दैनिक भास्कर, 11 जून 2008 : यदि जनरल मुशर्रफ 18 फरवरी को ही इस्तीफा दे देते तो शायद वे पाकिस्तान के इतिहास-पुरूष बन जाते| जनरल जिया के मुकाबले उनका नाम कुछ चमकदार अक्षरों में लिखा जाता| यह सबको पता चल गया था कि उनकी पार्टी मुस्लिम लीग (क़ा) चुनाव हारनेवाली है| यदि वे अचानक इस्तीफा दे देते तो पूरा पाकिस्तान हतप्रभ हो जाता और देश की जनता उनकी अच्छाइयों पर ध्यान देती और बुराइयों को शायद भूल जाती| खार खाए हुए नेतागण उनके इस्तीफे को तब भी रद्द नहीं करते| उन्हें राष्ट्रपति की कुर्सी दुबारा नहीं मिलती लेकिन पाकिस्तान की राजनीति में दुबारा प्रवेश करने के लिए वे दरवाज़े जरूर खोल लेते लेकिन पिछले चार-पॉंच माह में कुर्सी से चिपके रहने के कारण उनकी छवि तार-तार हो गई है| अब पाकिस्तान के सत्तारूढ़ दल उन्हें खुरच-खुरचकर कुर्सी से हटा रहे हैं|
अब भी उन्होंने पत्र्कार-परिषद में दावा किया है कि वे इस्तीफा नहीं देंगे| वे कहते हैं कि वे साग-सब्जी की तरह पड़े नहीं रहेंगे| उन्हें नख-दंतहीन भूमिका कतई पसंद नहीं है| अगर उनकी उपयोगिता नहीं रही तो वे खुद पद छोड़ देंगे| उन्हें कोई मजबूर नहीं कर सकता| उन्होंने नेताओं को उपदेश भी दिया कि आप लोग आतंकवाद और अर्थ-व्यवस्था, इन दो मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाऍं| मुशर्रफ को यह समझ में नहीं आ रहा कि सत्तारूढ़ दलों की सर्वसम्मति सबसे पहले उनके बारे में ही बन गई है| वे चाहते हैं कि मुशर्रफ कृपा करके शीघ्र बिदा हों|
खुद आसिफ ज़रदारी ने साफ़-साफ़ कह दिया कि मुशर्रफ अब इतिहास के विषय हो गए हैं| किसी राष्ट्रपति के लिए इससे बड़ी अपमानजनक बात क्या कही जा सकती है? यदि मुशर्रफ में दम-खम होता वे इसी टिप्पणी पर ज़रदारी को ही इतिहास का विषय बना देते| मुशर्रफ के विरूद्घ नवाज शरीफ अगर आग उगलें तो वह बात समझ में आती है लेकिन जरदारी का इतना मुंहफट हो जाना, इस बात का सबूत है कि बेनज़ीर, मुशर्रफ और अमेरिका के बीच जो गुप्त सहमति हुई थी, वह अब भंग हो चुकी है| मुशर्रफ को राष्ट्रपति के चुनाव में बेनज़ीर ने सीधी सहायता की थी और मुशर्रफ ने ज़रदारी पर से सारे मुकदमे उठा लिए थे| अब ज़रदारी पर कोई बंधन नहीं है| इसीलिए वे मुशर्रफ के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं और मियॉं नवाज़ से भी ज्यादा बोल रहे हैं| मुशर्रफ के जवाब में उन्होंने फिर गोला दागा है| उनके मुताबिक अब मुशर्रफ संप्रभु संसद का अपमान कर रहे हैं| संसद अगर उनके अधिकार घटाएगी तो उन्हें उसे मानना पड़ेगा और वह उन्हें हटाएगी तो उन्हें हटना पड़ेगा| उनका भाग्य वे नहीं, संसद तय करेगी|
ज़रदारी के इतने टो-टूक बयान पर न तो अमेरिका ने कोई टिप्पणी की है और न ही पाकिस्तानी फौज ने ! यही सबसे महत्वपूर्ण बात है| पहले कहा जाता था कि मुशर्रफ टिके रहेंगे, क्योंकि अल्लाह, आर्मी और अमेरिका, तीनों उनके साथ हैं| अब अमेरिका और आर्मी तो तटस्थ दिखाई पड़ रहे हैं| मुशर्रफ अब सिर्फ, अल्लाह के भरोसे ही हैं| जिस फौज पर नौ साल से उनका तकिया था, वह ही उन्हें अब हवा देने लगी है| सेनापति परवेज कयानी ने रावलपिंडी की बिग्रेड 111 के कमांडर का तबादला कर दिया है| यही बि्रगेड फौजी तख्ता-पलट करती है| मुशर्रफ के चहेते को हटाकर फौज ने स्पष्ट संदेश भेज दिया है| सेनापति कयानी यों तो मुशर्रफ के खासमखास रहे हैं लेकिन सर्वोच्च पद पर पहुंचते ही उन्होंने दो काम कर दिए| एक तो फौजी अफसरों को राजनीति और नेताओं से अलग रहने के निर्देश दिए और दूसरा, सरकारी और ओद्योगिक ओहदों पर जमे फौजियों को उन्होंने वापस बुला लिया| सेनापति कयानी अब भी मुशर्रफ के विरूद्घ कुछ नहीं बोलते हैं और अनाप-शनाप अफवाहों का खंडन भी करते हैं लेकिन कुल मिलाकर पाकिस्तान में यह माना जाने लगा है कि पाकिस्तानी फौज न तो मुशर्रफ को जमाने की कोशिश करेगी और न ही हटाने की !
