R Sahara, 25 Dec 2003: कश्मीर पर सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव को ‘अलग रखने’ की बात जनरल मुशर्रफ ने क्या कही कि पाकिस्तान में बवाल उठ खड़ा हुआ और भारत में आशा की लहर दौड़ गई| ये दोनों प्रतिक्रियाऍं एक-दूसरे की विरोधी हैं लेकिन दोनों स्वाभाविक हैं क्योंकि पिछले 55 वर्षों से दोनों राष्ट्र इसी प्रस्ताव को मान्य करने और अमान्य करने पर तलवार भॉंज रहे हैं| कश्मीर के खॅूंटे पर यह प्रस्ताव इतना कसकर बॉंध दिया गया है कि खॅूंटे और रस्से का फर्क खत्म हो गया है| औसत पाकिस्तानी समझता है कि अगर सुरक्षा परिषद्र का प्रस्ताव दरकिनार हो गया तो कश्मीर हमारे हाथ से गया और भारतीय समझते हैं कि अगर हमने यह प्रस्ताव मान लिया तो कश्मीर में जनमत-संग्रह करवाना पड़ेगा और उसे तश्तरी में रखकर हमें पाकिस्तान को भेंट करना होगा|
दोनों देशों का सोच गलत है| इसीलिए जनरल मुशर्रफ ने जब ‘रायटर’ से कहा कि संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को वे दरकिनार कर रहे हैं तो मुझे लगा कि ये कोई खास बात नहीं है| इस बात पर भारत को फुदकने की जरूरत नहीं है| सच्चाई तो यह है कि सुरक्षा परिषद्र का कश्मीर-प्रस्ताव पाकिस्तान के पॉंव की बेड़ी बन चुका है| जैसे ही पाकिस्तान इस प्रस्ताव की बात छेड़ता है, भारत उसे रद्द कर देता है याने कश्मीर पर बातचीत का बिस्मिल्लाह ही नहीं हो सकता| यदि पाकिस्तान कश्मीर को बातचीत का मुद्दा बनाना चाहता है तो भारत की पहली शर्त यह है कि वह संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को ताक पर रखे, यह बात पाकिस्तानी हुक्मरानों को अच्छी तरह समझ में आ गई है| भारत ने पिछले अनेक वर्षों में यह स्पष्ट कर दिया है कि वह कश्मीर पर किसी बाहरी व्यक्ति, देश या संस्था का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करेगा| ऐसे में वह संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को क्यों मानने लगा ? इसके अलावा क्या संयुक्तराष्ट्र स्वयं कोई पहल करने को तैयार है ? सं.रा. महासचिव कोफी अन्नान ने उस प्रस्ताव को पुराना और असामयिक घोषित कर दिया है| जिन राष्ट्रों ने कश्मीर में जनमत-संग्रह का समर्थन किया था, वे भी आज जनमत-संग्रह की बात नहीं करते| इसीलिए अमेरिका, बि्रटेन तथा यूरोपीय राष्ट्रों ने मुशर्रफ के मूल बयान का स्वागत किया है| ऐसी स्थिति में मुशर्रफ द्वारा जनमत-संग्रह की बात को दरकिनार करना इस बात का सूचक है कि वे व्यावहारिक आदमी हैं| वे प्रवाह के विरुद्घ तैरना नहीं चाहते| वे प्रवाह के साथ तैर कर आगे निकलने की फिराक में हैं लेकिन पाकिस्तान का कठमुल्ला वर्ग इतनी दूर की बात नहीं सोच सकता, इसीलिए लगभग सभी विरोधी दल बौखला गए| उन्होंने पहले दिन ही इतना शोर मचाया कि पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को सफाइयॉं पेश करनी पड़ीं| उसे कहना पड़ा कि जनरल साहब का आशय यह था कि उस प्रस्ताव से भी बेहतर कई विकल्प उनके पास हैं| सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तानी दिमाग में सं.रा. प्रस्ताव को इतना गहरा धॅंसा दिया गया है कि उसके आगे ताशकंद, शिमला और लाहौर घोषणाऍं नक्कारखाने में तूती की तरह डूब जाती हैं|
पाकिस्तानी यह भूल जाते हैं कि सं.रा. प्रस्ताव का सबसे अधिक अगर कोई उल्लंघन कर रहा है तो उनका देश कर रहा है| उस प्रस्ताव की पहली शर्त यह है कि कश्मीर के जिस हिस्से पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया है, वह उसे खाली करे| खाली होने के बाद ही पूरे कश्मीर में जनमत-संग्रह हो सकता है| याने पहले पाकिस्तान अपना फर्ज़ निभाए तो फिर भारत की बारी आए| अब हम पता करें कि पाकिस्तान ने पिछले 55 साल में वहॉं क्या-क्या किया ? खाली करना तो दूर, कश्मीर के गिलगिल आदि क्षेत्रों को उसने विधिवत अपने क्षेत्रों में मिला लिया| हजारों वर्गमील कश्मीरी ज़मीन 1963 में उसने चीन को भेंट कर दी| कब्जाए हुए कश्मीर का भूगोल तो उसने बदला ही, जनसंख्या की भी अदला-बदली कर दी| उसने अपने कश्मीरियों को दिखावे के लिए भी कभी ‘आत्म-निर्णय’ का अधिकार नहीं दिया| नकली चुनावों में फर्जी सरकारें थोप दीं| उसके अनुसार यदि भारत अपने कश्मीरियों पर जुल्म ढा रहा है तो कम से कम वह तो अपने कश्मीरियों के साथ अच्छा बर्ताव करता| उसने ‘आजाद कश्मीर’ के लोगों को गुलाम क्यों बना रखा है ? एक पाकिस्तानी प्रोफेसर के शब्दों में ‘आज़ाद कश्मीर’ को विराट अनाथालय और घृणित वेश्यालय क्यों बना दिया गया है ? सं.