नवभारत टाइम्स, 28 अप्रैल 2007 : मुशर्रफ और बेनज़ीर के बीच सौदेबाजी चल रही है या नहीं, इस बारे में अब कोई संदेह नहीं रह गया है| खुद बेनज़ीर ने मंगलवार को लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में सारी धुंध छाँट दी है| अपने भाषण के बाद एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने साफ़-साफ़ मान लिया कि मुशर्रफ के साथ सौदेबाजी करने से उनकी साख को बट्टा जरूर लगेगा, लेकिन उनके लिए अपनी साख से भी ज्यादा जरूरी यह है कि वे पाकिस्तान में लोकतंत्र् की वापसी करें और उसे तालिबानी चंगुल से छुड़ाएँ|
हालाँकि बेनज़ीर ने यह नहीं बताया कि उनके और मुशर्रफ के बीच क्या-क्या तय हुआ है, लेकिन यह माना जा रहा है कि बेनज़ीर को पाकिस्तान लौटने की छूट मिलेगी, सरकार की आलोचना करने के लिए वे स्वतंत्र् होंगी, वे अपनी पीपल्स पार्टी के उम्मीदवारों को सारे पाकिस्तान में चुनाव लड़ा सकेंगी और चुनाव जीतने पर प्रधानमंत्री भी बन सकेंगी| बदले में वे मुशर्रफ को राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने देंगी, राष्ट्रपति बनने में उनकी मदद करेंगी, मुशर्रफ अपना मुख्य सेनापति का पद छोड़ देंगे और पीपल्स पार्टी और मुशर्रफ मिलकर जिहादी तत्वों से लड़ेंगे| एक अर्थ में पाकिस्तान में सीमित लोकतंत्र् लौट आएगा|
उक्त प्रकार का समझौता हो रहा है या हुआ है, इसके संकेत हाल ही में मिलने लगे थे| सबसे पहले तो मुशर्रफ ने उस जवाबदेही इदारे को बंद कर दिया, जो बेनज़ीर और उनके पति आसिफ जरदारी के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ था| यह इदारा नवाज़ शरीफ़ ने प्रधानमंत्र्ी बनते ही क़ायम कर दिया था| इसकी रपटों के आधार पर ही बेनज़ीर के पति को गिरफ्तार कर लिया गया था और पति-पत्नी पर भ्रष्टाचार के मुकदमे चल रहे थे| गिरफ्तारी के डर से ही पिछले 7-8 साल से बेनज़ीर पाकिस्तान नहीं जा रही थीं| मुशर्रफ ने मुकदमों को दरी के नीचे सरकाकर दोहरा संदेश जारी किया है| बेनज़ीर को हरी झंडी और नवाज़ को अँगूठा दिखाया है| एक पंथ दो काज किए हैं| इस कदम का सीधा असर बेनज़ीर-नवाज़ समझौते पर पड़ना शुरू हो गया है| एक ओर बेनज़ीर की वापसी का दरवाज़ा खुल रहा है और दूसरी ओर नवाज़ के मुँह पर खिड़कियाँ ठोकी जा रही हैं| मियाँ नवाज़ शरीफ को अभी यही पता नहीं कि उन्हें पाकिस्तान में घुसने दिया जाएगा या नहीं| सउदी अरब छोड़कर वे जब लंदन गए तो पाकिस्तान में यह चर्चा गर्म थी कि मियाँ साहब ने वादाखिलाफी की है| उन्हें इसी वादे पर सउदी अरब जाने दिया गया था कि वे अगले दस साल तक पाकिस्तान के बाहर रहेंगे और राजनीति में हिस्सा नहीं लेंगे| लेकिन जबसे वे लंदन गए हैं, न सिर्फ वे अपनी पार्टी जमकर चला रहे हैं बल्कि अन्य पार्टियों के नेताओं को जोड़-जाड़कर लोकतंत्र्-वापसी का अभियान भी चला रहे हैं| मुशर्रफ इसी अभियान से प्रकंपित-हुए-से लगते हैं, वरना वर्तमान संसद और विधानसभाओं में उनका इतना बहुमत है कि वे आराम से राष्ट्रपति बन सकते हैं| मुशर्रफ को पता है कि यदि बेनज़ीर और नवाज़ मिल गए तो उन्हें राष्ट्रपति बनने से तो नहीं रोक सकते लेकिन उनके राष्ट्रपति के सिंहासन को वे गर्म तवे में बदल सकते हैं| जैसे जुल्फिकारअली भुट्टो ने अयूब खान की नाक में दम कर दिया था, वैसे ही बेनज़ीर और नवाज़ मिलकर मुशर्रफ का जीना हराम कर सकते हैं|
