Dainik Bhaskar, 31 Dec 2003 : दक्षेस सम्मेलन में पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाएगा, यह शुभ समाचार है| यह शुभ इसलिए कि हर बार वह कश्मीर का मुद्दा उठाकर भारत को तो चिढ़ाता ही है, दक्षेस के संविधान का भी उल्लंघन करता है| दक्षेस के संविधान में स्पष्ट लिखा है कि सम्मेलन के दौरान कोई भी द्विपक्षीय विवाद का मुद्दा नहीं उठाया जाएगा| इस प्रावधान के बावजूद पाकिस्तानी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री विवादास्पद मुद्दों का जि़क्र हमेशा करते रहे हैं ? क्यों करते रहे हैं ? इसलिए कि उनका कुछ नहीं बिगड़ता| कोई यह नहीं कहता कि उन्होंने संविधान का उल्लंघन किया है, इसलिए उन्हें दक्षेस से निकाल बाहर किया जाए| उनकी सामूहिक निंदा तक नहीं की जाती| अगर कोई बदमज़गी पैदा होती है तो भी दूसरे के घर में होती है| काठमांडो या थिम्पू या ढाका में होती है| इस्लामाबाद में नहीं| इस बार सम्मेलन इस्लामाबाद में हो रहा है| पाकिस्तानी नेता जानते हैं कि अगर उद्रघाटन-भाषण में वे भारत को छेड़ेंगे तो भारत भी उन्हें नहीं छोड़ेगा| मेज़बान और मेहमान की टक्कर में मेहमान का पाया हमेशा ऊॅंचा रहता है| जितना नुक्सान भारत का होगा, उससे कई गुना पाकिस्तान का होगा| इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि पाक-सरकार वाकई कश्मीर पर चुप्पी साधे रहेगी लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दक्षेस के दौरान कश्मीर मुद्दा उठेगा ही नहीं| उसे अखबार उठाऍंगे, मुल्ला लोग प्रदर्शन करेंगे, संसद में हंगामा होगा और यह भी असंभव नहीं कि कहीं न कहीं इतना बड़ा आतंकवादी विस्फोट हो जाए कि उसकी हायतौबा में दक्षेस ही नेपथ्य में चला जाए|
जहॉं तक सुरक्षा का सवाल है, मुशर्रफ पर हुए हमलों ने पाक-सरकार की नींद उड़ा रखी है| इस्लामाबाद पहॅुंचनेवाले शासनाध्यक्ष यह कह रहे हैं कि वे जरूर पहॅुंचेंगे लेकिन उनकी जासूसी संस्थाऍं अब भी पसोपेश में हैं| यदि अगले दो-तीन दिन में कोई बड़ी आतंकवादी घटना घट गई तो पाक-सरकार के लाख आश्वासनों के बावजूद कोई भी राष्ट्राध्यक्ष इस्लामाबाद जाना पसंद नहीं करेगा| भारत से लगभग 400 पत्रकार, अफसर और व्यापारी आदि पाकिस्तान जा रहे हैं| इतनी बड़ी संख्या में भारतीय वहॉं पहले कभी नहीं गए और खतरा भी सबसे ज्यादा उन्हीं को है| पाकिस्तान के आतंकवादियों को अगर किसी से दुश्मनी निकालनी है तो वह भारतीयों से निकालनी है| उनका निशाना अगर कोई है तो वह भारतीय प्रधानमंत्री ही हैं| हमारे प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए जा रहे हैं| पूरे इस्लामाबाद को सीलबंद किया जा रहा है और हवाई चौकसी भी बढ़ाई जा रही है| जैसी बिल क्लिंटन की सीलबंद-यात्रा हुई थी, वैसी ही हमारे प्रधानमंत्री की भी होगी| प्रधानमंत्री इस्लामाबाद जा रहे हैं, यह बड़े साहस की बात है| उनके इस सत्साहस के लिए पाक-सरकार को उनका आभारी होना चाहिए और उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं होने देना चाहिए|
