नवभारत टाइम्स, 8 फरवरी 2008 : लालकृष्ण आडवाणी ने जो किया, अगर वह वे नहीं करते तो क्या करते? क्या वे बेनज़ीर भुट्रटो की तरह अपनी जि़द पर अड़े रहते और भारत में वह होने देते, जो पाकिस्तान में भी नहीं हुआ? बेनज़ीर का हत्यारा कौन है, यह अभी तक पता नहीं चल पाया और यदि पता चल भी जाता तो क्या होता? सारा मामला दो-चार व्यक्तियों तक सिमट कर रह जाता| हत्यारों को किसी बड़ी जमात या संप्रदाय या इलाके से जोड़ना असंभव होता| उन्हें आतंकवादी मानकर उनके साथ वही बर्ताव किया जाता जो भारत की संसद पर हमला करनेवालों या कंधार विमान अपहरणकर्ताओं के साथ किया गया है| लेकिन आडवाणी की रैली पर प्रहार होते ही सारा मामला गोधरा-कांड में बदल जाता या इंदिरा गांधी हत्या-कांड में बदल जाता| सारा भारत गुजरात बन जाता| प्रांतीय सरकारों के साथ-साथ केंद्र सरकार भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती| भारत वे दृश्य देखता, जो उसने अब से 60 साल पहले देखे थे| हमारी 60 साल की उपलब्धियों पर पानी फिर जाता|
इसीलिए केन्द्र सरकार ने बिल्कुल ठीक किया कि अपने सुरक्षा सलाहकार को आडवाणीजी के पास भेजा और उन्हें आगाह किया| उनकी सुरक्षा का विशेष इंतजाम किया जा रहा है| इस पहल को राजनीतिक दॉव मानना गलत होगा| आडवाणी भारत के गृहमंत्र्ी और उप-प्रधानमंत्र्ी रह चुके हैं| उन्हें पता है कि निराधार संदेहों और साधार संकेतों में क्या अंतर है| आडवाणी इतने भोले नहीं हैं कि किसी अफसर के बहकावे में आकर वे अपनी राजनीतिक रैलियों को स्थगित कर दें| यदि नारायणन की सलाह को उन्होंने अपने पार्टी नेताओं के सामने रखा है तो उसके पीछे ठोस कारण हैं| पार्टी ने रैलियों को स्थगित करने का फैसला किया है तो मानना पड़ेगा कि उसने राजनीतिक दूरंदेशी का परिचय दिया है| अपने तात्कालिक लाभ को दरकिनार करके उसने सुदीर्घ राष्ट्रहित की रक्षा की है| यदि भाजपा क्षुद्र राजनीति करना चाहती तो वह कह सकती थी कि कॉंग्रेस राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का बेजा इस्तेमाल कर रही है| वह हमारे नेता की रैलियों से डर गई है| वह रैली का मुकाबला रैलियों से करने की बजाय दॉंव-पेंचों से कर रही है| यह भारतीय लोकतंत्र् की परिपक्वता का परिचायक है कि इस नाज़ुक मुद्दे पर देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों ने एक-जैसा रवैया अपनाया है| किसी भी लोकतंत्र् के दो प्रमुख दल रथ के दो पहियों की तरह होते हैं| पहियों में प्रतिस्पर्धा हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी पता होता है कि एक के बिना दूसरा बेकार है| जिस रथ के दोनों पहिए जिम्मेदाराना ढंग से काम कर रहे हों, उसे आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है?
पाकिस्तान में इसी जिम्मेदाराना राजनीति का अभाव है| बेनज़ीर भुट्रटो को शक था कि मुशर्रफ सरकार उन्हें मरवाना चाहती है| उन्हें इस बात पर भी शक था कि उनकी जान को खतरा है| वे सोचती थी कि यह उनको डराने के लिए कहा जा रहा है| इसीलिए अक्तूबर के कराची हादसे के बावजूद वे लगातार रैलियॉं करती रहीं| उधर मुशर्रफ सरकार को यह भरोसा नहीं था कि बेनज़ीर जीतने के बाद उसका साथ देगी| उन्हें डर था कि वे जीतकर नवाज शरीफ़ से हाथ मिलाऍंगीं और दो-तिहाई बहुमत से मुशर्रफ को बेदखल कर देंगी| इस पारस्परिक संदेह ने आज पाकिस्तानी राजनीति को चौराहे पर ला खड़ा किया है| ठीक इसके विपरीत भारतीय राजनीति ने पारस्परिक सदभाव और सौमनस्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है| सद्रभाव की ये बूदे लहर क्यों नहीं बनतीं? ये केवल नेताओं की व्यक्तिगत सुरक्षा तक ही क्यों सीमित हैं? देश में फैली गरीबी, विषमता, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि मुद्दों को हल करने में भी यही सदभाव क्यों दिखाई नहीं पड़ता? पक्ष और प्रतिपक्ष एक-दूसरे पर ब्रेक लगाऍं, यह तो ठीक है लेकिन वे एक दूसरे की टॉंग खींचे, यह क्यों जरूरी है?
