दैनिक भास्कर, 24 मई 2014: यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि उनकी विदेश नीति मौलिक हो तो उसकी लगाम उन्हें खुद थामनी होगी। विदेश मंत्री वे चाहे जिसे बना दें, यह स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ नेताओं में कोई भी उसका विशेषज्ञ नहीं है। अब तक जिन चार प्रधानमंत्रियों ने भारत की विदेश नीति को ढाला है- नेहरू, इंदिरा, नरसिंहराव और वाजपेयी- उनके विदेश मंत्री चाहे जो भी रहे हों, विदेश नीति के मूलभूत सिद्धांतों का निर्धारण और संचालन उन्होंने स्वयं किया है।
नेहरू अपने विदेश मंत्री स्वयं थे और इंदिरा गांधी के पास स्वर्णसिंह, पीएन हक्सर, डीपी धर, जी. पार्थसारथी जैसे लोग थे, लेकिन राव और वाजपेयी ने विदेशमंत्री रहते हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सारे दांव-पेचों को भली-भांति समझ लिया था। नरेंद्र मोदी को उस तरह के अनुभवों से गुजरने का मौका ही नहीं मिला। इसीलिए उनका मार्ग काफी कांटों भरा होगा। उन्हें फूंक-फूंककर चलना होगा। यदि वे विदेश नीति में भी वैसे ही चमचमाना चाहते हैं, जैसे कि गृहनीति में तो उन्हें एक विद्यार्थी की विनम्रता दिखानी होगी और ऐसी महारत शीघ्र ही हासिल करनी होगी कि भारत अगले पांच साल में ही कम से कम एशिया की सर्वस्वीकार्य महाशक्ति बन जाए।
महाशक्ति से मेरा मतलब यह नहीं है कि भारत को हमें अमेरिका या रूस की तरह भयंकर महाशक्ति बना देना है। हमारा लक्ष्य भयंकर नहीं, प्रियंकर महाशक्ति बनना है। हमें पड़ोसी देशों पर न कब्जा करना है और न ही उन पर दादागिरी करना है। भारत का आचरण ‘बड़े भाई’ का हो, ‘दादा’ का नहीं। हमारी एशियाई संस्कृति में बड़े भाई की भूमिका कैसी होती है? त्याग और तप की। सबको मिलाकर चलने की। सबके सुख को अपना सुख समझने की। ‘बिग ब्रदर’ की नहीं, ‘एल्डर ब्रदर’ की! यही वजह है कि नरेंद्र मोदी ने पड़ोसी देशों के नेताओं को अपने शपथ-समारोह में बुलाया है। पड़ोसी देशों की उपेक्षा हमने पहले तीस-पैंतीस साल की। हम विश्व-यारी में पगलाए रहे। रूस और अमेरिका की बराबरी में लगे रहे।
यदि हमारा जोर शुरू से पड़ोसी देशों पर होता तो क्या दक्षेस अब से सिर्फ 28 साल पहले शुरू होता और अभी तक लंगड़ाता रहता? अभी तक हम यूरोपीय संघ से भी आगे निकल जाते। दक्षेस के आठ और उनके अलावा बर्मा, ईरान, मॉरिशस और मध्य एशिया के पांचों गणतंत्र यानी ये 16 देश मिलकर विश्व की शक्ति और संपन्नता के भंडार बन जाते, लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है। नरेंद्र मोदी में वह क्षमता है, वह लगन है, वह इच्छाशक्ति है कि वे अपने पहले कार्यकाल में ही दक्षिण और मध्य एशियाई सहयोग का एक अभूतपूर्व ढांचा खड़ा कर दें। हमारा साझा बाजार हो, साझी संसद हो और साझा महासंघ हो। यदि यह हो जाए तो 21वीं सदी को एशिया की सदी बनने से कौन रोक सकता है?
