Nav Bharat Times, 5 Dec 2003 : क्या खूब खेल चल रहा है ? भारत और पाकिस्तान अपनी-अपनी मूल टेक पर अड़े हुए हैं, फिर भी दोनों के बीच शस्त्र-विराम और हवाई-मार्ग समझौते भी हो रहे हैं| कोई आश्चर्य नहीं कि अमृतसर-लाहौर, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद और राजस्थान-सिंध बसें भी चल पड़ें| मुम्बई-कराची यात्री-जहाज भी चल पड़ेंगे| जब इतनी चीजों के चलने के समझौते हो जाऍंगे तो भला समझौता-एक्सप्रेस क्यों खड़ी रहेगी ? याने जितनी चीजें बंद थीं, वे सब चल पड़ेंगी लेकिन परनाला वहीं गिरेगा याने न तो अटलबिहारी वाजपेयी अपनी टेक छोड़ेंगे और न ही परवेज़ मुशर्रफ ! अटलजी सीमा-पार आतंकवाद की माला जपते रहेंगे और मुशर्रफ राग-कश्मीर अलापते रहेंगे| मुशर्रफ ने तो बीबीसी को कहा भी है कि अगर ‘वाजपायी साहब’ कश्मीर के हल की तरफ बढ़ें तो उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सम्मान भी दिया जा सकता है| इधर अटलजी के अफसर पाकिस्तान के अफसरों से कश्मीर के अलावा हर मुद्दे पर बात कर रहे हैं और भारत सरकार का तकि़या कलाम यही है कि जब तक सीमा-पार आतंकवाद बंद नहीं होगा, हम पाकिस्तान से बात नहीं करेंगे| भारत सरकार यह नहीं बताती कि कौनसी बात नहीं करेगी| उसके लिए इससे बढि़या बात क्या होगी कि वह हर बात की बात करे लेकिन कश्मीर की बात न करे| यदि यही सिलसिला चलता रहे तो भारत-पाक संबंध उसी लीक पर चल पड़ेंगे, जिस पर भारत-चीन संबंध चल रहे हैं| याने विवादास्पद मुद्दे हाशिए में रहें| वे भी चलते रहें लेकिन अन्य मुद्दे दौड़ते रहें|
मुद्दे दौड़ रहे हैं, इसमें शक नहीं| ईद के मौके पर उधर प्रधानमंत्री जमाली ने शस्त्र-विराम का प्रस्ताव रखा और इधर से तुरंत हरी झंडी मिल गई| इतना ही नहीं, नेकी और पूछ-पूछ का समॉं बॅंध गया| शस्त्र-विराम में नियंत्रण रेखा के साथ-साथ सियाचिन और अन्तरराष्ट्रीय सीमा भी जुड़ गई| डेढ़-दो साल से बंद पड़े हवाई मार्ग भी खुल रहे हैं| जल और थल-मार्ग भी हरी झंडी की बाट जोह रहे हैं| जनरल मुशर्रफ अब यह नहीं कह रहे कि कश्मीर में जो भी बस-यात्रा करेगा, वह संयुक्तराष्ट्र का परमिट लेकर आएगा| भारतीय प्रस्तावों के मार्ग में पाकिस्तान ने जो बेढंगे रोड़े अटकाए थे, उन पर पाकिस्तानी अखबारों ने ही काफी थू-थू कर दी थी| सारे पाकिस्तान में जनता का दबाव मेल-मिलाप और शांति के लिए है| कश्मीर तो पाकिस्तानी फौज और नेताओं का करिश्मा है| 1997 के चुनावों में कश्मीर नामक कोई मुद्दा ही नहीं था| लगभग दस दिन तक मैंने नवाज़ शरीफ़, बेनज़ीर भुट्टो और इमरान खान के भाषण सुने और उनसे बात भी की| कश्मीर का कहीं जि़क्र तक नहीं था| उस चुनाव में नवाज़ शरीफ़ अपूर्व एवं प्रचंड बहुमत से जीते थे| उन्होंने कश्मीर के शांतिपूर्ण हल की घोषणा की थी लेकिन पिछले छह वर्षों में, खासतौर से अक्तूबर 1999 याने जब से जनरल मुशर्रफ तख्तनशीं हुए हैं, कश्मीर का अन्तरराष्ट्रीयकरण करने की भरपूर कोशिश हुई है बल्कि आतंकवाद को स्वाधीनता-संग्राम की संज्ञा दी गई है| इस मुद्दे पर पाकिस्तान आज तक टस से मस नहीं हुआ है| अमेरिकियों को खुश करने के लिए पाकिस्तान कभी इस आतंकवादी संगठन पर फर्जी प्रतिबंध लगा देता है और कभी उस पर ! वे कोई और नाम-रूप धरकर दुबारा खम ठोकने लगते हैं| इसीलिए संबंध-सुधार की वर्तमान पाक-पहल पर भारत को थिरकने की जरूरत नहीं है| यदि पाकिस्तान का हृदय-परिवर्तन हुआ होता तो भारत के 12 सूत्री शांति-प्रस्तावों पर उसकी अजीबो-गरीब प्रतिक्रिया क्यों होती ? वह भारत को ही नहीं, अमेरिका को भी गच्चा दे रहा है| आतंकवाद के नाम पर वह अमेरिकी कामधेनु को जमकर दुह रहा है| डॉलर, शस्त्र और सहानुभूति बहे चले आ रहे हैं, उसके लिए ! अमेरिका को चाहिए था कि वह एराक़ की बजाय पाकिस्तान को अपना निशाना बनाता लेकिन जनरल मुशर्रफ की चतुराई है कि पाकिस्तान आतंकवाद का अड्डा होने के बावजूद अमेरिका की नाक का बाल बना हुआ है| अफगान राष्ट्रपति हामिद करज़ई अगर कहते हैं कि तालिबान नेता मुल्ला उमर बलूचिस्तान में देखे गए और उसामा बिन लादेन पाकिस्तान के इलाक़ा-ए-गैर में छिपे हुए हैं तो यह कोई कोरी पतंगबाजी नहीं है|