जहां तक अमेरिका का सवाल है, जनरल कयानी के साथ उसके समीकरण पहले से ही अच्छे हैं| अब और भी मजबूत हो गए हैं| अमेरिका का मुख्य लक्ष्य आतंकवाद से लड़ना है| यदि यह काम कयानी करेंगे तो उन्हें मुशर्रफ पर निर्भर रहने की कोई मजबूरी नहीं है| उनकी बला से, कोई भी आए मुशर्रफ की जगह ! इसीलिए अब मुशर्रफ कहने लगे हैं कि जब उनकी मर्जी होगी, वे कुर्सी छोड़ देंगे| मुशर्रफ की आवाज़ किसी डूबते हुए मछुआरे से मिलती-जुलती है| ज़रा तुलना करें| सद्दाम हुसैन के सूचना मंत्री से ! बगदाद से भागने के दो घंटे पहले तक वे शेखी बघारते रहे| इसी तरह तालिबान के प्रवक्ता काबुल से भागते-भागते भी कहते रहे कि हम डटे हुए हैं| मुशर्रफ इस समय इस्लामाबाद में सद्दाम और तालिबान की तरह डटे हुए हैं| उनके दिन अब पूरे होने लगे हैं|
यह ठीक है कि मुशर्रफ को हटाने के लिए 2/3 बहुमत अभी सत्तारूढ़ दलों के पास नहीं है और यही तथ्य मुशर्रफ के आत्म-विश्वास को कायम किए हुए है लेकिन मुशर्रफ का खुफिया तंत्र् उन्हें धोखा दे रहा है| मुशर्रफ को शायद पता नहीं कि मुस्लिम लीग (क़ा) के सर्वोच्च नेता भी अब उनको नहीं चाहते| खुद उनकी पार्टी में फूट पड़ी हुई है| वह कब टूट जाए, कुछ पता नहीं| ज़रदारी और नवाज़ को 2/3 बहुमत जुटाना इसलिए भी मुश्किल नहीं होगा कि केंद्र और पंजाब, दोनों जगह उनकी सरकारें हैं| सीनेट के सांसदों के आगे तरह-तरह की गाजरें लटकाई जा सकती हैं| इसके अलावा पाकिस्तान की आम जनता के बीच मुशर्रफ-विरोधी हवा बह रही है| अकबर बुग्ती की हत्या के कारण बलूचिस्तान चंग पर चढ़ा हुआ है, पख्तूनिस्तान में आवामी हुकूमत बन गई है, एमक्यूएम भी अलग छिटक गई है और सारा पंजाब नवाज़ के तख्ता पलट का बदला लेने पर आमादा है| कौन है, अब मुशर्रफ के साथ ? कुछ मुहाजिर याने भारत से गए हुए उर्दूभाषी मुसलमान उनके साथ जरूर हैं लेकिन उनकी हिम्मत नहीं कि वे अपना मुंह खोलें ! मुख्यमंत्र्ी की शपथ लेते ही शाहबाज़-शरीफ ने ‘तानाशाह’ पर पिस्तौल तान दी है|
अब तक मुशर्रफ ने जो दिन काटे, वे इसलिए कि पीपीपी और मुस्लिम लीग (न) में जजों की वापसी को लेकर पूर्ण सहमति नहीं हो रही थी| अब वह भी होने को है| 10 जून से वकीलों का ‘लॉंग मार्च’ शुरू हो रहा है| यदि मुशर्रफ खुद नहीं जाएंगे तो उन पर महाभियोग लगेगा और महाभियोग के पहले ही अगर जजों की वापसी हो गई तो अदालत ही उन्हें अपदस्थ कर देगी| उनके चुनाव और आपात्काल के अवैध घोषित होते ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा| क्या राष्ट्रपति के वर्तमान संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करके मुशर्रफ सरकार और संसद को भंग करेंगे? क्या पाकिस्तान की फौज उनका साथ देगी? क्या उनके खातिर अमेरिका पाकिस्तानी जनता का गुस्सा मोल लेगा ? बिल्कुल नहीं | मुशर्रफ के चारों तरफ फैला फंदा अब कसता चला जा रहा है| शतरंज का बादशाह घिर गया है|
(लेखक दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैं और हाल ही में पाकिस्तान-यात्रi करके लौटे हैं)
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