Jansatta, 20 Oct 2002 : मुसलमान आखिर कौन हैं, कैसे हैं, कहाँ से आए हैं, क्या करते हैं, क्या सोचते हैं, कैसे रहते हैं, गैर-मुस्लिमों से उनके रिश्ते कैसे हैं, उनके प्रति गैर-मुस्लिमों का रवैया क्या है, मुस्लिम जगत के प्रति उनका अपना रवैया क्या है, भारत और मुसलमान साथ-साथ रह सकते हैं या नहीं – ये प्रश्न इतने जटिल और गंभीर हैं कि एक-एक प्रश्न के लिए एक-एक ग्रंथ की जरूरत है और ग्रंथ भी ऐसे कि जिनमें बरसों-बरस की खोज और अन्तर्दृष्टि हो| जाहिर है कि हिन्दी भाषा में इस तरह के ग्रंथ लिखनेवाले प्रामाणिक विद्वान दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ते| लेकिन पांडित्य के इस रेगिस्तान में श्रीमती नासिरा शर्मा का ‘राष्ट्र और मुसलमान’ नामक संकलन हरे-भरे नख्लिस्तान की तरह स्वागत योग्य है| लेखों के इस संकलन को लेखिका ने उन्हें समर्पित किया है, “जिन्हें मुस्लमानों से सख्त नफ़रत है और उन सबको, जो मुसलमानों को जानने और समझने के इच्छुक हैं !” यह पुस्तक जितनी हिन्दुओं के पढ़ने लायक है, उतनी ही मुसलमानों के पढ़ने लायक भी है| यह शोधग्रंथों की तरह बोझिल नहीं है| इसकी लेखिका मूलत: साहित्यिक हैं| किसी साहित्यकार के निबंधों से विद्वानों और विशेषज्ञों की तरह गंभीर विश्लेषण की आशा नहीं की जा सकती | इसीलिए भारतीय मुसलमानों के बारे में लिखी इस पुस्तक को प्रो. आबिद हुसैन, डॉ. मुजीब, प्रो. अजीज़ अहमद, प्रो. जमाल ख्वाजा या प्रो. के.एस.लाल, सुहास मजूमदार, रामगोपाल, रामस्वरूप, सीताराम गोयल आदि की पांडित्यपूर्ण और विचारोत्तेजक पुस्तकों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता लेकिन फिर भी यह पुस्तक इसलिए पठनीय है कि इसमें लेखिका ने अपने दिल की बात साहसपूर्ण ढंग से लिखी है|
अरब जगत के साथ भारत के संबंध काफी पुराने हैं| इस्लाम से भी पहले के हैं| इस विषय पर अरबी, हिंदी, अंग्रेजी और फारसी में अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं| उनमें अनेक खट्टे-मीठे ब्यौरे हैं लेकिन इस पुस्तक में लेखिका ने चुन-चुनकर वे अंश दिए हैं, जिनसे मालूम पड़ता है कि अरबों की नज़र में भारत कितना ऊँचा देश था| भारत आनेवाले अरब यात्री यहाँ की झमाझम बरसात, फूलों की सुगंध, चंदन, जायफल मुश्क, अंबर, कपूर, लोबान वगैरह की खुशबू, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और खान-पान पर तो फिदा थे ही, उन्हें भारतीयों के ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य, शासन-प्रशासन तथा जीवन-दर्शन ने भी जमकर प्रभावित किया था| अरब आक्रमणकारियों की सफलता के बावजूद अरब इतिहासकारों ने भारतीयों के शौर्य, युद्घ-कला और शस्त्रास्त्रों की भी भरपूर प्रशंसा की थी| बहरुलजाहज़, अल याक़ूबी, मुहम्मद बल्ख़ी, अल बेरूनी, अबुल फज़ल आदि को उद्रधृत करके इस पुस्तक में बताया गया है कि किस तरह पंचतंत्र और हितोपदेश जैसे गं्र्रथों की कहानियाँ अरबी घरों में लोकपि्रय हो गई थीं तथा गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, साहित्य और वास्तु संबंधी सैकड़ों ग्रंथों का अरबी अनुवाद उस ज़माने में धड़ाधड़ हो