Navbharat Times, 3 Jan 2008 : बिलावल के कमजोर कंधों पर बेनजीर का बोझ आखिर क्यों आया? इस मई के आखिरी सप्ताह में ही बिलावल ने अपनी स्कूली पढ़ाई खत्म की थी और उसे ऑक्सफर्ड भेजने की तैयारी चल रही थी। बेनजीर के जीवन को गंभीर खतरा है, यह हम सब को पता था, लेकिन बिलावल पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष बन जाएंगे, इसकी कल्पना किसी को नहीं थी। बिलावल पार्टी अध्यक्ष बन गए हैं, यह खबर निजी तौर पर मुझे अच्छी लगनी ही थी, लेकिन इसने यह सोचने के लिए भी मजबूर कर दिया कि यह परिवारवाद की परंपरा दक्षिण एशिया में ही इतनी अधिक प्रचलित क्यों है?
सबसे पहले इसी प्रश्न को लें। भारत ही नहीं, कोरिया, फिलिपीन्स और ताइवान जैसे एशियाई देशों में भी हम वंशवाद के बीज देखते हैं और अमेरिका जैसे उन्नत और लोकतांत्रिक देश में रूजवेल्ट, केनडी और क्लिंटन जैसे परिवारों की पकड़ राजनीति पर रही है। लेकिन दक्षिण एशिया में परिवारवाद जिस जोर-शोर से लहलहा रहा है, उस तरह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में दिखाई नही पड़ता। एशिया के जिन देशों के नाम ऊपर गिनाए गए हैं, वहां या तो नाममात्र का लोकतंत्र रहा है या परिवारवाद बादल के एक टुकड़े की तरह आया और जल्द ही विदा हो गया। अमेरिका में कुछ परिवारों का रुतबा लंबे समय तक जरूर चलता रहा, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी राष्ट्रपति या पार्टी प्रमुख के मरने या हटने पर उसके परिवार के किसी व्यक्ति को उसका उत्तराधिकारी बना दिया गया हो। यदि रूजवेल्ट परिवार के दो सदस्य राष्ट्रपति बने और अब क्ंलिटन परिवार के बनेंगे, तोउसके पीछे राजनीतिक मंजाई-घिसाई की लंबी प्रक्रिया होती है। हमारे दक्षिण एशियाई देशों में तो प्रधानमंत्री के पद ‘इंस्टेंट कॉफी’ की तरह परोस दिए जाते हैं। श्रीलंका में 1959 में जैसे ही प्रधानमंत्री भंडारनायक की हत्या हुई, उनकी गृहस्थिन पत्नी श्रीमावो को प्रधानमंत्री बना दिया गया। उनके बाद उनकी बेटी चंद्रिका और बेटा अनूर राजनीति के शीर्ष पर पहुंच गए। बांग्लादेश में बेगम खालिदा और हसीना वाजिद भी इसी प्रक्रिया की उपज हैं। नेपाल का कोइराला परिवार ही नहीं, सदभावना पार्टी के गजेंद्रनारायण सिंह के परिवार ने भी अपनी पकड़ बना रखी है। पाकिस्तान में पहले फातिमा जिन्ना, फिर बादशाह खान और अयूब खान के बेटे, जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और अब बेनजीर के बेटे के सिर ताज रख दिया गया है। इतना ही नहीं, नवाज शरीफ की पत्नी कुलसुम उनकी अनुपस्थिति में पार्टी चला ही रही थीं। मियां साहब जब प्रधानमंत्री थे तो उनके छोटे भाई शाहबाज पंजाब के मुख्यमंत्री थे। अब उनके बेटे हमजा संसद का चुनाव लड़ रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष चौधरी शुजात हुसैन के छोटे भाई परवेज पंजाब के मुख्यमंत्री हैं और उनका बेटा भी चुनाव में खम ठोक रहा है।
भारत की क्षेत्रीय पार्टियां तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां ही बन चुकी हैं। पार्टी पदों के लिए निष्पक्ष चुनाव नहीं होते और पार्टी कोष उस परिवार की निजी तिजोरियों की तरह होते हैं। जो नेता लोकतंत्र की ध्वजा उठाए रहते हैं, उनकी पार्टियां राजनीतिक सामंतवाद के क्रूर उदाहरण बनकर रह गई हैं। न पार्टी के अन्य नेता आपत्ति करते हैं, न जनता उन्हें रद्द करती है। ऐसा लगता है मानो भारत के लोकतंत्र की छत सामंतवाद के खंभों पर ही खड़ी हुई है। आखिर इसका कारण क्या है?