असली बात तो यह है कि पाकिस्तान के आतंकवादी मुशर्रफ का खेल बिगाड़ने पर आमादा हैं| वे मुशर्रफ को अमेरिका का पिट्ठू मानते हैं| मुशर्रफ की हत्या का षड्रयंत्र करनेवालों में कश्मीरी और अफगान दोनों आतंकवादी हैं| पाकिस्तानी आतंकवाद की ये ही दो भुजाऍं हैं| इन दोनों भुजाओं पर मुशर्रफ जमकर मालिश कर रहे थे लेकिन ये ही दोनों भुजाऍं आज उनका गला घोंटने पर तत्पर हैं| आतंकवाद का यह भस्मासुरी रूप हमारे राजीव गॉंधी की हत्या का कारण बना और अब यह मुशर्रफ के सिर पर तलवार की तरह लटका हुआ है|मियां की जूती मियां के सिर! आतंकवादियों को यह अफसोस है कि अब अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों अमेरिका के बगलबच्चे बन गए हैं| वे सद्दाम, तालिबान और खुद को इस्लाम का प्रतीक मानते हैं और अमेरिका-बि्रटेन को ईसाइयत का ! वे अपनी कारगुजारियों को मज़हब का जामा ओढ़ाकर जिहाद का नाम दे रहे हैं| वे मानते हैं कि भारत ईसाइयत का दुमछल्ला बना हुआ है| काफिरों के खिलाफ इस्लाम की शमशीर चमकाने को वे पुण्य का कार्य समझ रहे हैं|
लेकिन अगर आतंकवादी डाल-डाल हैं तो मुशर्रफ पात-पात हैं| एक तरफ मुशर्रफ ने खुद को अमेरिकियों के गले का हार बना लिया है और दूसरी तरफ वे पाकिस्तानी राजनीतिक दलों के भी पि्रय पात्र बन गए हैं| उन्होंने उन दलों के साथ ऐसा समझौता कर लिया है कि संसद ने सर्वानुमति से उस पर मुहर लगा दी है| वे अगले वर्ष के अंत में अपना मुख्य सेनापति का पद छोड़ देंगे और सिर्फ राष्ट्रपति बने रहेंगे| यह पद उनके पास 2007 तक रहेगा| इसके अलावा संसद और मंत्र्िामंडल को भंग करने का अधिकार भी उनके पास रहेगा| दूसरे शब्दों में राजनीतिक दृष्टि से मुशर्रफ ने खुद को काफी शक्तिशाली और निर्दोष बना लिया है| ये ताज़ातरीन घटनाऍं पाकिस्तानी समाज में उनकी साख को बढ़ाएगी और कोई आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रकुल भी उन्हें मान्यता दे देगा| यह कैसा विचित्र संयोग है कि मुशर्रफ जब-जब भारत के साथ बातचीत का नाटक रचते हैं, पाकिस्तानी समाज उन्हें एक पायदान ऊॅंचा चढ़ा देता है| आगरा आने के कुछ दिन पहले उन्होंने अपने सिर पर राष्ट्रपति का ताज खुद ही धर लिया| इस बार अटलजी पाकिस्तान जा रहे हैं तो उन्होंने फौजी मुखौटा उतार देने की घोषणा कर दी| मुशर्रफ की मजबूती का एक रचनात्मक पहलू यह है कि अब वे चाहें तो अटलजी से ऐसी बात भी कर सकते हैं, जिसे करने में सभी पाकिस्तानी नेता घबरा जाते हैं| उन्होंने संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव को ताक पर रखने की जो साहसपूर्ण बात कही थी, उसे ही वे आगे बढ़ाऍं और कश्मीर पर यथास्थिति को स्वीकार करें| यदि अपने राजनीतिक दलों और फौज के गले वे यह बात उतार सकें तो दक्षेस के नेपथ्य में चल सकनेवाला अटल-मुशर्रफ सम्वाद सम्पूर्ण दक्षिण एशिया और दक्षेस का ही रूपान्तरण कर देगा| अन्यथा यह किसे पता नहीं है कि दक्षेस-सम्मेलन हमेशा की तरह हाथ मिलाने और गाल बजाने की रस्म अदायगी के साथ पूरा हो जाएगा| मुशर्रफ के लिए दक्षेस अद्रभुत अवसर है| आगरा के बाद जो कड़ी टूटी थी, वह अमेरिकी गोंद के बावजूद जुड़ नहीं पा रही है| दोनों देशों के बीच सम्वाद का कोई सिलसिला शुरू नहीं हो पा रहा है| मुशर्रफ चाहें तो दक्षेस के बहाने भारत के साथ अपूर्व सम्वाद का समारंभ कर सकते हैं| अगर भारत को मुशर्रफ से नफरत होती तो प्रधानमंत्री पाकिस्तान जाने का खतरा ही मोल नहीं लेते| भारत सरकार जाहिरा तौर पर चाहे जो कहे, कहीं न कहीं उसके दिल में आशा की एक किरण जिन्दा है| वह जानती है कि कश्मीर-समस्या को सुलझाने के लिए मुशर्रफ से बेहतर कोई अन्य नेता इस समय पाकिस्तान में नहीं है| क्या मुशर्रफ भारत के प्रति वही सत्साहसपूर्ण लचीलापन दिखाऍंगे, जो उन्होंने अफगानिस्तान के प्रति दो साल पहले दिखाया था ?
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