दैनिक भास्कर, 25 सितंबर 2008 : यह ठीक है कि हर आतंकवादी मुसलमान है लेकिन क्याहर मुसलमान आतंकवादी है? जब तक इस सवाल का हम सही जवाब नहीं ढूंढते, आतंकवादका खात्मा असंभव है| सच्चाई तो यह है कि आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं| इस्लाम को माननेवालों के अलावा भी कई तरह के लोग आतंकवादी हैं| भारत में सिख, इसाई मिजो और नगा, नेपाल में माओवादी हिंदू, श्रीलंका के तमिल हिंदू और ईसाई अमेरिका में कू क्लक्स क्लान वाले ईसाई, ज़ार के रूस में अराजकतावादी, यूरोप में फाशी और नाज़ी लोग भी आतंकवादी रहे हैं| इन्हें सिख, ईसाई, इस्लाम या हिंदू धर्म से जोड़ना बिल्कुल गलत है| ये आतंकवादी इन धर्मो के अनुयायी जरूर हैं लेकिन अपने धर्म का प्रचार या उसकी रक्षा के लिए वे आतंकवाद का सहारा नहीं ले रहे हैं| उनके आतंकवाद का चरित्र् धार्मिक नहीं है, शुद्घ राजनीतिक है| यदि आतंकवाद धार्मिकता पर आधरित होता तो इस्लामाबादद्व लाहौर, पेशावर और कराची में विस्फोट क्यों होते? वहां मरनेवाले और मारनेवाले, दोनों ही मुसलमान हैं| पाकिस्तान के तालिबान मुसलमान हैं| वे अफगानिस्तान के जिन पठानों, ताजिकों और हजाराओं पर हमला करते हैं, वे भी मुसलमान हैं|फिर क्या वजह है कि भारत में आतंकवाद और मुसलमान एक-दूसरे के पर्याय-जैसे दिखाई पड़ते हैं? इसका कारण स्पष्ट है ? जो आतंकवादी पकड़े जाते हैं, उनके नाम वैसे ही होते हैं, जैसे किसी भी मुसलमान के होते हैं, वे अक्सर मुस्लिम-बहुल बस्तियों से पकड़े जाते हैं, उनके तार कुछ मुस्लिम देशों से जुड़े पाए जाते हैं और सबसे बड़ी बात औसत मुसलमानों के मन में इन आतंकवादियों के विरूद्घ भर्त्सना का वह भ्ज्ञाव नहीं पाया जाता जो गैर-मुसलमानों में होता है| इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि आम मुसलमानों के दिलों में आतंकवादियों के प्रति गुप्त सराहना का भाव रहता है| जाहिर है कि आम मुसलमान का रवैया आतंकवादियों के प्रति बिल्कुल वैसा नहीं हो सकता, जैसे गैर-मुसलमानों का होता है| यह सच्चाई है| इसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है| आम मुसलमान मानता है कि गुजरात में उस पर जैसा जुल्म हुआ है, आखिर में उसका कोई प्रतिकार होगा या नहीं ? बेकसूर लोगों, बच्चों, बू़ढ़ों और गर्भवती स्त्र्ियों को जिस तरह से मारा गया है, क्या इस नर-संहार को वे टुकूर-टुकूर देखते रहें ? वे स्वयं आतंकवाद को ठीक नहीं समझते और उसके विरूद्घ कुछ मुस्लिम संगठन बयान देते हैं और प्रदर्शन भी करते है लेकिन आम मुसलमान को यह समझ नहीं पड़ता कि वह क्या करे ? आम मुसलमान का यह भोला असमंजस ही संदेह का कारण बनता है|
मुसलमानों को सबसे पहले तो यह समझना चाहिए कि बाबरी मस्जिद या गुजरात का बदला आतंकवाद से नहीं लिया जा सकता| आतंकवाद कहां-कहां फैलाएँगे और कितने दिनों तक फैलाएँगे ? नगा, मिजो, सिख, नक्सली और कश्मीरी आतंकवाद को चलते हुए बरसों-बरस बीत गए लेकिन क्या हुआ ? कुछ के घुटने टूट गए और कुछ थककर चूर हो गए| भारत-राज्य की विराट्र शक्ति का मुकाबला ये छुट-पुट फुलझडि़याँ नहीं कर सकती| आतंकवाद के जरिए कुछ उत्साही नौजवान अपने दिल की भड़ास जरूर निकाल सकते हैं लेकिन इसके