दैनिक भास्कर, 10 मई 2014 : एक औसत पाठक को लगेगा कि इस लेख का शीर्षक इतना बेढंगा क्यों है? भला, क्या ऐसा भी हो सकता है कि भाजपा के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी सरकार न बना पाएं? क्या उनको 272 सीटें भी नहीं मिलेंगी? माहौल तो एकदम उलट है। ऐसा जोशीला स्वागत तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी नेता का कभी नहीं हुआ। नेहरू अपवाद थे। आजादी के पहले ही वे जन-जन के कंठहार बन चुके थे, लेकिन उनके बाद जितने भी नेता प्रधानमंत्री बने, क्या उनकी सभाओं में ऐसी भीड़ उमड़ी, जैसी मोदी की सभाओं में उमड़ती रही? ज्यादातर प्रधानमंत्री तो बिना सभाओं, बिना भीड़ और बिना किसी पूर्व-घोषणा के ही प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन जिन तीन नेताओं के बारे में पहले से पता था कि ये चुनाव जीतेंगे और प्रधानमंत्री बनेंगे, वे भी यानी इंदिरा गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी भी क्या अपनी सभाओं में इतने लोग जुटा पाए, जितने अकेले मोदी ने जुटाए हैं?
क्या प्रधानमंत्री पद के ये तीनों उम्मीदवार देश के इतने कोनों में घूम सके हैं, जितने कोने अकेले मोदी ने छाने हैं? क्या प्रधानमंत्री पद के किसी उम्मीदवार ने केरल से कश्मीर और गुजरात से अरुणाचल तक लाखों किलोमीटर तक खुद जाकर कभी चुनाव-अभियान चलाया है? पांच से दस करोड़ लोगों को मोदी ने साक्षात संबोधित किया है और टीवी चैनलों और इंटरनेट के जरिये पता नहीं कितने करोड़ लोगों तक उन्होंने अपना सीधा संदेश पहुंचाया है। जिन लोगों की उम्र 70 साल के आस-पास है, उनसे मैं पूछता हूं कि क्या उन्होंने 1952 के चुनाव से अब तक किसी नेता के प्रति ऐसा नशा और ऐसा मुग्ध-भाव, कभी देखा है? 1977 में लोगों के दिल में आपातकाल के विरुद्ध भयंकर गुस्सा था, मोरारजी देसाई या चरणसिंह के प्रति निष्ठा नहीं थी। 1984 में इंदिराजी की हत्या ने लोगों को गमगीन कर दिया था। राजीव की जगह जो भी होता, उसे भी 400 से कम सीटें नहीं मिलतीं। लोगों ने राजीव को नहीं, शहीद इंदिराजी को वोट दिया था।
हां, 1971 में इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे और उनकी तेजस्विता ने जनता में उत्साह का संचार किया था और ऐसा ही थोड़ा-बहुत उत्साह 1996 में अटलजी के समय देखने को मिला था लेकिन इन उत्साहों की तुलना क्या मोदी के प्रति नजर आ रहे नशे से की जा सकती है? मैं इसे जनता का नशा इसलिए कहता हूं कि वह न तो किसी पार्टी की परवाह कर रही है, न घोषणा-पत्रों की और न ही मुद्दों और नीतियों की! वह कुछ सुनने को ही तैयार नहीं है।
वह मोदी को देखने के लिए इस तरह टूट पड़ती है, जैसे कभी जवाहरलाल नेहरू के लिए टूट पड़ती थी। मोदी अपनी सभाओं में जब किसी विरोधी पर व्यंग्य-बाण छोड़ते हैं तो लाखों कंठ एक साथ वाह-वाह करने लगते हैं। मोदी के लिए पगलाई जनता को मोदी चुप कराते हैं तो वह और जोर से मोदी-मोदी चिल्लाने लगती है। लोगों को मुद्दे नहीं, मोदी चाहिए। इसीलिए इस 16वें आम-चुनाव में सारे नेता एक-दूसरे की टांग-खिंचाई में लगे हुए हैं और सारा प्रचार-तंत्र भी इसी सतही खेल में डूबा हुआ है। इस समय मोदी की हवा नहीं, आंधी-सी चल रही है। खुद मोदी ने कहा है कि उन्हें राजीव गांधी के बाद सबसे ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद है। आजकल चुनाव-सर्वेक्षण की वे सब दुकानें बंद हैं, जो कल तक मोदी को 160 से 200 सीटें तक दिला रही थीं। बड़े-बड़े नौकरशाह या तो मोदी-समर्थकों की खुशामद में अभी से पिल पड़े हैं या विदेशों में तबादले मांग रहे हैं।