रहा था| अब से हजार-बारह सौ साल पहले जो भारतीय ज्ञान-विज्ञान यूरोप पहुँचा, उसका मुख्य सेतु अरब जगत ही था| भारत के मुसलमान बादशाहों ने भी रामायण, महाभारत, उपनिषद्र, योग वाशिष्ठ, राजतरंगिणी जैसे गं्रथों के फारसी अनुवाद करवाए| खेद की बात यही है कि परिश्रमी अरबी और ईरानी विद्वानों ने संस्कृत सीखी और उसका फायदा उठाया लेकिन भारतीय पंडितों ने अरबी-फारसी सीखकर वहाँ के ग्रथों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में नहीं किया| अब भी अनेक उच्च-कोटि के अरबी और फारसी गं्रथों को हम अंग्रेजी के ज़रिए ही पढ़ते हैं| यदि अरबी विद्वानों और बादशाहों में सिर्फ मज़हबी जुनून होता तो वे भारतीय गंरथों का अनुवाद क्यों करवाते ? लेखिका ने तो यहाँ तक लिखा है कि “यह वही कर्बला है, जहाँ पर दत्त ब्राह्मण परिवार ने हुसैन का साथ दिया था, बिना यह सोचे-समझे कि उनका-मेरा धर्म अलग-अलग है|” तथा “हुसैन को कूफा में शहीद होना पड़ा| हिंद में उनके हमजुल्फ़ (साढूभाई) चंद्रगुप्त ने अपनी फौज भी हुसैन की मदद के लिए भेजी थी, मगर दूरियों के कारण वह इतनी देर में पहुँची, जब तक इमाम हुसैन शहीद हो चुके थे|” (पृ.222) इस तरह के संदर्भों के प्रमाण भी साथ-साथ दे दिए जाते तो यह निबंध और अधिक प्रभावोत्पादक बन जाता|
मुस्लिम महिला-पत्रकारों और लेखिकाओं संबंधी अध्याय में नासिराजी ने पिछले सौ वर्ष के साहित्यिक संघर्ष का इतिहास प्रस्तुत कर दिया है| इस्लाम में महिलाओं की स्थिति के बारे में लेखिका ने अन्यत्र कुछ सराहनीय पक्षों पर जोर दिया है लेकिन असलियत क्या है, यह सबको पता है| उसी असलियत से लड़ने की कोशिश मुस्लिम महिला लेखिकाओं ने बराबर की है| तलवार की जगह उन्होंने कलम का सहारा लिया है| इसी संदर्भ में ‘रेख़ती’ संबंधी निबंध सचमुच पढ़ने लायक है| रेखता (याने उर्दू शायरी) शब्द तो जाना-पहचाना है लेकिन ‘रेखती’ के बारे में बहुत कम जानकारी है| ‘रेखती’ भी उर्दू शायरी ही है लेकिन यह वह शायरी है, जिसे ज़नाना अंदाज़ में रचा जाता है याने रचनाकार चाहे पुरुष ही हो लेकिन वह खुद को स्त्रीरूप में रखकर शेर कहता है| इस तज़र् की शायरी का उदय दक्कन में 15वीं सदी में हुआ| उद्दाम वासना, अमर्यादित भाषा और मुँहफट पद्य की इस काव्य-विधा के अनेक उदाहरण लेखिका ने प्रस्तुत किए हैं| कहीं-कहीं मज़ा किरकिरा जरूर होता है लेकिन हिंदी के पाठकों के लिए यह एक नई चीज़ है| उर्दू की चिरकीन की ‘पाखाना शायरी’ और ‘हिज्व’ के बारे में भी हिन्दी पाठकों की जानकारी बहुत कम है| अच्छा हुआ लेखिका ने इन विधाओं पर अपनी कलम नहीं चलाई| वैसे इन विधाओं को साहित्य का वाष्पमोचनालय मानकर भी नज़रअंदाज़ किया जा सकता है|
