दैनिक भास्कर, 27 सितंबर 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली अमेरिका-यात्रा प्रारंभ हो गई है। यह यात्रा इस अर्थ में असाधारण है कि जिस मोदी को सालभर पहले तक अमेरिका वीजा देने को तैयार नहीं था, उसी मोदी की अगवानी में अमेरिकी राष्ट्रपति पलक-पांवड़े बिछाए हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए सितंबर-अक्टूबर का महीना ऐसा होता है, जिसमें वे विदेशी राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मिलने में कतराते हैं, क्योंकि न्यूयॉर्क में होने वाले संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में लगभग सभी राष्ट्रों के नेता पहुंचे रहते हैं।
ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति कई नेताओं से खड़े-खड़े बात कर लेते हैं या चाय पी लेते हैं या सिर्फ दुआ-सलाम कर लेते हैं तो वे अपने आप को धन्य मानते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी को ओबामा न्यूयॉर्क में तो प्रीति-भोज कराएंगे ही, वॉशिंगटन स्थित अपने ब्लेयर हाउस में ठहराएंगे भी। दोनों के बीच विस्तृत वार्तालाप भी होगा।
ओबामा प्रशासन मोदी की खुशामद उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही करने लगा है। यह आहट मिलते ही कि मोदी ही प्रधानमंत्री बनेंगे, उसने अपने सांसदों और राजदूत को अहमदाबाद की तीर्थ-यात्रा पर भिजवा दिया और चुनाव परिणाम घोषित होने के पहले ही ओबामा ने मोदी को निमंत्रण भेज दिया। सरल शब्दों में कहें तो ओबामा ने पहाड़ खोद डाला, लेकिन अब सवाल यह है कि उसमें से निकलेगा क्या? भारत और अमेरिका की राजनीतिक और सामरिक उलझनों को सुलझाने में यदि मोदी सफल न भी हो पाएं तो भी उनकी अमेरिका यात्रा निष्फल नहीं होगी, क्योंकि वे संयुक्त राष्ट्र में भारतीय विदेश नीति का जोरदार प्रतिपादन करेंगे, पड़ोसी देशों के नेताओं से मिलेंगे और 20 हजार भारतीयों की सभा को संबोधित करेंगे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज वहां पहले ही पहुंच चुकी हैं। वे अनेक राष्ट्रों के नेताओं से मिल रही हैं।
डर यही है कि जैसे नवाज शरीफ और शी चिनफिंग की भारत-यात्राओं के बाद पाकिस्तान व चीन के साथ नौ दिन चले और ढाई कोस वाला हाल हो गया है, कहीं वैसा ही हाल अमेरिका के साथ भी न हो जाए। अमेरिका भारत का पड़ोसी नहीं है और हमारे दोनों देशों के बीच वैसी कटुता भी कभी नहीं रही, जैसी भारत की चीन और पाकिस्तान के साथ रही है। दोनों राष्ट्रों में आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक सहकार की अपार संभावनाएं हैं। दोनों राष्ट्र मिलकर काम करें तो विश्व राजनीति की दिशा ही बदल सकते हैं। जहां तक मोदी का सवाल है, उन्होंने ओबामा और अमेरिका की सराहना में काफी उदारता का परिचय दिया है और वे चाहेंगे कि राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों देश कदम से कदम मिलाकर चलें, लेकिन अमेरिका के बारे में पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि भारत के प्रति उसका रवैया क्या होगा? इस वक्त अमेरिका के दिमाग पर ‘इस्लामी राज्य’ का भूत सवार है। वह सीरिया और इराक के इस संगठन को ध्वस्त करने में जुटा हुआ है और फिर ओबामा शीघ्र ही चुनावी-मुद्रा धारण करने वाले हैं। अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत होने वाला है। ऐसे में ओबामा क्या जॉर्ज बुश का युग लौटा पाएंगे?