साथ ही वे मुसलमानों और इस्लमा का बेहद नुकसान करते हैं| हिंदुस्तान के गरीब और मेहनतकश मुसलमानों को अपनी दो वक्त की रोटी जुटाने से फुरसत नहीं है| वे बेचारे बमबाज़ी क्यों करेंगे ? उनका इन सिरफिर आतंकवादियों से क्या लेना-देना ? लेकिन इन आतंकवादियों के कारण सारी दुनिया के मुसलमान बदनाम हो रहे हैं| उन्हें देश में और विदेशों में नौकरियां मिलना मुश्किल हो रहा है| अच्छे-अच्छे लोगों को किराए पर मकान नहीं मिलते हैं| नामी-गिरामी मुसलमानों को भी पश्चिमी देश वीज़ा देने में आनाकानी करते है| अमेरिका और यूरोप के हवाई अड्रडों पर इस्लामी नामों ओर रंग-रूप वाले यात्र्ियों की कितनी दुर्दशा होती है| अमेरिका में तो हर मुसलमान के फोन, कंम्यूटर और बैंक खाते पर निगरानी रखी जाती है| कुछ सौ जुनूनी आतंकवादियों के कारण करोड़ों बेकसूर मुसलमानों की जिदंगी नरक बन गई है| आतंकवादी कहते हैं कि वे इस्लाम की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति चढ़ा रहे हैं| लेकिन असलियत क्या है क्या 16 और 20 वर्ष के नौजवान समझते हैं कि इस्लाम क्या है ? इस्लाम में शांति की जैसी कामना है, दुनिया के किस मजहब में है ? इस्लाम का मतलब ही शांति है| शांति के धर्म में आतंक का क्या काम है, लेकिन कुछ उग्रवादी लोग उत्साही नौजवानों को गुमराह कर देते हैं| उन पर मजहबी उन्माद हावी हो जाता है| इस उन्माद से भी ज्यादा काम करतो है, पैसा ! पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवानों के हाथ में जब लाखों रू. के बंडल आ जाते हैं तो वे मदमस्त हो जाते हैं| जामिया नगर से मिली नोटों की गडि्रडया और आज़मगढ़ की शानदार हवेलियाँ आखिर क्या सिद्घ करती हैं ? अफीम और तस्करी के विेदेशी पैसे पर पल रहे आतंकवाद का ‘पवित्र् जेहाद’ से क्या लेना-देना है ? आतंकवादियों के कारनामों को न तो ‘जेहाद-अकबर’ माना जा सकता है और न ही ‘जेहादे-असगर’| आत्म-संयम और बहादुरी के बिना जेहाद की कल्पना नहीं की जा सकती| मुहम्मद साहब और इमाम अली का जीवन-चरित्र् आप ध्यान से पढ़े तो उनकी बहादुरी पर आप मुग्ध हो जाएंगे| लेकिन आतंकवाद में बहादुरी कहाँ है ? आतंकवादी निहत्थे लोगों पर वार करते हैं| बम छुपाकर चोरों की तरह भाग निकलते हैं| जब पकड़ जाते हैं तो सब कुछ उगल देते हैं| उन्हें उकसानेवाले लोग भी उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं| इसे आप जेहाद कहेंगे, क्या ? ये कैसे जेहादी हैं? जो रमज़ान के महिने का भी लिहाज़ नहीं करते ? उन्हें इस बात की चिंता भी नहीं होती कि उनके बम से कई रोज़ाधारी मुसलमान भी जिन्दा जल जाते हैं| जो आतंकवादी आत्मघाती दस्ते बनाते हैं, उनकी अधार्मिकता भी अपरंपार है, क्योंकि इस्लामी परंपरा में आत्महत्या को पाप बताया गया है| हमारे कच्ची समझ और कच्ची उम्र के नौजवानों को सही रास्ते पर लाना हर मुसलमान का फर्ज है| अपने ऊपर होनेवाले जुल्म और अन्याय पर चुप्पी साध लेना भी कायरता है लेकिन चुप्पी तोड़ने का मतलब बम फेंकना नहीं है| भारत जैसे लोकतांत्रिक और खुले देश में अन्य कई तरीके हैं, अपना पक्ष प्रस्तुत करने के| इस बारे में हमारे मुसलमान भाइयों के मन में कोई दुविधा नहीं रहनी चाहिए|
Leave a Reply