हिन्दुस्तान, 5 मई 2002 : आश्चर्य यह नहीं है कि जनरल मुशर्रफ को प्रचण्ड बहुमत मिला बल्कि यह है कि प्रचण्ड मतदान हुआ| उन्हें प्रचण्ड बहुमत मिलेगा, यह तो पहले से तय था| हर तानाशाह के जनमत-संग्रह में यह पहले से ही तय होता है, इसलिए भी कि उसके मुकाबले कोई दूसरा उम्मीदवार नहीं होता, सम्पूर्ण सरकारी-तंत्र् उसके इशारे पर नाचता है और चुनाव-आयोग जैसी संस्थाएँ उसके हाथ की कठपुतली होती हैं| यदि मतदान सिर्फ पाँच प्रतिशत होता तो भी जनरल मुशर्रफ प्रचण्ड बहुमत से जीते हुए घोषित किए जाते| लेकिन आश्चर्य यह है कि मतदान 60 प्रतिशत से भी अधिक हुआ| लगभग सात करोड़ मतदाताओं में से चार करोड़ 40 लाख ने मतदान किया| उनमें से चार करोड़ 28 लाख ने मुशर्रफ के पक्ष में और मुश्किल से 9 लाख ने उनके विरोध में वोट दिए| याने मुशर्रफ को 98 प्रतिशत वोट मिल गए| यहाँ सवाल 98 प्रतिशत का नहीं है बल्कि यह है कि इतना जबर्दस्त मतदान कैसे हुआ ? इतना बड़ा मतदान तो जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ के चुनावों में भी नहीं हुआ| 1997 के लोकतांत्रिक चुनाव में नवाज़ शरीफ को अपूर्व बहुमत मिला था लेकिन तब भी मतदान केवल 37 प्रतिशत हुआ था ! इसी प्रकार जब जनरल जि़या ने जनमत संग्रह करवाया था तो उन्हें मुश्किल से सवा दो करोड़ वोट मिले थे|
दूसरे शब्दों में प्रश्न यह है कि किसका जनाधार व्यापक है, लोकतांत्रिक नेताओं का या फौजी जनरल का ? विरोधी नेताओं के ये आरोप सही हो सकते हैं कि मतदाओं को ट्रकों में भरकर लाया गया, मतदाताओं की आयु 21 से घटाकर 18 साल कर दी गई, फर्जी मतदान करवाया गया, बिना मतदाता सूची के ही मतदान करने दिया गया| इन्हीं कारणों से मुशर्रफ को प्रचण्ड बहुमत मिला है| इस तरह के आरोप तो पिछले मतदानों पर भी लगते रहे हैं| इनमें नया कुछ नहीं है| जो नया है, वह यह कि यहाँ पाकिस्तान के विरोधी नेताओं के पास इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं है कि जनता ने उनके आह्नान को क्यों नहीं माना और मतदान का बहिष्कार क्यों नहीं किया ? यदि मुशर्रफ के पक्ष में सिर्फ 10-15 लाख वोट पड़ते और विरोध में एक भी वोट नहीं पड़ता तो भी माना जाता कि मुशर्रफ हार गए लेकिन मुशर्रफ के विरुद्घ जो 9 लाख वोट पड़े हैं, वे उनकी प्रचण्ड विजय का सूचक हैं| 9 लाख लोगों ने उनके विरुद्घ वोट दिए हैं, यह तथ्य इस बात का सूचक है कि जो लोग मुशर्रफ के विरोधी हैं, वे भी पाकिस्तान के विरोधी दलों की बात नहीं सुनते| उन्होंने विरोधी दलों का कहना नहीं माना और मतदान में भाग लिया| जनमत संग्रह का बहिष्कार करने के बजाय पाकिस्तान के राजनीतिक दल यदि एक होकर मुशर्रफ के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा करते तो माना जाता कि उनमें कुछ दम-खम है लेकिन इस मतदान ने यह सिद्घ कर दिया है कि पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और नेताओं का कचूमर निकल चुका है| अयूब और जि़या को पाकिस्तान के मज़हबी संगठनों की शह मिली हुई थी| लेकिन मुशर्रफ को तो यह भी नसीब नहीं है| इसके बावजूद मुशर्रफ की ताज़पोशी के लिए सवा चार करोड़ लोगों का घर से निकल आना काफी बड़ी बात है| पाकिस्तान के फौजतंत्र् ने उसके राजनीतिकतंत्र् को करारी शिकस्त दे दी है|
