नया इंडिया, 31 दिसंबर 2013 : नरेंद्र मोदी ने अपने ब्लाग में 2002 के रक्तपात पर जो पश्चाताप व्यक्त किया है, उसे ‘मगर के आंसू’ कहना कहां तक ठीक है? कहावत का मगर आंसू तो बहाता है लेकिन वह मछलियों को निगलना बंद नहीं करता लेकिन 2002 के रक्तपात के बाद क्या गुजरात में कोई ऐसी घटना घटी है, जिसकी तुलना हम गोधरा या गुलबर्ग से कर सकें? लगता है कि गुजरात से मानो सांप्रदायिक हिंसा सदा के लिए विदा हो गई है।
गुजरात ने सांप्रदायिक हिंसा का जैसा तांडव देखा, वैसा देश ने 1984 में भी नहीं देखा। गुजरात की हिंसा तो 1947 की हिंसा का-सा दोहराव थी। स्वतंत्र भारत की वह सबसे दर्दनाक और सबसे शर्मनाक घटना थी। कार-सेवकों को रेल में जिंदा जलानेवाले लोगों को तत्काल पकड़ा जाता और उनके खिलाफ सरकार या जनता यदि सीधी और तत्काल कार्रवाई कर देती तो सारा मामला गोधरा तक ही सीमित रह जाता। वह पूरे गुजरात में नहीं फैलता लेकिन गोधरा में जो कुछ हुआ, उसकी भयंकर प्रतिक्रिया हुई। हिंसा ने प्रतिहिंसा को जन्म दिया और गुजरात सरकार फिर हिंसा और प्रतिहिंसा की इस लड़ी को फटने से रोक नहीं पाई। गुजरात सरकार ने गवाह-पुरावे देकर अदालतों में तो सह सिद्ध कर दिया कि उसने अपने कर्तव्य-पाल में कोई कमी नहीं रखी और उसकी बात अदालतों ने मान भी ली लेकिन कोई भी सरकार क्या अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी से मुक्त हो सकती है? कानून का पेट भरना एक बात है और जनता के मन को शांत करना दूसरी बात है।
उस समय गोधरा और गुलबर्ग सोसायटी-जैसी घटनाओं को देखते हुए ही मैंने लिखा था कि गुजरात में राजधर्म का पालन नहीं हो रहा है। यही बात मैंने सरकारी टीवी ‘दूरदर्शन’ पर दो-टूक शब्दों में कही थी। उसी बात को प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी कई बार दोहराया था। मेरे उस वाक्य को आज की सरकार भी मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। लेकिन मैं पूछता हूं कि आज जब नरेंद्र मोदी 2002 की घटनाओं पर अपनी तत्कालीन मनस्थिति को साफ़-साफ़ व्यक्त कर रहे हैं तो उसका मज़ाक उड़ाना कहां तक ठीक है? यह पूछना तो ठीक है कि पश्चाताप व्यक्त करने की यह बात उनके दिमाग में अभी ही क्यों आई? इतनी देर शायद इसलिए हुई कि उन्हें अब तक ‘मौत का सौदागर’ कहकर प्रचारित किया जाता था लेकिन अब इस बात पर कोई ध्यान देने को भी तैयार नहीं है। अब तो देश पर मोदी का नशा सवार है। ऐसी हालत में मोदी को इतना आत्म-विश्वास हो गया है कि वे अपेन दिल की बात खुलकर कह सकते हैं। यही बात कहने में कांग्रेस पार्टी को 30 साल लग गए और अभी भी कांग्रेस ने राष्ट्र से क्षमा नहीं मांगी है। सिखों से मनमोहनसिंह द्वारा खेद प्रकट करने का कोई अर्थ नहीं है? क्या 1984 में सिखों की हत्या मनमोहनसिंह ने की थी या करवाई थी या उन पर कोई इस तरह का आरोप है? कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी में इतना साहस पैदा हो जाए कि उस दर्दनाक समय में उनकी सरकार से जो भूलें और गलतियां हुई हैं, उन्हें वे देश को खुलकर बताएं और जरुरी हो तो क्षमा भी मांगें ओर प्रायश्चित्त भी करें।
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