R Sahara, 31 Aug 2003 : अब से ठीक सोलह माह पहले ! 28 फरवरी 2002 ! दिल्ली का हैदराबाद हाउस, जहॉं प्रधानमंत्री की दावतें होती हैं| अफगानिस्तान के राष्ट्र्रपति हामिद करज़ई के सम्मान में दावत थी | जैसे ही अतिथिगण भोज-कक्ष में घुसे, प्रधानमंत्री से आमना-सामना हुआ | मैंने पूछा ‘करज़ई को हमने क्या-क्या दिया?’ वे बोले, ‘ये बात तो बाद में हो जाएगी, पहले यह बताइए कि लखनउ में क्या किया जाए?” उन दिनों यह असमंजस बना हुआ था कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए? मैंने कहा, ”मुलायमसिंहजी को !” अटलजी ने कहा ”ठीक है, पहले प्रेम से भोजन कीजिए और फिर बताइए |” भोजन के बाद सभी अतिथि विदा होने के लिए द्वार के पास नीचे जमा हो गए | अटलजी ने फिर पूछा ”तो क्या सोचा, आपने?” मैंने कहा, ”तर्क वही है, जो आपके लिए दिया गया था | सबसे बड़ी पार्टी के नेता को राष्ट्र्रपति ने बुला लिया, प्रधानमंत्री की शपथ के लिए |” इतने में पूर्व प्रधानमंत्री इंदर गुजराल हम दोनों के एक दम निकट आ गए | अटलजी ने गुजराल साहब से पूछा, ”आपकी क्या राय है?” उन्होंने कहा ”वैदिकजी जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल सही है |” अटलजी ने तपाक से कहा, ”सही हो सकता है लेकिन आप दोनों मुलायमसिंह का समर्थन इसलिए कर रहे हैं कि वे आप दोनों के दोस्त हैं |” इस चुटकी पर सब हॅंस दिए | यह वार्तालाप अगल-बगल खड़े कई मंत्री सुन रहे थे | उनमें से एक ने कहा, ”भगवन, प्रधानमंत्रीजी को यह आप क्या सलाह दे रहे हैं? ‘वह’ पहले दिन ही हमें अंदर कर देगा | उसने शंकराचार्य को पकड़ लिया, वह हमें क्यों बख्शेगा ?” मैंने कहा, ”यह ज़रूरी नहीं | यह भी संभव है कि अटलजी लखनउ में मुलायमसिंह के गठबंधन को चलने दें और मुलायमसिंहजी दिल्ली में अटलजी के गठबंधन को चलने दें |” क्या अब सोलह माह बाद यही स्थिति उत्पन्न नहीं हो गई है ? अगर उसी समय यह बात मान ली जाती तो संवैधानिक परम्परा की रक्षा तो होती ही, डेढ़ साल तक भाजपा को भारतीय राजनीति के कोढ़ को सहलाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती |
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दिल्लीकीराजभाषा
दिल्ली प्रशासन की भाषा याने दिल्ली की राजभाषा का सवाल कई वर्षों से अधर में लटका हुआ था | भाजपा के तीनों मुख्यमंत्रियों – म0ला0 खुराना, साहिबसिंह वर्मा और सुषमा स्वराज को अनेक बार कहने पर भी वे अपनी विधानसभा में राजभाषा विधेयक नहीं ला सके | ये तीनों हिन्दीप्रेमी नेता हैं और तीनों ने हिन्दी आंदोलन में हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया है लेकिन कॉंगे्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तो उनके हिन्दी-प्रेम के लिए जानी नहीं जातीं | फिर भी भारतीय भाषा सम्मेलन के आग्रह पर वे राजभाषा विधेयक ले आईं | विधेयक के मसविदे में अफसरों ने अपनी कलाकारी कर दी | हमें जैसे ही मालूम पड़ा, सर्वश्री बालकवि बैरागी, कृष्णकुमार ग्रोवर, शामलाल, महेशचंद्र गुप्त आदि हम लोग शीलाजी से मिलने गए | उन्होंने उसी समय अफसरों की खिंचाई की और जो-जो सुधार हमने बताए, करवा दिए | विधेयक पारित हो गया लेकिन पिछले तीन साल से वह गृह-मंत्रालय में