मुशर्रफ जि़या से भी बड़े कलाकार सिद्घ हुए हैं| चुनाव-अभियान के दौरान इस फौजी जनरल ने ऐसे-ऐसे रूप धरे कि नेतागण भी क्या धरेंगे ? उन्होंने बेनज़ीर और नवाज़ को भ्रष्ट बताया और उनके देश-निकाले को जायज़ ठहराया लेकिन उनसे भी अधिक बदनाम नेताओं को मुशर्रफ ने गले लगाया| जिन तत्वों ने जनमत-संग्रह में उनका साथ दिया, उनमें से ही कुछ का ताना-बाना बुनकर वे अपनी एक नई पार्टी खड़ी कर लें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए| जिसको जैसा लॉलीपोप चाहिए था, मुशर्रफ ने दे दिया| सिंधियों और पठानों को यह खुशफहमी है कि मुशर्रफ उन्हें स्वायत्तता दे देंगे और ‘मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट’ के नेता अल्ताफ हुसैन ने तो मुशर्रफ के पक्ष में फतवा ही जारी कर दिया था| 15 लाख मुहाजिरों ने मुशर्रफ जिन्दाबाद के नारे भी लगाए| आखिर मुहाजिरों के बीच क्या पहले इतना बड़ा कोई नेता कभी पैदा हुआ ? एक उर्दूभाषी मुहाजिर पहली बार पाकिस्तान के सर्वोच्च पद पर पहुँचा है|
अब जनरल मुशर्रफ अगले पाँच साल तक राष्ट्रपति से सिंहासन पर डटे रहेंगे| इस जनमत-संग्रह ने उन्हें अगले पाँच साल तो दे ही दिए हैं, उनके पिछले ढाई साल पर भी मुहर लगा दी है| किसी भी शासक के लिए साढ़े सात साल की अवधि कम नहीं होती| वह चाहे तो अपने सपनों का देश खड़ा कर सकता है लेकिन आसार यही हैं कि मुशर्रफ पहले अपना कठपुतलीतंत्र् खड़ा करेंगे| अक्तूबर में वे अपने मनचाहे उम्मीदवारों को जितवाकर पहले रबरठप्पा संसद खड़ी करेंगे और फिर ऐसा मंत्र्िमंडल बनाएँगे, जो उनके इशारों पर नाचे| दूसरे शब्दों में वे अक्तूबर के बाद पाकिस्तान के निरंकुश स्वामी होंगे| अभी फौज, न्यायालय, प्रांतीय राज्यपाल, जिलाधीशगण और चुनाव आयोग-सभी उनकी जेब में हैं| जो बचे हुए हैं, वे भी अक्तूबर तक उनके हाथ में होंगे| याने अक्तूबर के बाद जनरल मुशर्रफ पाकिस्तान के अब तक के सभी तानाशाहों से ज्यादा ताकतवर तानाशाह होंगे|
यहाँ मुख्य प्रश्न यह है कि भारत का उनके प्रति क्या रवैया होगा ? भारत सरकार ने अभी तक कोई प्रतिकि्रया नहीं की है लेकिन भारत के अखबारी टिप्पणीकारों ने पाकिस्तानी लोकतंत्र् की हत्या पर आँसू बहाना शुरू कर दिया है| वे पाकिस्तान के विरोधी दलों से भी ज्यादा उबल रहे हैं| उन्हें लगता है कि पाकिस्तान को लोकतांत्र्िक बनाने का ठेका भारत का ही है| वे यह क्यों नहीं समझते कि पाकिस्तान के मूल में ही भाँग पड़ी हुई है| क्या मज़हब के नाम पर पाकिस्तान की तरह दुनिया में कोई अन्य राष्ट्र भी बना है ? क्या पाकिस्तान जैसा बेमेल, बेमौका, बेबुनियाद राष्ट्र दुनिया में कोई और है ? मज़हबी उन्माद, सामन्तवाद, जातीय