NavBharat Times, 9 Oct 2008 : पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी ने अमेरिका के अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ को इंटरव्यू क्यादिया, एक चमत्कार सा हो गया। भारत और अफगानिस्तान के नेता आश्चर्यचकित रह गए। जो बात वे सालों से कह रहे हैं, वही ज़रदारी ने कह दी कि पाकिस्तान को भारत से कोई खतरा नहीं है। कश्मीर में हिंसा फैलाने वाले लोग स्वाधीनता सेनानी नहीं, आतंकवादी हैं।
ज़रदारी के इन विचारों का नई दिल्ली और काबुल में जबर्दस्त स्वागत हुआ, लेकिन कश्मीर के अनेक नेताओं ने ज़रदारी की निंदा की। ऐसा पहली बार हुआ कि कश्मीरी मुसलमानों ने किसी पाकिस्तानी नेता के पुतले जलाए। दूसरे ही दिन पाकिस्तान की सूचना मंत्री शेरी रहमान ने सफाई पेश की कि ज़रदारी ने कश्मीर के संघर्ष के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला है। वे उसके साथ हैं। उन्होंने सिर्फ हिंसा का विरोध किया है।
अब इस स्थिति का क्या अर्थ लगाया जाए? सबसे पहली बात तो यह कि ज़रदारी ने जो कुछ बोला है, बिल्कुल सच बोला है। पाकिस्तान के साथ भारत के चार बडे़ युद्ध हुए। हर युद्ध में पहला हमला पाकिस्तान ने ही बोला। भारत ने सिर्फ जवाबी हमला किया। भारत ने कभी भी पाकिस्तान को तोड़ने की कोशिशनहीं की। पाकिस्तान अगर 1971 में टूटा, तो वह अपनी वजह से टूटा।
बांग्लादेश को तो जन्म लेना ही था। भारत ने हस्तक्षेप करके पाकिस्तान की प्रसव पीड़ा कम की। भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के दिमाग में ऐसी योजना नहीं रही कि भारत और अफगानिस्तान के बीच चार नए देश खडे़ हो जाएं। एक पाकिस्तान की जगह बलूचिस्तान, सिंध, पख्तूनिस्तान और पंजाब नामक चार राष्ट्र खडे़ कर देना कभी भी कठिन नहीं था, लेकिन भारत ने अपना हित इसी में समझा कि पाकिस्तान एकजुट रहे और भारत को चार-चार राष्ट्रों की बजाय केवल एक राष्ट्र से ही व्यवहार करना पड़े।
इसके विपरीत पाकिस्तान के नेताओं ने हर पाकिस्तानी के दिमाग में ठोक-ठोक कर यह बात जमा दी कि भारत ने पाकिस्तान को दिल से स्वीकार नहीं किया है। वह पाकिस्तान को खत्म करके ही दम लेगा। यह दहशत पाकिस्तानियों के दिल में ऐसी बैठ गई कि इसके कारण उन्होंने फौज को महाबली बनने दिया, उसे अपनी छाती पर सवार होने दिया। उन्होंने पाकिस्तान को फौज का ही नहीं, अमेरिका का भी गुलाम बना दिया।
अब यदि ज़रदारी अगर यह कहते हैं कि पाकिस्तान को भारत से कोई खतरानहीं है, तो इसका अर्थ यह है कि फौज को सिर पर बिठाने की जरूरत नहीं है और गरीब पाकिस्तानियों के अरबों रुपये हथियारों पर खर्च करने की भी जरूरतनहीं है। अब पाकिस्तान लोकतंत्र की ओर बढ़ना चाहता है और सच्ची संप्रभुता का स्वाद चखना चाहता है।
ज़रदारी के इस इरादे से ज्यादातर पाकिस्तानी सहमत हैं, लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? इसीलिए ज़रदारी के साहस की तारीफ करनी पड़ेगी।
इसी तरह कश्मीर के आतंकवादियों को आतंकवादी भी ज़रदारी ने अपनी वजह से ही कहा है। उनकी पत्नी आतंकवाद की शिकार हुई हैं। जनरल मुशर्रफ पर भी पांच-छह हमले हो चुके हैं। अवामी नेता असफंदयार वली खान मरते-मरते बचे हैं। आतंकवाद से सारा पाकिस्तान भयभीत है। पाकिस्तानियों को यह भी समझ में आ गया है कि आतंकवाद के दम पर सौ साल में भी कश्मीर नहीं छीना जा सकता।