भाजपा की रैलियों के स्थगन को लेकर पक्ष और प्रतिपक्ष में आई एकरूपता स्वागत योग्य है लेकिन कुछ चटखारे लेनेवाले तत्व इस स्थगन का मज़ाक भी उड़ा रहे हैं| उनका कहना है कि आडवाणी को पहले भी धमकियॉं मिली थीं, लेकिन उन्होंने वे रैलियॉं रद्द क्यों नहीं की? ये रैलियॉं क्योंकि आतंकवाद-विरोधी थीं, इसलिए क्या वे डर के मारे रद्द नहीं की गई हैं? भाजपा के ही दूसरे नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने तो अपनी रैली का समापन श्रीनगर में किया था और उन्होंने लाल-चौक में तिरंगा फहराया था| यदि जोशीजी आतंकवाद की मांद में घुसकर सर्चलाइट जला सकते थे तो आडवाणीजी को देश भर में घूमने पर भी संकोच क्यों हैं? इसका सीधा-साधा जवाब यह है कि आडवाणी इस समय सिर्फ पार्टी नेता नहीं हैं, वे संभावित प्रधानमंत्र्ी हैं, जैसे कि बेनज़ीर भुट्रटो थीं और इसके अलावा उनकी छवि को सांप्रदायिक रंग में रंग दिया गया है| हम यह भी नहीं भूलें कि डॉ. जोशी को प्रधानमंत्र्ी नरसिंहराव ने कश्मीर जाते समय असाधारण सुरक्षा प्रदान की थी| जाहिर है कि उस तरह की सुरक्षा आडवाणी की उन रैलियों को नहीं दी जा सकती, जिनमें हजारों-लाखों लोग हिस्सा लेते| आडवाणी पर कोयम्बतूर में हमला हुआ था और उनके विरूद्घ कई अन्य साजिशें पकड़ी भी गई हैं| ऐसी स्थिति में रैली-स्थगन को अनुभवजन्य सही कदम माना जा सकता है| यह भी ध्यान रहे कि रैलियॉं रद्द नहीं की गई हैं, सिर्फ कुछ समय के लिए स्थगित की गई हैं|
रैलियों के स्थगन के लिए संसद के सत्र् की व्यस्तता को कारण के रूप में पेश करना अनावश्यक है| जो स्पष्ट कारण है, उसे स्वीकार करने में किसी की नाक नीची नहीं होती| इसके अलावा अभी चुनाव काफी दूर हैं| ये रैलियॉं चुनाव के नतीजों पर सीधा असर डालतीं, ऐसा भी नहीं है| भाजपा में आडवाणी के अलावा भी कई नेता हैं| स्वयं अध्यक्ष और वे नेता देश भर में रैलियॉं आयोजित क्यों नहीं करते? यदि सरकार सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त करे तो रैलियॉं अवश्य आयोजित की जाऍं| अब रैलियॉं करने के साथ-साथ यह सोचने का भी मौका है कि रैलियॉं आखिर क्यों आयोजित की जाऍं? हर रैली पर करोड़ों रूपया क्या सिर्फ इसीलिए खर्च कर दिया जाए कि शासन की निंदा की जाए या प्रशंसा की जाए? इन रैलियों को समाज-परिवर्तन, जन-प्रेरणा, लोक-शिक्षण, लोक-सहयोग, लोक-अभियान, सविनय अवज्ञा आदि के लिए क्यों नहीं इस्तेमाल किया जाता है? हमारी राजनीतिक रैलियॉं सिर्फ चुनावी नौटंकियॉं बनकर क्यों रह जाती हैं?
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