नया इंडिया, 24 सितंबर 2014 : मोदी सरकार की विदेश नीति अधर में लटकती दिखाई पड़ रही है। वह इतनी जल्दी मोहभंग को प्राप्त होगी, इसका अंदाजा नहीं था। भारत-जापान संबंधों में तो कभी कोई गंभीर बाधा नहीं थी। सो, उनको आगे बढ़ाना भी सहज सिद्ध हुआ। लेकिन जिन संबंधों में कुछ अटक थी, असली परीक्षा तो वहीं है। उन्हें हम आगे बढ़ा पा रहे हैं या नहीं? जिस शी चिनफिंग की यात्रा पर हमारी सरकार महिने भर से थिरक रही थी, उसमें से क्या निकला? न तो 100 बिलियन डॉलर का चीनी निवेश आया, न कोई ठोस परमाणु-सौदा हुआ, न सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता पर समर्थन मिला और न ही पाकिस्तान पर कोई आश्वासन मिला। उल्टा हुआ यह कि हमारे नव-नियुक्त सेनापति दलबीर सिंह सुहाग की भूटान-यात्रा स्थगित हो गई। उनकी यह पहली विदेश यात्रा स्थगित क्यों हुई? इसलिए हुई कि दोनों देशों की काम चलाऊ नियंत्रण रेखा पर मुठभेड़ का माहौल बना हुआ है। लद्दाख के चुमार नामक स्थान पर चीनी फौजें 15 किलोमीटर अंदर तक घुस आई हैं। जब राष्ट्रपति शी अहमदाबाद से दिल्ली पहुंचे तो दिखावे के लिए वे थोड़ा पीछे हट गईं। अब वे फिर आगे बढ़ गई हैं। चीन के एक हजार और हमारे डेढ़ हजार जवान आमने-सामने खड़े हैं। दमचोक में यही हाल दोनों देशों के गडरियों के बीच हो रहा है। दोनों देशों के पत्रकारों का एक सम्मेलन, जो दिल्ली में होने वाला था, इसीलिए स्थगित भी कर दिया गया है।
उधर चीन लौटते ही शी ने अपनी फौज को संबोधित करते हुए कहा है कि उसे क्षेत्रीय युद्धों को जीतने के लिए तैयार रहना चाहिए। ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी’ के सेनापति फंग फेंगहुइ ने कहा है कि राष्ट्रपति शी के हुक्मों को उनकी फौज पूरी तरह से मानती है। तंग श्याओ पिंग के बाद शी ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं जो चीन, कम्युनिस्ट पार्टी और सैन्य आयोग, तीनों के अध्यक्ष हैं। उनकी जानकारी और इजाजत के बिना सीमांत पर चीनी फौज पत्ता भी नहीं हिला सकती। दूसरे शब्दों में वे अपनी भारत-यात्रा पर पानी फेरने के लिए क्यों उतारु हो गए हैं? क्या उनके इस नाटक के कारण मोदी की स्थिति हास्यास्पद नहीं बन जाएगी? कांग्रेस ने मोदी से पूछा है कि उनके गुजराती अफसर ने चीन के उस ‘एमओयू’ पर दस्तखत क्यों किए, जिसके नक्शे में अरुणाचल को चीन का प्रदेश बताया गया है? चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने अरुणाचल के बारे में जो दहाड़ लगाई थी, उसका क्या हुआ?
चीन के साथ-साथ हमारी पाक-नीति भी मज़ाक का विषय बन रही है? यदि हुर्रियत के बहाने अडंगा लगाना था तो नवाज़ शरीफ को बुलाया ही क्यों? अभी तक भारत सरकार यह तय ही नहीं कर पाई कि न्यूयार्क में दोनों प्रधानमंत्री मिलेंगे या नहीं? इन दोनों घटनाओं ने मोदी की विदेश नीति पर ग्रहण-सा लगा दिया है। इसमें मुझे मोदी का दोष मालूम नहीं पड़ता। वे अभी इस क्षेत्र में नए हैं। उनके सलाहकार भी नए हैं। इस मामले में सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विदेश मंत्रालय की है। विदेश मंत्रालय के अफसर बहुत योग्य और अनुभवी हैं। उनकी सलाह पर ध्यान देना जरुरी है। विदेश मंत्री को हाशिए में डालने से काम नहीं चलेगा। कहीं ओबामा से होने वाली भेंट की दशा भी यही न हो जाए?…
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