अटका रह गया | मार्च में सम्मेलन के प्रतिनिधि गृहमंत्री आडवाणी से मिले | उन्होंने उसी वक्त दिल्ली के उप-राज्यपाल विजय कपूर को फोन किया | अब वह विधेयक कानून बन गया है लेकिन जैसे केंद्र सरकार का ‘राजभाषा अधिनियम, 1963′ 13 वर्ष तक अपंग होकर पड़ा रहा, वैसे ही यह ‘दिल्ली राजभाषा अधिनियम’ भी पड़ा रह सकता है और दिल्ली प्रशासन का काम-काज हमेशा की तरह अंग्रेजी में ही चलता रह सकता है | जरूरी यह है कि जैसे 28 जून 1976 को इंदिरा गॉंधी ने अधिनियम को लागू करने के काम-काजी नियम बना दिए थे, ठीक उसी प्रकार शीला दीक्षित भी काम-काजी नियम तुरंत तैयार करें | नियम जरा कठोर होने चाहिए और राजभाषा में काम न करनेवाले कर्मचारियों के लिए सज़ा का प्रावधान भी होना चाहिए | नियमों का पालन खुद करके मुख्यमंत्री उदाहरण प्रस्तुत करें, यह भी जरूरी है |
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नेशनलबुकट्र्रस्ट
आशा है कि ‘नेशनल बुक ट्र्रस्ट’ का अब आमूल-चूल रूपान्तरण होगा | इसके नए अध्यक्ष डॉ. ब्रजकिशोर शर्मा जाने-माने विधिशास्त्री, विद्वान और उत्कट हिन्दीप्रेमी हैं | डॉ. शर्मा के अध्यक्ष बनते ही संचालक मंडल के सदस्यों के साथ हिन्दी में पत्राचार शुरू हो गया | ‘ट्र्रस्ट’ की पहली बैठक की लगभग पूरी कार्यवाही हिन्दी में ही हुई | छपी हुई कार्यवाही-विवरणिका भी हिन्दी में ही आई | ट्र्रस्टियों में डॉ. गोपीचंद नारंग, डॉ. नारायण रेड्रडी, श्री शौरिराजन, श्री रमेशचंद्र, श्री बिशन टंडन जैसे लोग हैं, जिन्होंने मेरे इस सुझाव का समर्थन किया कि नेशनल बुक ट्र्रस्ट का नाम हिन्दी में रखा जाए तथा मूल पुस्तकें अंग्रेजी में नहीं, भारतीय भाषाओं में लिखवाई जाऍं और ऐसी पुस्तकें भी लिखवाई जाऍं, जो विचारों के क्षेत्र में अग्रगण्य और क्रांतिकारी हों | विदेशी भाषाओं और स्वभाषाओं के बीच ज्ञान-विज्ञान और साहित्य की श्रेष्ठ पुस्तकों के अनुवाद का अनवरत क्रम स्थापित किया जाए | स्वभाषाओं में ज्ञान-विज्ञान की मौलिक पुस्तक लिखनेवाले विद्वानों के लिए अब अवसरों के अनन्त द्वार खुलनेवाले हैं |
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महिलाऍंऔरनिजीकानून
इंडिया इंटरनेशनल सेटर में अनेक महिला संगठनों की ओर से एक धुऑंधार सम्मेलन हुआ | रंजनाकुमारी के नेतृत्व में आयोजित इस सम्मेलन का मुख्य लक्ष्य यह सिद्घ करना था कि तलाक़, बहुपत्नी विवाह, पैतृक सम्पति आदि निजी कानूनों का सारा जुल्म अगर किसी के विरुद्घ है तो वह औरतों के विरुद्घ है | सभी धर्मों और अनेक जातियों की महिला प्रतिनिधियों ने इस अत्याचार के विरुद्घ एकजुट होकर अभियान चलाने का संकल्प किया | इस सम्मेलन में डॉ. सय्रयदा हामिद, श्रीमती ज़रीना बट्रटी तथा कुछ अन्य मुस्लिम विदुषियों के विचार सुनने लायक थे | इस सम्मेलन के सार रूप में एक ही नारा उभरता है कि ”दुनिया की सब औरतें एक हो जाओ | तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी बेडि़यों के अलावा और कुछ नहीं है |” कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के मार्क्स और एन्जिल्स के नारे की तरह क्या यह भी बहुत शक्तिशाली नारा नहीं है ?
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