इसीलिए मुशर्रफ का पहला निशाना बेनज़ीर-नवाज़ एकता को भंग करना है| यह प्रक्रिया शुरू हो गई है| मुख्य न्यायाधीश चौधरी के सवाल पर नवाज़ की मुस्लिम लीग के नेता और खुद नवाज़ शरीफ जितना शोर मचा रहे हैं, उसके मुकाबले बेनज़ीर का बयान सिर्फ खानापूरी मालूम पड़ते हैं| पीपल्स पार्टी के लोग भी मुशर्रफ-विरोधी जुलूसों में दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनका स्वर धीमा होता है| बेनज़ीर की सावधानी इस बात का स्पष्ट संकेत थी कि उनके और मुशर्रफ के बीच अंदर-ही-अंदर कुछ-न-कुछ पक रहा है| अब जबकि वे लंदन में साफ़-साफ़ बोल पड़ी हैं, नवाज़-समर्थकों ने इस्लामाबाद और लाहौर में यह कहना शुरू कर दिया है कि बेनज़ीर वादाखिलाफी कर रही हैं| वे लोकतंत्र् की पीठ में छुरा भोंक रही हैं और तानाशाही के साथ हाथ मिला रही हैं| बेनज़ीर का सोचना है कि देश के बाहर पड़े-पड़े वे लोकतंत्र् की कौन-सी सेवा कर रही हैं| मुशर्रफ से हाथ मिलाकर वे अगर एक कदम पीछे हटा रही हैं तो पाकिस्तान लौटकर वे दो कदम आगे बढ़ा रही हैं| उनका सोचना है कि पाकिस्तान के दरवाज़े खुलेंगे तो सबके लिए खुलेंगे–बेनज़ीर, नवाज़ और अल्ताफ हुसैन के लिए भी ! सभी दल खुली प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे| जिसकी जितनी लोकपि्रयता होगी, वह उतना आगे बढ़ जाएगा|
बेनज़ीर का यह सोच काफी यथार्थवादी मालूम पड़ता है| यह नहीं हो सकता कि पाकिस्तान के दरवाजे़ बेनज़ीर के लिए खुल जाएँ और नवाज़ शरीफ़ और अल्ताफ हुसैन जैसे नेताओं के लिए बंद पड़े रहें| अगर ऐसा हुआ तो फौजी सरकार और बेनज़ीर, दोनों की इज्जत पैंदे में बैठ जाएगी| ऐसे लोकतंत्र् को न तो पाकिस्तान की जनता मानेगी और न ही दुनिया के अन्य देश ! यदि वे तानाशाही से हाथ मिलाती हुई दिखाई पड़ेंगी तो अमेरिका जरूर खुश होगा, लेकिन उनका चुनाव जीतना खटाई में पड़ जाएगा| इस समय पाकिस्तान में अमेरिका-विरोधी लहर चल रहा है| साधारण पाकिस्तानी मानते हैं कि मुशर्रफ अमेरिका की वजह से ही टिके हुए हैं, वरना अभी तक वे हटा दिए जाते| मुशर्रफ ने अमेरिकियों के गले यह कड़वी गोली उतार रखी है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के जिहादियों के खिलाफ़ वे ही एकमात्र् योद्घा हैं, जो उन्हें बहुत कम क़ीमत पर उपलब्ध हैं| अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तानी तानाशाह के खूँखार चेहरे पर लोकतंत्र् का कोई झीना-सा गुलाबी पर्दा भी डाल दिया जाए| कोई आश्चर्य नहीं कि इस पर्दे को वाशिंगटन में ही बुना गया हो|
अमेरिका को शायद यह अंदाज़ नहीं है कि मुशर्रफ कितने अलोकपि्रय हो गए हैं| बलूच नेता अकबर बुगती की हत्या और मुख्य न्यायाधीश चौधरी की बेइज्जती ने मुशर्रफ के विरुद्घ अच्छा-खासा जनाधार खड़ा कर दिया है| कोई आश्चर्य नहीं है कि इस नए जनाधार की लहर पर मियाँ नवाज़ शरीफ़ ही सवार हो जाएँ| यदि नवाज़ शरीफ़ फौज का डटकर विरोध करें और अमेरिका की भी टाँगखिंचाई करते रहें तो वे आम चुनाव में सबसे आगे निकल सकते हैं| आम जनता बेनज़ीर के लोकतंत्र्-प्रेम को कोरा नाटक मानेगी और मियाँ नवाज़ को कुर्सी पर बिठा देगी| यदि मुशर्रफ और बेनज़ीर की जोड़ी नवाज़ को पाकिस्तान नहीं आने देगी तो भी वे बाहर बैठे-बैठे ही चुनाव की चौपड़ को उलट सकते हैं| यह असंभव नहीं कि वर्तमान सत्तारूढ़ दल, मुस्लिम लीग (क़ा) के ज्यादातर नेता नवाज़ का साथ देने लगें| वे नवाज़ के पुराने साथी हैं, वे पंजाबी जनाधार के प्रतिनिधि हैं और बेनज़ीर के पुराने विरोधी हैं| दूसरे शब्दों में यदि मुशर्रफ-बेनज़ीर समझौता खुले-आम होगा तो पाकिस्तान की मज़हबी पार्टियाँ, नवाज़ की मुस्लिम लीग और यहाँ तक जिहादी संगठन भी आपस में खुली या गुप्त साँठ-गाँठ कर लेंगे| ऐसी स्थिति में अगर निष्पक्ष और मुक्त चुनाव हो गए तो पाकिस्तान में लोकतंत्र् तो लौटेगा लेकिन वह मुशर्रफ-बेनज़ीर गठबंधन के लिए घाटे का सौदा सिद्घ होगा| इसीलिए बेहतर यही है कि मुशर्रफ की फौजी सरकार किसी एक नेता या दल के साथ साँठ-गाँठ करने की बजाय सभी दलों के लिए लोकतंत्र् के द्वार समान रूप से खोल दे|
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