इन जानकारी भरे निबंधों के अलावा इस पुस्तक में लेखिका ने सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया है कि मुसलमान भारतीय समाज के अविभाज्य अंग हैं| उन्हें मूलधारा से अलग करके देखना सर्वथा अनुचित है| अपनी बात सिद्घ करने के लिए उन्होने हुसैन-चंद्रगुप्त संबंध का हवाला तो दिया ही है, यह भी कहा है कि इस्लाम जिस-जिस देश में गया, उसने उसके रीति-रिवाज़ों को अपनाया| इस्लाम को माननेवालों ने “अपनी स्थानीय पृष्ठभूमि को नकारा नहीं है, बल्कि उसके अनुसार उसने धर्म को एक नया स्वरूप दे डाला| बुनियादी रूप से आसमानी किताब कुरान और जन्म-मृत्यु के समय अंजाम दी जानेवाली धार्मिक रस्मों को एक तरह से पूरे विश्व के मुसलमान स्वीकार करते हैं, मगर उसके अलावा कोई बात किसी दूसरे से उनकी नहीं मिलती है|” (पृ. 72) इसमें शक नहीं कि दुनिया के लगभग 60 मुस्लिम देशों की न तो भाषा एक है, न भूषा, न भोजन, न भजन, न भेषज ! उनके रीति -रिवाज़ भी अलग-अलग ही नहीं है, परस्पर विरोधी भी हैं| शिया और सुन्नी एक-दूसरों की हदीसों को रद्द करते हैं, कुरान की व्याख्या अपने-अपने ढंग से करते हैं, पठान ‘शरीयत’ के मुकाबले अपनी ‘पश्तूनवाली’ को तरजीह देते हैं, ईरान और एराक मुस्लिम राष्ट्र होते हुए भी बरसों एक-दूसरे से युद्घ करते रहते हैं, इण्डोनीशिया जैसे राष्ट्रों का मज़हब इस्लाम है और संस्कृति हिंदू है, लेकिन इसके बावजूद क्या वजह है कि संपूर्ण जगत के मुसलमानों को ‘उम्मा’, एक समुदाय की तरह मानने का आग्रह किया जाता है ? गैर-मुस्लिम समुदायों के साथ मुसलमानों का रिश्ता अज़ीब कि़स्म का क्यों होता है ?
जिस देश में भी मुसलमान बहुसंख्या में नहीं हैं, वहाँ उनका जीना क्यों दूभर हो जाता है ? न तो अल्पसंख्यक मुसलमान अपने देश के साथ ताल-मेल बैठा पाते हैं और न ही वह देश उनके साथ ! यह परेशानी भारत में ही नहीं, रूस, चीन, यूगोस्लाविया और अब अमेरिका जैसे देशों में भी उपस्थित होती रही है| जिस देश में मुसलमान बहुसंख्या में होते हैं या जहां (निजाम़-ए-मुस्तफा) ‘इस्लामी राज्य’ होता है, वहाँ गैर-मुसलमान चैन से क्यों नहीं रह पाते ? याने क्या वजह है कि चाहे बहुसंख्या हो या अल्पसंख्या, मुसलमान और शांति के बीच 36 का आँकड़ा बना रहता है ? इस्लाम का मतलब ही है, शांति का धर्म ! लेकिन क्या वजह कि गैर-मुसलमानों के साथ इस्लाम हमेशा युद्घ की स्थिति में रहता है| दुनिया के मुसलमान अशांति, आतंकवाद, पिछड़ापन और पोगापंथ के पर्याय क्यों बन गए हैं ? इस दुखद प्रसंग की जड़ कहाँ है ? कहीं इस्लाम में ही तो नहीं है ? यह बुनियादी सवाल लेखिका ने नहीं पूछा| इसका जवाब मौलाना मौदूदी, अबुल कलाम आज़ाद, अली मियाँ और आजकल मौलाना वहीद्दुद्दीन की रचनाओं में खोजा जा सकता है| कुछ इस्लामी विचारकों का मानना है कि अगर इस्लाम जिहादी नहीं है तो वह इस्लाम हो ही नहीं सकता| अली मियाँ, वहीद्दुद्दीन और जमाल ख्वाजा जैसे लोगों की राय है कि मजहब को सिर्फ बंदे और अल्लाह के रिश्ते तक सीमित रखें| बाकी सब राजनीतिक और सामाजिक रिश्ते लोग अपने-अपने हिसाब से रखें|
जाहिर है कि इस समस्या पर सांगोपांग विचार करने के लिए इस्लामी धर्मशास्त्रों के साथ-साथ इस्लामीकरण के इतिहास, इस्लाम की खूबियों और कमियों का गहरा ज्ञान होना जरूरी है| इस सैद्घांतिक और अकादमिक झंझट में पड़े बिना नासिराजी ने एक सदाशयी लेखिका की तरह, जो संयोग से मुस्लिम घर में पैदा हो गईं, यह बताने की कोशिश की है कि हिन्दुओं और मुसलमानों में कितनी अधिक समानता है| लेकिन इस बुनियादी सच्चाई की तरफ भी वे ध्यान देतीं तो