नवभारत टाइम्स, 05 अगस्त 2002 : पहले हमने कहा था, क्या खूब चोर दरवाज़ा ? अब क्या कहें ? अब तो वह भी नहीं| अब जो नया विधेयक संसद के सामने लाया जा रहा है, उसमें से वह प्रावधान भी निकाल दिया गया है, जिसके कारण किसी नेता को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता था| वह प्रावधान यह था कि अगर किसी उम्मीदवार ने चुनाव के छह माह पहले कोई दो जघन्य अपराध किए हों और उनके कारण उस पर मुकदमे चल रहे हों तो वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा| छह माह की पूर्व अवधि और एक की बजाय दो-दो जघन्य अपराधों की बात पर जनता और अखबारों ने नेताओं की काफी खिल्ली उड़ाई थी| आशा यह थी कि नेता कुछ लज्जित होंगे और अपने विरूद्घ जरा कड़ा कानून बनाएँगे लेकिन अब बिल्कुल ही उल्टा हो रहा है|
सभी दल दुबारा मिले और इस बात पर सहमत हो गए कि नया विधेयक लाया जाए, जिसमें से उक्त प्रावधान निकाल दिया जाए| तो फिर इस विधेयक में बचा क्या ? शायद कुछ नहीं| अब जन-प्रतिनिधित्व के पुराने कानून के मुताबिक केवल उन्हें ही चुनाव लड़ने से रोका जा सकेगा, जिन्हें किसी अपराध में पहले दो साल की सजा हुई हो| यदि यही करना है तो नए विधेयक की जरूरत क्या है ? नए विधेयक की जरूरत यह कहकर समझाई जा रही है कि उसके द्वारा उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग की इच्छा का सम्मान किया जाएगा| नए विधेयक में शायद दो नई बातें होंगी| एक तो उम्मीदवार अपनी सज़ा का ब्यौरा खुद देंगे और दूसरा उन पर कोई मुकदमा चल रहा होगा तो उसकी सूचना भी खुद देंगे| इन सूचनाओं के प्रचार की भी छूट होगी लेकिन इन अपुष्ट अपराधों के आधार पर उनकी उम्मीदवारी नहीं रुकेगी| इस तरह का लिजलिजा कानून क्या सचमुच उच्चतम न्यायालय का सम्मान करेगा ? क्या इस तरह का कानून अपराधियों को राजनीति में आने से रोक पाएगा ?
वास्तविकता तो यह है कि आज अपराध और राजनीति लगभग जुड़ँवा भाई बन गए हैं| अच्छे-खासे राजनीतिज्ञ आजकल तर्क दे रहे हैं कि जब जनता फूलन को दो-दो बार चुनकर भेज देती है तो मतदान अधिकारी कौन होता है, उसे रोकनेवाला ? आप अफसरों को लोकमत की छाती पर क्यों सवार करवाना चाहते
हैं ? आप लोकतंत्र समर्थक हैं या विरोधी हैं ? हमारे सांसदों के इन प्रश्नों में उनका भयंकर भोलापन छिपा हुआ है| जब अदालत या चुनाव अधिकारियों को उम्मीदवारों को रोकने का अधिकार दिया जाता है तो उसका मतलब यह नहीं कि उन्हें सांसदों को चुनने या न चुनने का अधिकार मिल जाता है| सांसद तो अपनी लोकपि्रयता के आधार पर जनता द्वारा ही चुने जाएँगे लेकिन वे सांसद होने के योग्य हैं या नहीं, यह जाँचने का अधिकार अदालत या कानून का पालन करवानेवालों को होना चाहिए या नहीं ? दौड़-प्रतियोगिता में वही जीतता है, जो तेज़ दौड़ता है लेकिन दौड़ में शामिल होने के पहले ड्रग्स का सेवन करनेवालों को रोका जाना चाहिए या नहीं ? दाऊद इब्राहीम या डाकू मानसिंह या हर्षद मेहता, कोई भी चुनाव जीत सकता है लेकिन असली प्रश्न यह है कि किसी उम्मीदवार में चुनाव लड़ने की न्यूनतम योग्यता भी है या नहीं ? हारना-जीतना तो बाद की बात है| क्या चुनाव जीतने की कुव्वत ही उम्मीदवार की एक मात्र अर्हता है ? यह एक मात्र अर्हता ही सारी बुराइयों की जड़ है| पार्टी के नेता इसी आधार पर अपराधियों को भी लड़ा देते हैं| भारतीय राजनीति में जातिवाद, सम्प्रदायवाद और पैसेवाद का बोलबाला भी इसीलिए है| यदि अपराधी के पास पैसा है, बहुसंख्यक मतदाताओं की ज़ात है, मज़हब है या दबदबा है तो उसे चुनाव लड़ने से कौनसी पार्टी रोक सकती है ? सच्चाई तो यह है कि उसके साधनों का इस्तेमाल पार्टी के अन्य उम्मीदवारों के लिए भी होता है| ऐसे में अपराधियों को क्या जनता रोक सकती है ? जनता उन्हें तब ही रोक पाती है, जब उनके खिलाफ़ कोई जबर्दस्त उम्मीदवार