यदि आतंकवादी खत्म होंगे, तो फौज और गुप्तचर संगठन (आईएसआई) का दबदबा भी घटेगा। औसत पाकिस्तानी के दिल में छिपे इस भाव को ज़रदारी ने सार्वजनिक कर दिया है।
आश्चर्य है कि ज़रदारी के खिलाफ पाकिस्तान में अभी तक कोई खास प्रदर्शन नहींहुए। नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग और फजलुर रहमान की जमीयत की प्रतिक्रिया भी नरम सी ही है। काजी हुसैन अहमद की उग्रवादी पार्टी जमाते इस्लामी ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। हो सकता है कि संसद में कुछ हंगामा हो। हंगामा करने वाले जानते हैं कि ज़रदारी ने जो कहा, वही उनके दिल में है। ज़रदारी ने जो कुछ कहा है, अगर वह सचमुच पाकिस्तान की राष्ट्रीय नीति बन जाए तो अगले पांच साल में दक्षिण एशिया की किस्मत चमक उठेगी।
लेकिन क्या ऐसा होगा? ऐसा होना जरा मुश्किल है। इसका पहला कारण तोयह है कि ज़रदारी राष्ट्रपति तो बन गए हैं, लेकिन अभी भी सत्ता और लोकप्रियता उनके हाथ में नहीं है। औसत पाकिस्तानी उन्हें अब भी राष्ट्रपति कम, बेनजीरपति ज्यादा मानता है। उनकी ‘श्रीमान 10 प्रतिशत’ की छवि भी अभी टूटीनहीं है।
उन्हें सांसदों और विधायकों ने प्रचंड बहुमत से राष्ट्रपति तो बना दिया, लेकिन अभी वे पाकिस्तानी संसद के सदस्य भी नहीं चुने गए हैं। फौज और गुप्तचर विभाग आजकल जानबूझकर नेपथ्य में चले गए हैं। वे ज़रदारी को तभी तक बर्दाश्त करेंगे, जब तक वे लक्ष्मणरेखा को नहीं लांघते। यदि वे ज़रदारी से पूर्णतया सहमत हो गए, तो क्या उनका वर्चस्व खत्म नहीं हो जाएगा?
दूसरे, ज़रदारी ने अपना इंटरव्यू अमेरिका के एक अखबार को दिया है। उनका लक्ष्य उस समय भारत और पाकिस्तान की जनता नहीं, अमेरिका रहा हो सकता है। इसीलिए उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु सौदे का स्वागत भी किया है। उन्होंने अमेरिका के साथ उनकी घनिष्ठता को काफी महत्वपूर्ण बताया है। उन्होंने यहां तक कह डाला कि कबायलियों पर होने वाले अमेरिकी हमलों के बारे में उनकी मौन सहमति होती है।
यदि ज़रदारी परमाणु सौदे का विरोध करते, आतंकवादियों को स्वतंत्रता सेनानीकहते और भारत के साथ संबंध खराब करने की बात कहते तो वाइट हाउस में बैठे मालिक लोग क्या नाराज नहीं हो जाते? क्या आज पाकिस्तान इस स्थिति में है कि वह अमेरिकियों को नाराज कर सके? इसी इंटरव्यू में ज़रदारी ने कहा है कि यदि पाकिस्तान को 70-80 हजार करोड़ रुपये का अनुदान तुरंत नहीं मिला,तो उसका भट्टा बैठ जाएगा।
पाकिस्तान में महंगाई इतनी बढ़ गई है कि लोग भरपेट भोजन नहीं कर पा रहे हैं। अगले एक माह में उसका विदेशी मुद्रा कोष खत्म हो जाएगा। ऐसे में ज़रदारी ने ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ को जो कहा है, वह नहीं कहते तो क्या करते?
तीसरे, ज़रदारी को यूं भी पाकिस्तानी जनता ने मसखरी का पुतला बना रखा है। अमेरिकी उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सारा पैलिन से उनकी मुलाकात को लेकर सारे पाकिस्तान में चुटकुलों का दौर चला हुआ है। उनके उस चर्चित इंटरव्यू में कही गई भारत और आतंकवादियों संबंधी बातों की अखबारों ने अनदेखी कर दी है। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि भारत-पाक संबंधों में अब नया दौर शुरू होने वाला है?
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