देश के ऐसे अपूर्व वातावरण के बावजूद कुछ लोग अब भी आस लगाए बैठे हैं कि तीसरे मोर्चे की सरकार बन जाएगी। या तो वह कांग्रेस के नेतृत्व में बनेगी या उसके समर्थन से चलेगी। वे कहते हैं कि भीड़ जुटाना और टीवी चैनलों पर दनदनाते रहना एक बात है और इस छवि-निर्माण को वोट के रूप में भुनाना बिल्कुल दूसरी बात! हिंदी-क्षेत्रों के अलावा भाजपा की पकड़ कहां है? कर्नाटक में भाजपा का खाता खुला था, लेकिन वहां पार्टी की बही ही फट गई। 25 पार्टियों के चुनाव-पूर्व गठबंधन की बात कही जाती है, लेकिन इनमें से कई पार्टियों का एक भी सांसद नहीं है। जिन क्षेत्रीय नेताओं को 10 से 30 सीटें मिलने की उम्मीद है, उनमें से किसी के भी साथ भाजपा का गठबंधन नहीं हुआ है। मुलायम, ममता, माया, जयललिता, नवीन, नीतीश – सभी बाहर हैं। इन सबका निशाना बस एक ही है। उसका नाम है- नरेंद्र मोदी। ऐसे मोदी 300 सीटें भला कैसे ला पाएंगे? अटलजी भी सादा बहुमत नहीं ला सके तो मोदी कैसे ले आएगा?
अटलजी की तरह मोदी को यदि 200 के आस-पास सीटें मिलीं तो भी उनके सपने चूर-चूर हो जाएंगे। सबसे पहले तो उनकी पार्टी के दावेदार ही उन पर हमला बोल देंगे। वे कहेंगे कि इस व्यक्तिवादी अभियान के कारण भाजपा पिट गई। मोदी के कारण अल्पसंख्यक वोट छिटक गए। उदार हिंदू भी बिदक गए, आदि आदि! और फिर मोदी की सरकार के साथ गठबंधन बनानेवाली पार्टियां कहां से लाएंगे? शेष 72 सीटें कैसे जुटाएंगे? सारे प्रांतीय नेता कहेंगे कि हम बड़े नेता हैं कि मोदी बड़े नेता हैं? आखिर में मोदी हमारी तरह मुख्यमंत्री ही तो हैं। उन्हें हम अपना नेता कैसे मान लें?
मान लें कि ये सब तर्क ठीक हैं। अब सोचें कि मोदी प्रधानमंत्री नहीं बने तो क्या होगा? यदि मोदी के बिना भाजपा कोई गठबंधन बनाती है तो वह बन तो सकता है, लेकिन उसकी इज्जत दो कौड़ी भी नहीं होगी। वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहसे भी गया-बीता होगा। आम जनता भी थू-थू करेगी। ऐसा प्रधानमंत्री कितने दिन चलेगा? भाजपा, भला, ऐसा जुआ क्यों खेलेगी? मान लें कि सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद दिल्ली राज्य की तरह भाजपा केंद्र में सरकार बनाने से मना कर दे तो क्या होगा? सरकार के नाम पर तब भानुमती का एक कुनबा हमारे सामने खड़ा कर दिया जाएगा। इस कुनबे में नीतीश और लालू, जयललिता और करुणानिधि, मुलायम और मायावती- सभी जानी दुश्मनों को एक ही थाली में बैठकर खाने का निमंत्रण मिलेगा। तब कांग्रेस किसी भी मिट्टी के माधव को कुर्सी पर बिठाकर वही करेगी, जो उसने चरणसिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल के साथ किया।
यदि ऐसा होता है तो देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता। वह दौर अराजकता का दौर होगा। दूसरे शब्दों में देश के सामने उसके विकल्प स्पष्ट हैं- या तो मोदी या अराजकता! ऐसे में राष्ट्रपति की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होगी। यदि वे परंपरा से हटकर नहीं सोचेंगे तो भविष्य उनका भी कठोर मूल्यांकन करेगा। बजाय इसके कि वे केंद्र में कोई लकवाग्रस्त प्रधानमंत्री बैठाएं, कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन घोषित करें और एक सर्वदलीय मंत्रिमंडल बनाएं, जो 17 वें आम चुनाव तक भारत का शासन चलाए।
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