कश्मीर और आतंकवाद के प्रति मुशर्रफ-सरकार का इतना दुराग्रह है, इसके बावजूद भारत के साथ वह अचानक शांति की पींगे क्यों भरने लगी है ? उस पर अमेरिकी दबाव बहुत ज्यादा है, यह कहने की जरूरत नहीं लेकिन उससे भी ज्यादा दबाव दक्षेस का है| जनवरी में होनेवाले दक्षेस सम्मेलन को वह हर क़ीमत पर सफल हुआ देखना चाहती है| इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो कुछ जरूरी है, वह अवश्य किया जाएगा| यदि भारत भाग न ले तो दक्षेस स्थगित हो जाएगा, क्योंकि उसका संविधान कहता है कि सम्मेलन तभी हो सकता है जबकि प्रत्येक सदस्य भाग ले| यदि भारत भाग ले और प्रधानमंत्री वाजपेयी न जाऍं तो सम्मेलन की किरकिरी अपने आप ही हो जाएगी| दूल्हे के बिना बारात कैसी ? इसीलिए मुशर्रफ अटलजी का हर नखरा उठाऍंगे| अगर रोटी मॉंगी जाएगी तो उस पर मक्खन भी अपने-आप चला आएगा| भारत की पॉंचों उंगलियॉं आजकल घी में हैं| जब तक दक्षेस-सम्मेलन नहीं हो जाता, पाकिस्तान सज्जनता की प्रतिमूर्ति बना रहेगा| दक्षेस-जैसा नखदंतहीन संगठन दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों के बीच इतनी रचनात्मक भूमिका निभा सकता है, इसकी कल्पना किसे होगी| यही कारण है कि सीमा-पार आतंकवाद की माला जपते-जपते भी अटलजी इस्लामाबाद पहॅुंच जाऍंगे| क्या ऐसा भी हो सकता है कि वे मुशर्रफ के मेहमान रहें और उनसे बात भी न करें ? याने सीमा-पार आतंकवाद भी चलेगा और उच्चतम स्तर पर बात भी चलेगी| यह कूटनीतिक प्रहसन है| नेता अभिनेता बनेंगे| इस बहरूपिएपन में क्या बुराई है ? यदि मुशर्रफ कश्मीर के मुद्दे को दरकिनार करके अटलजी के लिए लाल गलीचा बिछा रहे हैं तो सीमा-पार आतंकवाद को दरी के नीचे सरकाकर यदि अटलजी मुशर्रफ को लाल गुलाब थमा दें तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए ?
इस वक्ती समझौते या पैंतरेबाजी से किसका क्या नुक्सान हो रहा है ? सर्दियों के मौसम में कश्मीर में यों ही शस्त्र-विराम हो जाता है और वह शस्त्र-विराम तब तक के लिए तो नहीं है, जब तक कश्मीर हल नहीं हो जाता| इसे जो पक्ष जब चाहे तब ही स्थगित कर सकता है| इसी प्रकार एक-दूसरे की हवाई-सीमा में से अगर यात्री-जहाज उड़ेंगे तो भारत को ज्यादा लाभ होगा, क्योंकि उसकी लगभग सवा-सौ उड़ानें पाकिस्तान के ऊपर से जाती हैं और पाकिस्तान की सिर्फ दर्जन भर ! फिर भी पाकिस्तान को नुक्सान कोई नहीं है, फायदा ही फायदा है| यदि पाकिस्तान-पार उड़ान के कारण दिल्ली-काबुल जुड़ेंगे तो भारत-पाक मार्गों के खुलने से संपूर्ण मध्य एशिया के लिए पाकिस्तान यातायात और संचार का माध्यम बन जाएगा| जहॉं तक भारत का सवाल है, दक्षेस के बहाने उसे अपनी भूल-सुधान का अप्रत्याशित अवसर मिल रहा है| संसद पर हुए आतंकवादी हमले के जवाब में पाकिस्तान के साथ उसने अपना हुक्का-पानी बंद कर लिया था| अब वह भी खुलेगा| अगर दोनों पड़ौसियों के बीच यह स्थायी-भाव बन जाए तो मैत्री का रसोद्रेक होकर रहेगा और अगर यह सिर्फ वक्ती पैंतरा भर है तो भी मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है ? मुफ्त इसलिए कि सीमांत पर 10 माह तक फौजें डटाने में हमने अपने देश को 20 खरब रु. का चूना लगाया| किसी वास्तविक युद्घ से भी ज्यादा पैसा नाली में बहाया लेकिन कुछ हाथ न आया| हम अपना-सा मुह लेकर रह गए| पाकिस्तान के दिल में हम बाल बराबर भी दहशत पैदा नहीं कर पाए| सीमा-पार आतंकवाद को दफनाना तो दूर रहा, हमने गुस्से में अपना जो हुक्का-पानी बंद किया था, उसे खुलवाने के लिए तरसते रहे| दक्षेस ने यह मौका हमें बिना मॉंगे ही दे दिया है कि हम जो चाहते हैं, वह खुद-ब-खुद होता चला जा रहा है| कहॉं 20 खरब और कहॉं मुफ्त ? सिर्फ प्रधानमंत्री दक्षेस में चले जाऍं, इसीलिए सारे उल्लू सीधे होते चले जा रहे हैं|
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