यदि इस नक्शे के मुताबिक भारत की विदेश नीति चले तो भारत की गरीबी पांच साल में दूर हो सकती है। ढूंढऩे पर भी भारत में गरीब नामक कोई प्राणी नहीं मिल पाएगा। और यदि भारत अमीर होगा तो उसके पड़ोसी तो गरीब रह ही नहीं सकते, क्योंकि दक्षिण एशिया की गरीबी, अशिक्षा, अभाव और अन्याय को भारत अकेला दूर नहीं कर सकता। सब मिलकर करेंगे। भारत के पड़ोसी देशों की भूमि में इतना तेल, लोहा, सोना, गैस, एल्यूमिनियम, तांबा वगैरह अमूल्य माल भरा हुआ है कि इस क्षेत्र को हम विश्व का शक्ति-भंडार कह सकते हैं। यदि पड़ोसियों से हमारे संबंध मधुर हों और आर्थिक संघ बन जाए तो भारत के करोड़ों नौजवान इन देशों में जाकर संपदा पैदा करें। जब संपदा बरसने लगेगी तो दक्षिण एशिया के देश अपने आपसी झगड़ों को अपने आप दरी के नीचे सरका देंगे। सीमा-विवाद निरर्थक हो जाएंगे। युद्ध अप्रासंगिक बन जाएंगे। फौजी खर्च एक-चौथाई रह जाएगा और कोई नौजवान बेरोजगार नहीं होगा। आतंकवाद खुद बेरोजगार हो जाएगा।
इस महान स्वप्न को साकार करने के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा है- भारत और पाकिस्तान के बीच का तनाव! यदि भारत-पाकिस्तान संबंध सहज हों तो भारत के लिए लंदन, मास्को, पेरिस, अंकारा, तेहरान, काबुल तक के रास्ते खुल जाएं। पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके दिल में भारत की दहशत बैठी हुई है। इसीलिए फौज भी वहां की जनता के सीने पर सवार है। इसीलिए परमाणु बम है और इसीलिए आतंकवाद भी है। वाजपेयी ने मीनारे-पाकिस्तान पर जाकर इस भय को बहुत हद तक दूर किया था। क्या नरेंद्र मोदी अपने नेता के मिशन को आगे बढ़ाएंगे? वे साहसी और दृढ़प्रतिज्ञ हैं। मनमोहन सिंह 10 साल तक कुर्सी पर डटे रहे, लेकिन वे उससे उतरकर एक कदम भी नहीं चल सके। वे पाकिस्तान जाने से कतराते रहे। मोदी धैर्य रखें और पहल करें तो सफलता निश्चित है। मियां नवाज शरीफ खुद भारत से सहज संबंध चाहते हैं। पाकिस्तान की जनता भी यही चाहती है। मैं दर्जनों बार पाकिस्तान गया हूं। हफ्तों रहा हूं। गांव-गांव शहर-शहर घूमा हूं। जितनी आत्मीयता व्यक्तिगत स्तर पर मैंने वहां देखी, दुनिया के बहुत कम देशों में देखी। क्या इस व्यक्तिगत अनुभव को हम राष्ट्रीय अनुभव में नहीं बदल सकते? ऐसा करने के लिए भारत में 56 इंच के सीनेवाला प्रधानमंत्री चाहिए। वह नरेंद्र मोदी हैं ही।
यदि पाकिस्तान के साथ संबंध सहज हो जाएं तो अन्य पड़ोसी राष्ट्रों से मधुर संबंध तो घनिष्ठ होंगे ही। अब ममता बनर्जी या करुणानिधि या जयललिता से डरने की भी अनिवार्यता नहीं है। हां, उनका ख्याल रखना जरूरी है। मोदी चाहें तो बांग्लादेश और श्रीलंका से खुलकर बात कर सकते हैं। उन्हें देश में किसी से दबने की जरूरत नहीं है, लेकिन यह जरूरी है कि हम अपने बांग्ला और तमिल हितों को कुरबान न होने दें। यदि वृहद् दक्षेस के राष्ट्र मिलकर कदम बढ़ाएं तो हमारे क्षेत्रीय मामलों में चीन का अवांछित हस्तक्षेप अपने आप घट जाएगा।
भारत-चीन संबंधों में प्रतिस्पर्धा जरूर रहेगी, लेकिन वह प्रतिस्पर्धा रचनात्मक होगी। अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी की वेला में यदि भारत-पाकिस्तान साझा रणनीति बने तो चीन उसमें भी सहयोगी हो सकता है। भारत-चीन सहकार संयुक्त राष्ट्र का नक्शा भी बदल सकता है। भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी बन सकता है। विश्व की महाशक्तियों में भारत अपना स्थान बनाए, इसके लिए उसकी फौजी और आर्थिक क्षमता तो उल्लेखनीय होनी ही चाहिए, उसकी सांस्कृतिक विदेश नीति विश्व-राजनीति पर भी गहरा असर डाल सकती है। मैं उसे पंचभकार की विदेश नीति कहता हूं। भाषा, भूषा, भेषज, भोजन और भजन की कूटनीति। इस कूटनीति पर विस्तार से कभी और लिखूंगा, लेकिन मोदी सरकार यदि उपर्युक्त मुद्दों को पकड़े और उन पर दृढ़ता से चले तो 67 साल से उलझी हुई कई गांठों को खोला जा सकता है।
वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
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