इसका पहला कारण तो भारत का मूर्तिपूजक चित्त है। भारत के लोग, चाहे वे किसी भी मजहब और जाति के हों, मूर्तिपूजा उनकी नस-नस में बसी है। क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं कि पाकिस्तान जैसे देश में बेनजीर के चित्र को वही सम्मान मिल रहा है, जो भारत में देवी-देवताओं के चित्रों को मिलता है? पत्थर को भगवान मानकर उसकी पूजा करनेवाला व्यक्ति मूलत: प्रतीकवादी होता है। राजीव गांधी या राबड़ी देवी की जगह यदि किसी पत्थर की बटिया को भी बना दिया जाता तो दिल्ली और पटना में उसकी पूजा होने लगती। भारत का यह अंधविश्वासी मन बहुत भोला है। जो प्रतीकवादी है, वह तर्कवादी कैसे हो सकता है? तर्कवादी तो पत्थर को भगवान क्या मानेगा, वह भगवान को भगवान मानने के पहले भी हजार तर्क करेगा। तर्क को ताक पर रखने का चलन दुनिया के लगभग सभी मजहबों में है, बल्कि हिंदू धर्म से कुछ ज्यादा ही है। दक्षिण एशिया की खूबी यह है कि यहां जितने भी अन्य मजहबों के लोग हैं, वे सब ‘पूर्व हिंदू’ ही हैं। उन्होंने अपने मजहब बदल लिए, लेकिन अपने मूर्तिपूजक चित्त को नहीं बदल पाए।
दूसरा कारण है, भारत का जातिवाद। जाति परिवार का ही बड़ा स्वरूप है। पहले हमारे यहां जातीय पंचायतें होती थीं, अब जातीय पार्टियां होती हैं। जातियों का नाम लेने में झेंप आती है तो पार्टियां अपने माथे पर जरा आधुनिक बिल्ले चिपका लेती हैं, जैसे दलित, पिछड़ा, किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि। इन पार्टी्ज में व्यक्ति का कोई महत्व नहीं होता। नेता की इच्छा ही आदेश होती है। ये पार्टियां सामूहिक मतदान यानी भेड़चाल के दम पर जिंदा रहती हैं। इन पार्टी्ज की राजनीति व्यक्तिगत स्वविवेक नहीं, ‘सामूहिक संवेग’ के आधार पर चलती है। इसीलिए उत्तराधिकार का सवाल भी बिना कुछ सोचे-विचारे ही हल हो जाता है।
तीसरा कारण है पार्टी नेताओं के पास छिपा हुआ अकूत धन। जो भी नेता पांच-दस साल पार्टी या सरकार में अहम पद पर होता है, उसके पास बेहिसाब पैसा इकट्ठा हो जाता है। इसे वह पार्टी के किसी अन्य नेता को छूने भी नहीं देता। उस गुप्त राशि पर उस नेता के परिवार के लोग ही कुंडली मारे बैठे रहते हैं। यदि पार्टी को पैसे चाहिए तो झक मारकर नेता के घरवालों को ही वारिस घोषित करना पड़ता है।
चौथा कारण है नेता के निजी परिवार को मिलने वाला अनावश्यक प्रचार। यह प्रचार परिवारवादी राजनीति को आगे बढ़ाता है। पार्टी और सरकार के योग्य और अनुभवी नेताओं पर मीडिया उतना ध्यान नहीं देता, जितना बड़े नेताओं के रिश्तेदारों पर। किसी भी नेता के मरने के बाद उसके रिश्तेदारों के नाम ही सबसे ज्यादा उछाले जाते हैं।
पांचवां कारण है जनता की नादानी। किसी नेता की मृत्यु या हत्या के बाद सहानुभूति और श्रद्धा का ऐसा ज्वार उमड़ता है कि आम लोग सही और गलत, शुभ और अशुभ का अंतर भूल जाते हैं। वे आंख मींचकर मतदान करते हैं। इसलिए बेनजीर की बड़ी कुर्सी पर छोटे से बिलावल को बिठा दिया जाता है।
( लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के गहरे जानकार हैं)
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