रा. प्रस्ताव पर पाकिस्तान अगर अमल करता तो उसे ‘आज़ाद कश्मीर’ बहुत पहले ही खाली कर देना पड़ता ? क्या पाकिस्तानी जनता इस एकतरफा वापसी के लिए तैयार हो सकती है ? ऐसे में अगर मुशर्रफ कश्मीरियों को छोड़ने की बजाय सं.रा. प्रस्ताव को छोड़ने की बात कर रहे हैं तो पाकिस्तानियों को उनका अभिनंदन करना चाहिए| वे पाकिस्तान के गले में 55 साल से पड़े सॉंप को उतार रहे हैं| रिन्द के रिन्द रहे और जन्नत भी न गई| अगर पाकिस्तानी लोग दूरंदेश होते तो वे मुशर्रफ की पीठ थपथपाते और कहते कि सं.रा. प्रस्ताव से उनका पिंड छुड़ाकर मुशर्रफ नेे मकबूजा कश्मीर को मुकम्मल तौर पर हथिया लिया है|
सं.रा. प्रस्ताव कश्मीरियों को बिल्कुल नापसंद है, क्या यह बात पाकिस्तानी नहीं जानते ? क्या उन्हें पता नहीं कि इस प्रस्ताव के मुताबिक कश्मीरी या तो भारत में मिल सकते हैं या पाकिस्तान में| उनके पास तीसरा विकल्प नहीं है याने वे चाहें तो ‘आज़ाद’ नहीं हो सकते| वे स्वतंत्र राष्ट्र नहीं बन सकते| यह प्रस्ताव उन लोगों के किस काम का, जो आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं| यदि पाकिस्तान अब भी इस प्रस्ताव से चिपका रहेगा तो कश्मीर के सारे आज़ादीपसंद तत्व पाकिस्तान के खिलाफ हो जाएंगे| लगभग 10 साल पहले बेनज़ीर भुट्टो ने गल्ती से ‘तीसरे विकल्प’ को रद्द घोषित कर दिया था| इस पर कश्मीरियों ने इस्लामाबाद को सिर पर उठा लिया था| कश्मीरी कहते हैं कि जनमत-संग्रह के बाद अगर हमें पाकिस्तान की ही गुलामी करनी है तो उससे कहीं अच्छा तो भारत के साथ रहना है, क्योंकि यहॉं कम-से-कम लोकेतंत्र तो है, सार्वभौम संसद तो है, निष्पक्ष न्यायपालिका तो है, निर्भय अखबार तो हैं| इसीलिए जनरल मुशर्रफ ने जब कहा कि सं.रा. प्रस्ताव को वे अलग रख रहे हैं तो सय्यद अली शाह जीलानी से लेकर शब्बीर शाह तक लगभग हर कश्मीरी नेता ने उसका स्वागत किया| उन्होंने मान लिया कि मुशर्रफ की इस “नरमी” का असर भारत पर जरूर पड़ेगा और भारत कश्मीर पर बात शुरू कर देगा|
अच्छा हुआ कि भारतीय अखबारों और औसत बौद्घिकों की तरह भारत सरकार मुशर्रफ की पहल पर गदगदायमान नहीं हुई| स्वयं मुशर्रफ अपनी बात दोहरा नहीं रहे| उन्होंने पत्थर उछालकर देख लिया| वह आसमान में छेद करता, इसकी बजाय उसने उनका दामन ही छलनी कर दिया| जिन पश्चिमी राष्ट्रों ने मुशर्रफ की तरमीम का तत्काल स्वागत किया था, वे अब महसूस कर रहे हैं कि उन्होंने जल्दबाजी कर दी थी| प्रधानमंत्री जमाली ने एकदम स्पष्ट कर दिया है कि पाकिस्तानी सरकार सं.रा. प्रस्ताव को बिल्कुल भी दरकिनार नहीं कर सकती| क्या जमाली की इतनी हिम्मत है कि वह मुशर्रफ का खुले-आम खंडन करें ? यह खंडन नहीं, मंडन है| मुशर्रफ भी सं. रा. प्रस्ताव को दरकिनार करने की बात क्यों कहने लगे ? सिर्फ इसलिए कि उसे दरकिनार किए बिना कश्मीर बातचीत का मुद्दा ही नहीं बनता| कश्मीर मुद्दा बने, इसलिए सं.रा. प्रस्ताव को अ-मुद्दा बनाना जरूरी था| इसीलिए उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक मात्र मुद्दा कश्मीर है| वे सं.रा. प्रस्ताव को दरकिनार कर सकते हैं, कश्मीर को नहीं| मुशर्रफ ने ऐसी चाल चली थी कि पश्चिमी मालिक-देश और भारत, दोनों ही बेवकूफ बन जाते| भारत बच गया, यह अच्छा रहा लेकिन भारत यह न भूले कि राक्षस के प्राण तोते की गर्दन में हैं| मुशर्रफ का सारा ज़ोर इस बात पर है कि भारत दक्षेस सम्मेलन में जरूर पहॅुंचे और एक बार पहॅुंच जाए तो फिर वह कश्मीर पर बात किए बिना नहीं लौटे| इसीलिए उन्होंने पहले एकतरफा शस्त्र-विराम का दॉव मारा और अब सं.रा. प्रस्ताव का पैंतरा उछाल दिया| इन पैंतरों और दॉंवों के आधार पर क्या यह माना जा सकता है कि कश्मीर पर पाकिस्तान का रवैया ज़रा भी नरम पड़ा है ?
Leave a Reply