बेहतर होता कि मज़हब बदल लेने से वंश नहीं बदल जाता| यदि वे थोड़े इतिहास में उतर जातीं तो पाठकों को पता चलता कि आज जो मुसलमान हैं, वे कल हिंदू ही थे| भारत के मुसलमानों की रगों में आज भी हिन्दुओं का खून ही बह रहा है| इससे बढ़कर भी कोई समानता हो सकती है, क्या ? इस समानता के बावजूद उनमें संवाद क्यों नहीं है, प्रेम क्यों नहीं है, उनके संबंध सहज क्यों नहीं है ? उन्होंने कुरान-शरीफ़ और हदीसों के वे हिस्से भी उद्रधृत किए हैं, जिनमें परायों से प्रेम और शराफ़त की शिक्षा दी गई है लेकिन इस तरह के अंश कितने हैं और कितने मुसलमान उन पर ध्यान देते हैं और कितना ध्यान देते हैं| लेखिका ने वे अंश उद्रधृत नहीं किए, जो मुसलमानों को उल्टी दिशा में ले जाते हैं| उन्होंने अच्छा ही किया| यह काम मुल्ला-मौलवियों का है, उनका नहीं| उन्होंने मुसलमानों को गुमराह करनेवाले मुस्लिम नेतृत्व को भी आड़े हाथों लिया है लेकिन उन्होंने तो क्या, मुस्लिम जगत के बड़े-बड़े आलिमों और नेताओं ने भी कभी वह हिम्मत नहीं दिखाई, जो भारत के हिन्दू और यूरोप के ईसाई समाज के बुद्घिजीवियों ने दिखाई है याने उन्होंने जैसे सीधे बाइबिल, वेदों और पुराणों पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिए, स्वयं ईश्वर के अस्तित्व को खटाई में डाल दिया तथा धर्मशास्त्रों और स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित समाज-व्यवस्था को रद्द कर दिया, वैसे ही मुस्लिम जगत में पिछले डेढ़ हजार वर्षों में कोई जबर्दस्त वैचारिक बगावत नहीं हुई| बगावत दूर की बात है, मंथन भी नहीं हुआ|
तुर्की में कमाल पाशा और मध्य एशिया के सूफियों को भूल जाएं तो इस्लाम में मंथन के नाम पर शून्य ही हासिल होता है| कोई ज़रा यह भी सोचे कि जिन देशों में इस्लाम पहुँचा है, अगर वहाँ वह नहीं पहुँचता तो वे देश आज कहाँ पहुँच जाते ? क्या तब भी वे तानाशाही, आतंकवाद, और गरीबी के शिकार बने रहते ? जिन मुस्लिम देशों में कहीं थोड़ी-बहुत रोशनी दिखाई पड़ती है, उसका श्रेय किसे दिया जाए, इस्लाम को या उन देशों की स्थानीय परम्परा को ? अब भी मुस्लिम जगत को ऐसे विचारकों का इन्तज़ार है जो इस्लाम की भूमिका पर बुनियादी सवाल खड़े करें| क्या वजह है कि इस्लाम में कोई महावीर, कोई बुद्घ, कोई चार्वाक, कोई दयानंद, अभी तक पैदा नहीं हुआ ? सलमान रश्दी और बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन इस्लामी जगत के कोपभाजन जरूर बने लेकिन वे कोई लहर नहीं उठा पाए| इस पुस्तक में लेखिका ने भी औरत के सवाल पर कुछ सुन्नी हदीसों पर हल्के से प्रश्न-चिन्ह अवश्य लगाए हैं लेकिन यह तो पुराने शिया-सुन्नी दंगल का एक पैंतरा है| यदि वे बुनियादी बहस उठातीं तो उनकी किताब मुस्लिम-समाज का प्रकाश-स्तम्भ बन जाती| ऐसा नहीं होने के बावजूद यह किताब इसलिए भी पठनीय है कि इसमें एक सच्चे भुक्तभोगी की प्रामाणिक आत्मकथा है, जो हिन्दू समाज के ढोंग और असहिष्णुता को बेपर्दा करती है तथा मुसलमानों में जो पोंगापंथी और पीछेदेखू तत्व हैं, उनकी भी जमकर लानत-मलामत करती है|
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