हो| अन्यथा उनके जीतने की संभावना सबसे अधिक हो जाती है, क्योंकि ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’ की उक्ति चरितार्थ हो जाती है और कभी-कभी अपराधियों को उनके स्वजातिजन ‘महानायकों’ में परिणत कर देते हैं| ऐसे में केवल कठोर कानूनी प्रावधान ही उन्हें संसद में घुसने से रोक सकते हैं| राजनीतिक दल और नेता इन अपराधी तत्वों के सामने कितने असहाय हैं, यह इसी से सिद्घ होता है कि सर्वदलीय बैठक में किसी भी दल ने अपराधियों को चुनाव से वंचित करने के लिए सत्याग्रह नहीं किया| सारी बैठक कुछ ऐसी खामोशी में संपन्न हो गई जैसे कि सारे नेता कोई मातम मनाने इकठ्रठे हुए हों| मंत्रिामंडल की गुप्त बैठकों की जितनी बातें प्रकाश में आ जाती हैं, उतनी भी इस बैठक की नहीं आईंं ! यह है, हमारे नेताओं का भाईचारा ! कितने सज्जन और सभ्य हैं, हमारे नेतागण कि अपने मामले वे सहज सर्वसम्मति से चटपट निपटा लेते हैं| अब सर्वसम्मति से वे जो विधेयक ला रहे हैं, वह उनकी लूट-पाट की तो रक्षा कर लेगा लेकिन उनके मान-सम्मान को चूर्ण-विचूर्ण कर देगा|
पेट्रोल पम्पों की लूट पर पानी फेरकर जिस हिम्मत का परिचय प्रधानमंत्री ने अभी दिया, वही हिम्मत वह चुनाव-सुधार के मामले में क्यों नहीं दिखाते ? उनकी पार्टी के पेट्रोल पम्पधारी सांसदों या विधायकों ने उनका क्या बिगाड़ लिया ? चोर के पाँव नहीं होते| अगर ज्यादातर भाजपा सांसद भी पम्पों की लूट में सीधे फँसे होते तो वे भी प्रधानमंत्री को उलटने की हिमाकत नहीं कर सकते थे| अँधेरे के हिमालयों को उड़ाने के लिए भी छँटाक भर का दीपक ही काफी होता है| भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत तो दीपक की नहीं, सूर्य की होती है| यदि प्रधानमंत्री हिम्मत दिखाएँ तो वे ऐसा विधेयक संसद में अवश्य ला सकते हैं, जो न सिर्फ अपराधियों को चुनाव-मैदान में ही न उतरने देगा बल्कि प्रत्येक उम्मीदवार की शैक्षणिक योग्यता और निजी सम्पत्ति की घोषणा करवाकर ही रहेगा| राजनीति के पवित्रीकरण का इससे बड़ा उपाय फिलहाल और क्या हो सकता है ? यदि प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर अड़ जाएं और सहयोगी दल उनका साथ छोड़ दें तो भी क्या होगा ? ज्यादा से ज्यादा संसद भंग हो जाएगी| ऐसे में भाजपा 400 सीटें जीतकर लौटेगी| क्या अटल जी यह जुआ खंलेंगे ?
पेट्रोल पम्प घोटाले ने यह सिद्घ किया है कि राजनीति के हम्माम में सभी नंगे हैं| पकड़ में आ जाएँ तो नंगे हैं, वरना सभी शेरवानियोंं में सजे-धजे दिखाई पड़ते हैंं| नंगई को पकड़ना जरूरी है लेकिन उसके होने को रोकना उससे भी ज्यादा जरूरी है| चुनावी उम्मीदवारों ही नहीं, पार्टी अधिकारियों की सम्पत्ति की भी घोषणा होने लगे तो 75 प्रतिशत राजनीतिज्ञ यह धंधा छोड़ भागेंगे| यह तथ्य कितना रोचक है कि सर्वदलीय बैठक में एक नेता ने भी यह नहीं कहा कि वह अपनी खुद की या अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की सम्पत्ति की घोषणा के लिए तैयार है| यह मार्क्सवादियों ने भी नहीं कहा जो सैद्घांतिक तौर पर निजी सम्पत्ति के विरुद्घ हैं| जैसे कार्ल मार्क्स कहा करते थे, दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ, आज भारत के सारे नेता एक हो गए हैं| इस मुद्दे पर एक हो गए हैं कि उनकी सम्पत्ति पर कोई उंगली नहीं उठाएगा और उनके मददगारों को, चाहे वे अपराधी ही क्यों न हों, संसद में घुसने से नहीं रोकेगा| नेताओं की यह एकता कितनी मनोहारी है ? क्या किसी मज़दूर यूनियन में भी ऐसी जबर्दस्त एकता आपने कभी देखी है ? सांसदों की इस एकता ने यह सिद्घ कर दिया है कि ‘कॉमरेड’ और ‘स्वयंसेवक’, सभी के चेहरे एक-जैसे हैं, केवल उनके नकाब अलग-अलग हैं| पता नहीं, भारत की जनता इन नेताओं के नकाब कब उलटेगी ?
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