घृणा और पिछलग्गूपन की नींव पर खड़े राष्ट्र में लोकतंत्र् अभी सपना ही बना रहनेवाला है| ऐसे अभिशप्त राष्ट्र से हम तभी बात करेंगे, जब वहाँ लोकतंत्र् हो, इस प्रतिज्ञा में कौनसी बुद्घिमानी है ? मुशर्रफ के सत्तासीन होने के बाद भारत सरकार डेढ़-दो साल तक यही हठ करती रही और फिर अचानक वह मुशर्रफ पर फिदा हो गई| यह बात दूसरी है कि फिदा हुई यह मुग्धा नायिक आगरा में मात खा गई| मुशर्रफ को भारत सरकार ने जितनी वैधता प्रदान की है, इस जमनत संग्रह ने भी नहीं की| जनमत-संग्रह ने तो मुशर्रफ को अब राष्ट्रपति बनाया है लेकिन उनकी भारत-यात्र ने तो उन्हें तब ही राष्ट्रपति बना दिया था| राष्ट्रपति तराड़ को धक्का देकर वे खुद उनके आसन पर बैठ गए थे| अब इस विधिसम्मत राष्ट्रपति से सारी दुनिया बात करेगी|
इसके पहले भी भारत सरकारें अयूब, याह्या और जि़या से बात करती रही हैं| अब मुशर्रफ से बात करने के अलावा कोई चारा नहीं है| यह भारत तय नहीं कर सकता कि पाकिस्तान का शासक कौन हो| जो भी हो, बात तो उसी से करनी पड़ेगी| भारत यह ओट नहीं ले सकता कि वह तानाशाह से बात नहीं करेगा| बल्कि यह तानाशाह इतना अधिक मजबूत होता जा रहा है कि अब केवल इसी से बात करनी पड़ेगी| पाकिस्तान के अन्य राजनीतिक तत्व अब धीरे-धीरे और धूमिल होते जा रहे हैं| जाहिर है कि मुशर्रफ के हाथ में कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसे घुमाकर वे पाकिस्तान को बंदर से आदमी बना देंगे| लेकिन मदारी बने रहना उनकी मजबूरी है| पाकिस्तान के हर मदारी के हाथ में जो भारत-विरोध का डंडा होता है, वह उनके हाथ में भी है| आशंका यही है कि अक्तूबर के बाद वे इस डंडे को घुमाएँगे और कोई महाकरगिल कर बैठेंगे| डर यही है कि हमारी सरकार दुबारा गफलत में पड़ी न रह जाए ! नवाज़ शरीफ़ की लगाम जैसे क्लिंटन ने खींची थी, इस बार मुशर्रफ की लगाम शायद बुश नहीं खींच पाएँगे|
मुशर्रफ अमेरिकियों की आँखों का तारा बन चुके हैं| मुशर्रफ ने अफगान-अभियान में अमेरिका की जैसी सकि्रय सहायता की है, जनरल अयूब और जनरल जि़या ने भी नहीं की| अयूब और जि़या अमेरिका के पक्ष में ज्यादातर जबानी जमा-खर्च ही करते रहे जबकि मुशर्रफ प्रवाह के विरुद्घ तैरकर अमेरिका की लहर के साथ हुए हैं| ऐसी स्थिति में भारत को पहले से भी अधिक सावधान रहना होगा| अफगानिस्तान में अमेरिका के जो गहरे सामरिक और आर्थिक प्रयोजन हैं, उन्हें सिद्घ करने में पाकिस्तान जितना उपयोगी है, भारत नहीं है| इसीलिए अगर मुशर्रफ कश्मीर की बोतल में अब नया जिन्न खड़ा करने की कोशिश करें तो भारत को उससे अपने दम पर निपटना होगा| अमेरिका का टेका भरोसेमंद साबित नहीं हो सकता| लोकतंत्र् के नाम पर भारत को पाकिस्तान के विरुद्घ कुछ भी हाथ लगनेवाला नहीं है| अमेरिका के लिए सिद्घांत नहीं, स्वार्थ बड़ा होता है| इसीलिए उसने मुशर्रफ की ताज़पोशी और पाकिस्तानी लोकतंत्र् की अंत्येष्टि पर लंबी चुप्पी खींच ली है|
Leave a Reply