नवभारत टाइम्स, 21 फरवरी 2008 : पाकिस्तान के चुनाव से फूल और कॉंटे एक साथ झड़ रहे हैं| चुनाव के नतीजे ऐसे नहीं हैं कि पाकिस्तानी राजनीति के आकाश पर जैसे कोई सूर्य उग आया हो और सारे बादल साफ़ हो गए हों| सच्चाई तो यह है कि इन चुनावों ने पहले से अधिक धुंध पैदा कर दी है| पिछले पॉंच वषींे में पाकिस्तान के सेनापति, राष्ट्रपति, सरकार और संसद – चारों का रंग एक ही था और चारों ही एक दिशा में बढ़े चले जा रहे थे| सिर्फ न्यायपालिका ने अलग पटरी पकड़ ली थी| अब क्या नज्जारा है? अब राष्ट्रपति, सेनापति, सरकार और संसद – चारों एक-दूसरे से स्वायत्त होंगे और अदालत का कुछ पता नहीं कि उसका रंग-रूप कैसा हो? इसीलिए चुनाव होने पर तो खुश हुआ जा सकता है लेकिन चुनाव में जो हुआ, उस पर कोई खुशी कैसे जाहिर की जाए? यह चुनाव पाकिस्तान की राज्य व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था और लोक-शक्ति को अधिक शक्तिशाली बनाएगा, इसमें मुझे संदेह है| यह मानकर चलना चाहिए कि पाकिस्तान अब अस्थिरता के नए दौर में प्रवेश करेगा|
अगर पीपीपी को स्पष्ट बहुमत मिल जाता या पीपीपी और नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग को मिलाकर दो-तिहाई या उससे ज्यादा बहुमत मिल जाता तो पाकिस्तानी राजनीति की शक्ल ही कुछ और होती| यह संदेह ही पैदा नहीं होता कि दोनों पार्टियों का गठबंधन होगा या नहीं| दोनों पार्टियों का शक्तिशाली गठबंधन बनता और वे पहले ही दिन से ही मुशर्रफ पर महाभियोग चला देतीं| उस स्थिति में भी सीनेट में दो-तिहाई बहुमत की समस्या बनी रहती, क्योंकि वहॉं मुस्लिम लीग (क़ायदे-आजम) का बहुमत है लेकिन तब दल-बदल आदि की गुंजाइश बढ़ जाती| लेकिन आज समस्या सिर्फ दो-तिहाई बहुमत की ही नहीं है, यह भी है कि आसिफ ज़रदारी और नवाज़ शरीफ कई मुद्दों पर एकमत हैं या नहीं| मियॉं नवाज़ का कहना है कि पुराने जजों को बहाल करो, मुशर्रफ को हटाओ, ए. क्यू. खान को छोड़ो| इन तीनों मुद्दों पर नवाज़ शरीफ यदि ज़रदारी के साथ मिल जाते हैं तो उन्हें उसी मुशर्रफ के मातहत काम करना पड़ेगा, जिसने उनका तख्ता पलट किया था| इसीलिए यह शंका भी जताई जा रही है कि यदि ज़रदारी मुशर्रफ से हाथ मिला लेंगे तो नवाज़ की पार्टी प्रतिपक्ष में बैठेगी| ज़रदारी को शुजात की मुस्लिम लीग के 38, एम क्यू एम के 19 और अवामी पार्टी के 10 सदस्यों का सहयोग तो मिलेगा ही, अनेक निर्दलीयों का समर्थन भी मिल सकता है| दूसरे शब्दों में यह ज़रदारी, मुशर्रफ और और अमेरिका की सरकार होगी| यह सरकार तो मजे से चलेगी लेकिन देश चलेगा या नहीं चलेगा, इस सवाल का जवाब मियॉं नवाज़ के हाथ में होगा| मियॉं नवाज़ सिर्फ प्रतिपक्ष के नेता ही नहीं होंगे, वे शेरे-पंजाब होंगे, वे जजों और वकीलों के रहनुमा होंगे, वे अमेरिका-विरोध के प्रतीक होंगे और वे लोकतंत्र् की मशाल बन जाऍंगे| वे पाकिस्तान के आयतुल्लाह खुमैनी बन सकते हैं| उन्हें जमाते-इस्लामी के काजी हुसैन अहमद और जमीयत के फजलुर रहमान का समर्थन भी मिलेगा| समस्त इस्लाम-प्रेमी तत्व भी उन्हें अपना नेता मानेंगे| वे अपूर्व जन-आंदोलन के लोक-नायक बनकर पाकिस्तान को हिला सकते हैं| हम यह नहीं भूलें कि 1997 के चुनाव में उन्हें तीन-चौथाई बहुमत मिला था| इतना बड़ा बहुमत दक्षिण एशिया में आज तक किसी भी नेता को नहीं मिला है| अगर बेनज़ीर की हत्या नहीं होती तो शायद मियॉं नवाज़ को स्पष्ट बहुमत भी मिल जाता या उनकी पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर उभरती| इस चुनाव में उनकी पार्टी चाहे दूसरे नंबर पर चली गई है लेकिन नेतृत्व और महत्व के अंकगणित में वे अब भी नंबर वन हैं| उनकी पार्टी सरकार में शामिल हो या न हो, पाकिस्तान का राजनीतिक एजेन्डा वही तय करेगी| बहुत कम तैयारी के बावजूद नवाज़ ने इतनी सीटें जीत ली हैं कि वे मुशर्रफ का जीना हराम कर देंगे|