बुश ने भारत के प्रति विशेष मैत्री-भाव दिखाया था। उन्होंने परमाणु-सौदा करवाया, भारत को अफगानिस्तान में सक्रिय होने दिया और पाकिस्तान को भी संयम बरतने की सलाह दी थी, लेकिन ओबामा-प्रशासन के दौरान भारत-अमेरिका संबंधों में कुछ न कुछ अड़चनें पैदा होती ही रही हैं। खोबरागड़े-प्रकरण ने दोनों देशों के कूटनीतिक संबंधों में तनाव पैदा कर ही दिया था, लेकिन उससे भी ज्यादा निराशा की बात यह रही कि परमाणु-सौदे में हर्जाने के मुद्दे पर अमेरिका टस से मस नहीं हुआ। जिस सौदे के कारण स्वयं मनमोहन सिंह और उनकी सरकार भी गिरते-गिरते बचे, वह सौदा आज भी अधर में लटका हुआ है। भारतीय तकनीकी विशेषज्ञों के बिना अमेरिका बेहाल हो सकता है, लेकिन उन्हें वीजा देने में वह अजीब काहिली का परिचय दे रहा है। इसी प्रकार विश्व-व्यापार संगठन में भी भारत पर ऐसी नीतियां थोपना चाहता है, जिनसे भारत के किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएं। बेशक, भारत-अमेरिकी व्यापार को कई गुना बढ़ाने के लिए मोदी पूरा प्रयत्न करेंगे, लेकिन सवाल यह है कि उससे ज्यादा फायदा किसका होगा? जाहिर है कि अमेरिका का होगा। भारत में भी फायदा उन्हीं का होगा, जो पहले से बड़े फायदे में जिंदगी बिता रहे हैं। अमेरिका से आने वाली चीजों का भारत के आम आदमी से क्या लेना-देना होगा। मोदी जिन 11 बड़े महाप्रबंधकों से मिलेंगे, उनकी कंपनियां क्या-क्या चीजें बेचती हैं? हवाई जहाज, प्रक्षेप्रास्त्र, पनडुब्बियां, एयरकंडीशनर, कम्प्यूटर, महंगी और दुर्लभ दवाइयां! ऐसी दवाई, जो भारत में 5 रुपए में बनाई जा सकती है, लेकिन वही अमेरिका से खरीदें तो हमें 500 रुपए देने होंगे। यदि मोदी अमेरिका को ‘भारत’ से जोड़ सकें तो उन्हें इतिहास शाबाशी देगा, वरना अमेरिका और ‘इंडिया’ के बीच अघोषित सांठगांठ तो शुरू से चल रही है।
मोदी ने भारत में विदेशी पैसा लगाने वालों का दिल खोलकर स्वागत किया है। जापान पर तो उसका असर दिखा है, लेकिन चीन ने 20 अरब डाॅलर और अमेरिका ने सिर्फ 24 अरब डाॅलर लगाए हैं। यह ऊंट के मुंह में जीरा भी नहीं है। अमेरिकी व्यापारी भारत के साथ सालाना व्यापार 500 अरब डाॅलर का करना चाहते हैं और सालाना विनियोग सिर्फ 5-6 अरब का करना चाहते हैं। जो भी हो, मोदी ने प्रतिरक्षा और बीमा में विदेशी विनियोग के द्वार खोल दिए हैं। देखें, अमेरिकी पूंजीपति इस पर रीझते हैं या नहीं?
मोदी व ओबामा अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर बात जरूर करेंगे। मोदी से उम्मीद है कि वे ओबामा से दो-टूक शब्दों में कह देंगे कि वे सिर्फ अमेरिका-विरोधी आतंकवाद की ही चिंता न करें। भारत-विरोधी आतंकवादियों का भी सफाया करें। अफगानिस्तान को अपने हाल पर छोड़ देना बहुत खतरनाक होगा। यह बात ओबामा के गले उतारने के लिए मोदी को विशेष प्रयत्न करने होंगे। अमेरिकी सेना की वापसी के बाद यदि अफगानिस्तान अराजक हो गया तो वह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का अड्डा बन जाएगा। अफगानिस्तान में यदि भारत-पाक-अमेरिकी सहयोग का त्रिकोण खड़ा किया जा सके तो यह संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए वरदान सिद्ध होगा। भारतीय विदेश नीति की यह प्रमुख कमजोरी रही है कि जब भी हमारे प्रधानमंत्री वॉशिंगटन जाते हैं तो दोनों देशों की कार्यसूची अमेरिका तय करता है। मोदी से उम्मीद है कि दक्षिण एशिया को शांति और समृद्धि का क्षेत्र बनाने की कार्यसूची वे स्वयं पेश करें और उसे लागू करने के लिए अमेरिका को प्रेरित करें। अमेरिका की मुश्किल यह है कि वह दुनिया के देशों को अपने मातहत मानकर चलता है। उसकी यह दादागिरी यूरोप और पाकिस्तान जैसे देशों पर तो चल जाती है, लेकिन रूस, चीन और भारत जैसे देशों के साथ अमेरिका का ताल-मेल कैसे बैठे, यह अभी उसे तय करना है। यह तय करने में अगर मोदी अमेरिका के कुछ काम आ सके तो क्या कहने!
वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
dr.vaidik@gmail.com
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