिया है| अमेरिकी फौजी कार्रवाई ने पाकिस्तानी संप्रभुता के छिलके उतार दिए हैं| दक्षेस और भारत के साथ संबंध-सुधार की प्रकि्रया अधर में लटक गई है| यह जड़ता जितनी जल्दी टूटे, पाकिस्तान का उतना ही भला होगा|
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