लेकिन क्या मुशर्रफ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? बिल्कुल नहीं ! वे भागनेवाले नहीं हैं| वे नेताओं के नेता हैं| उन्होंने पहले से कह दिया है कि वे एक बुजुर्ग की तरह पेश आऍंगे याने अपने आपको रोज़मर्रा की राजनीति से अलग रखेंगे| उनका लचीलापन लाजवाब है| ऐसा नहीं होता तो तालिबान का संरक्षक रातों-रात अमेरिका का चौकीदार कैस बन जाता? अगर मुशर्रफ हिम्मत करे और कह सकें कि वे भारतीय राष्ट्रपति या बि्रटिश राजा का तरह केवल नाम-मात्र् के राष्ट्राध्यक्ष बने रहेंगे तो शायद पाकिस्तान की राजनीति उन्हें बर्दाश्त कर ले| यों भी उनकी खड़ी की हुई मुस्लिम लीग (क़ा) के प्रमुख नेताओं ने चुनाव के दौरान ही कई मुद्दों पर अपने आपको उनसे अलग कर लिया था| वे अब सेनापति भी नहीं हैं| अमेरिका और फौज उनके पीछे पूरी तरह से डटे रहें, इसके बावजूद यदि वे अपने आपको हल्का नहीं करेंगे तो उनका चलते रहना मुश्किल हो जाएगा| किसी भी चुने हुए प्रधानमंत्री को वे जमाली, या शुजात या शौक़त अज़ीज की तरह अब नचा नहीं पाऍंगे| अब भी उनके संवैधानिक अधिकार उनके पास हैं लेकिन इन चुनावों ने उनकी वैधता काफी घटा दी है| पाकिस्तान की अन्य संवैधानिक संस्थाओं को स्वायत्तता प्रदान कर दी है|
यह ठीक है कि मज़हबी पार्टियॉं इस चुनाव में मात खा गई हैं लेकिन पहले भी उनके पास सीटें और कुल वोट कितने थे? पाकिस्तानी समाज में उनकी घुसपैठ काफी गहरी है| ये जन-आक्रोश को भड़काने की विशेषज्ञ हैं| डर यह है कि हताशा के इस दौर में वे आतंकवादियों को उकसॉंएगी| यदि नवाज़ शरीफ को कोई जन-आंदोलन छेड़ना पड़ा तो वे पार्टियॉं अग्रगामी भूमिका अदा करेंगी| इस चुनाव में एक भी पार्टी अखिल पाकिस्तान पार्टी बनकर नहीं उभरी है, जैसी कि 1997 या उसके पहले दो-तीन चुनावों में उभरी थीं| सिर्फ सिंध विधानसभा में पीपीपी को स्पष्ट बहुमत मिला है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उसे एक-तिहाई सीटे भी नहीं मिली हैं| इसी प्रकार नवाज़ को पंजाब में सबसे ज्यादा संसदीय और विधानसभाई सीटें मिली हैं लेकिन अन्य दो प्रांतों में उसका खाता ही नहीं खुला है| संसद में भी उसे मुश्किल से एक-चौथाई सीटें मिली हैं| पख्तूनों, सिंधियों और पंजाबियों ने अपनी-अपनी पार्टियों को जिताया है| बलूचिस्तान में शुजात की मुस्लिम लीग को इसलिए बढ़त मिली है कि स्थानीय पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया था| दूसरे शब्दों में पाकिस्तान के इस चुनाव ने राष्ट्र को जातीय आधार पर बॉंट दिया है| चुनाव चाहे राजनीति को बांट रहा हो लेकिन जन-आंदोलन उसे जोड़नेवाला तत्व सिद्घ होगा| यदि मुशर्रफ और अमेरिका के विरूद्घ जन-आंदोलन छिड़ गया तो पीपीपी और शुजात की मुस्लिम लीग के लोग भी टूटेंगे, असंतुष्ट पठान और बलूच भी पंजाबियों के साथ एकजुट होंगे और फौज का दबदबा भी कम होगा| अगर चुनाव के कारण फौज का रूतबा घटता होता तो 1997 से बेहतर स्पष्ट चुनाव कभी नहीं हुए| अब कोई जबर्दस्त जन-आंदोलन ही फौज को नेपथ्य में भेज सकता है और सच्चे लोकतंत्र् की स्थापना कर सकता है| यह चुनाव तो अभी सिर्फ सेमि-फाइनल है|
Leave a Reply