नया इंडिया, 29 अक्टूबर 2013 : एक मुख्यमंत्री कैसे खुद को प्रधानमंत्री के सांचे में ढालता है, यह देखना हो तो पिछले पांच-छह माह के नरेंद्र मोदी की तरफ देखिए। जिस मोदी पर राजधर्म के उल्लंघन का आरोप था, जिस मोदी को सोनिया गांधी ने मौत का सौदागर कहा था, जिस मोदी को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन कहा गया था, जिस मोदी को हिंदुत्व का कट्टर प्रवक्ता घोषित किया गया था, वही मोदी धीरे-धीरे अपना विकास करते हुए अब कहां आ पहुंचा है? मोदी ने सबसे पहले बाबा रामदेव की सभा में हरिद्वार में घोषणा की कि मैं भारत के नागरिकों में इस या उस तबके को सुखी नहीं देखना चाहता हूं। मेरा लक्ष्य है, सर्वे भवन्तु सुखिनः! याने भारत के प्रत्येक नागरिक का सुख ही मेरा सुख है। मोदी ने इशारों-इशारों में ही कहा कि वे सिर्फ हिन्दुओं के प्रवक्ता नहीं है, उन्हें पूरे भारत की चिंता है। यहां से मोदी आगे बढ़ते हैं।
अब तक वे लगभग दर्जन भर सभा संबोधित कर चुके हैं लेकिन किसी सभा में उन्होंने एक वाक्य या एक शब्द भी ऐसा नहीं बोला है, जो मुस्लिम विरोधी या इस्लाम-विरोधी हो। कानपुर की सभा में भी उन्होंने हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों को तराजू के एक ही पलड़े पर रखा और पटना में तो उन्होंने ‘मुसलमान भाइयों’ को सीधे ही संबोधित किया और उनसे पूछा कि आप किससे लड़ना चाहते हैं? गरीबी से या हिंदुओं से? यही सवाल उन्होंने हिंदुओं से किया। दूसरे शब्दों में अब नरेंद्र मोदी का एजेन्डा हिंदुत्व का नहीं, विकास का बनता जा रहा है। अब देखना यह है कि देश की मोदी-विरोधी ताकतें इस रचनात्मक पहल को पटरी से उतारने में कहां तक सफल होती है? वे अपने हर बयान और भाषण में गुजरात के 2002 के दंगों का जिक्र करती हैं और सोचती है कि वे उन्हें 2014 में भी भुना ले जाएंगी लेकिन क्या उन्होंने गुजरात के मुसलमानों से कोई सबक नहीं लिया?
देवबंद के वस्तानवी के बयान को वे भूल गए क्या? गुजरात के मुसलमानों ने विधानसभा और स्थानीय चुनावों में जिस खुले दिमाग से मतदान किया, क्या उससे कोई संदेश नहीं निकलता? मौलाना मदनी ने गुजरात का डर दिखाकर चलनेवाली वोट-बैंक की दीवालिया राजनीति को जिन शब्दों में ललकारा है, क्या उसका कोई अर्थ नहीं है? मोदी ने गुजरात के इस दुखद अध्याय को पीछे छोड़ दिया है और गुजरात के मुसलमानों ने भी लेकिन हमारे सेक्यूलरवादी अपने गले में वही पट्टा लटकाए घूम रहे हैं। क्या उन्हें इतनी भी समझ नहीं है कि इस बासी कढ़ी में अब उबाल उठाना मुश्किल है। 2013-14 के भारत का असली मुद्दा क्या है? क्या सांप्रदायिकता है? क्या सेक्यूलरिज्म है? नहीं! भ्रष्टाचार-विरोध है, विकास है, कुशासन की समाप्ति है, गरीबी-निवारण है। इन सब मुद्दों पर देश के नेता बगले झांक रहे हैं और अकेला मोदी बोल रहा है। आप ही बताइए लोग किसकी सुन रहे हैं? मोदी-विरोधियों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह डूबती जा रही है। मोदी की आवाज़ मुसलमान सुनें या न सुनें लेकिन यह निश्चित है कि मुसलमानों के सौदागरों की आवाज़ को अब देश सुनना बंद कर देगा। उन्हें तो इतना भी तमीज़ नहीं है कि वोट बैंक के खातिर वे सारे के सारे मुसलमानों को पाकिस्तान का एजेन्ट बताने लगते हैं। ज्यों-ज्यों चुनाव पास आ रहे हैं, उनकी अक्ल मुरझाने लगी है और मोदी की खिलने लगी है।
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