नव भारत टाइम्स, 17 नवंबर 2003। यह गनीमत है कि श्रीलंका में खून की नदियॉं नहीं बहीं| ऐसा नहीं है कि वहॉं सिर्फ सिंहलों और तमिलों के बीच ही तलवारें खिंचती हैं| कई बार सिंहलों और सिंहलों के बीच इतना उत्पात मचता है कि वह भारत की चिन्ता का विषय बन जाता है| 1971 में ‘जातीय विमुक्ति पेरामून’ ने चंदि्रका कुमारतुंग की माता प्रधानमंत्री सिरीमावो बंडारनायक का लगभग तख्ता ही उलट दिया था| सिरिमावो के आर्त्तनाद पर इंदिराजी ने सैन्य-सहायता की और सिरिमावो को सिंहल उग्रवादियों से बचाया| इन्हीं सिंहल उग्रवादियों के षड़यंत्र के फलस्वरूप चंदि्रका के पिता प्रधानमंत्री सालोमन बंडारनायक की 1959 में हत्या हुई थी| इस बार राष्ट्रपति चंदि्रका कुमारतुंग और प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ के समर्थकों में खूनी भिड़ंत हो सकती थी, क्योंकि चंदि्रका ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए रनिल के रक्षा, गृह और सूचना मंत्री को बर्खास्त कर दिया, संसद को स्थगित कर दिया, आपात्काल की घोषणा कर दी, जाफना मार्ग बंद कर दिया तथा जगह-जगह फौजे अड़ा दीं| यह सब उन्होंने 4 नवंबर को किया, जबकि प्रधानमंत्री रनिल वाशिंगटन डी.सी. में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश से मिल रहे थे|
प्रश्न यह है कि चंदि्रका ने यह सब क्यों किया और इसके परिणाम क्या होंगे? श्रीलंका की आंतरिक राजनीति, सिंहल-तमिल संबंध और भारत की सुरक्षा पर इस कदम का क्या असर होगा ? चंदि्रका के इस कदम की भारत ने भर्त्सना क्या, आलोचना भी नहीं की| इसका कारण क्या है ?
राष्ट्रपति के तौर पर चंदि्रका को वे कदम उठाने के पूरे अधिकार हैं, जो उन्होंने उठाए हैं, यह श्रीलंकाई उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है लेकिन टकराव के इस खतरनाक मार्ग पर आखिर वे क्यों चल पड़ीं ? आपात्काल की घोषणा करते समय उन्होंने जो सफाई पेश की, वह यह है कि लिट्टे ने 31 अक्तूबर को जो शांति-प्रस्ताव प्रस्तुत किया है, वह श्रीलंका को अन्ततोगत्वा दो टुकड़ों में बॉंट देगा| चंदि्रका का आरोप है कि रनिल शांति के मसीहा बनने की फि़राक में हैं| इसीलिए वे ऐसे खतरनाक प्रस्ताव पर भी लिट्टे से बात करने को तैयार हैं| क्या चंदि्रका का यह आरोप सही है ? इसमें शक नहीं कि रनिल शांति-वार्ता के प्रति बहुत उत्साहित हैं| उनके प्रयत्नों से ही श्रीलंका की सरकार और लिट्टे के बीच युद्घ-विराम कायम है और शांति-वार्ता चल रही है| नार्वे की मध्यस्थता को भी रनिल का प्रोत्साहन प्राप्त है| लेकिन यह कहना तर्कसंगत नहीं मालूम पड़ता कि रनिल श्रीलंका के दो टुकड़े करवाने में शामिल हैं, क्योंकि स्वयं रनिल विक्रमसिंघ ने लिट्टे के प्रस्ताव को अतिवादी और अव्यावहारिक बताया है| जो प्रधानमंत्री तमिल बागियों से अपनी वार्ता भंग नहीं करना चाहता, वह इससे ज्यादा क्या कहेगा ? उनकी भर्त्सना करके वार्ता को जिन्दा कैसे रखा जा सकता था ? युद्घ-विराम इसीलिए छह माह से चला आ रहा है कि वार्ता या वार्ता का नाटक जारी है| वार्ता इतनी जरूरी है कि आपात्काल थोपते वक्त चंदि्रका के प्रवक्ता को भी कहना पड़ा कि तमिलों से वार्ता जारी रहेगी| कोलम्बो में पैदा हुए संकट के कारण वार्ता की दाल पतली हो गई है, यह स्वयं प्रभाकरन ने नार्वेजियाई कूटनीतिज्ञों से कहा है| श्रीलंकाई नेताओं से मिलने के बाद नार्वे के उप-विदेश मंत्री विदर हेलगेसन ने फिलहाल शांति-वार्ता स्थगित करने की घोषणा कर दी है| सिंहलों की इस फूट से आखिर फायदा किसे मिलेगा ?
इसमें संदेह नहीं कि ‘लिट्टे’ ने 31 अक्तूबर को अपना जो शांति-प्रस्ताव रखा है, वह स्वतंत्र ईलम (तमिल राष्ट्र्र्र ) का पूर्व-राग है| उस प्रस्ताव के अनुसार श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी प्रान्तों पर एक अंतरिम सरकार का आधिपत्य रहेगा| यह क्षेत्र पूरे देश के आधे से भी ज्यादा है| संपूर्ण समुद्र-तट के अधिकांश भाग पर भी उसका ही अधिकार होगा| तमिलों की वह अंतरिम सरकार प्रशासन, शांति और व्यवस्था, कराधान, पुनर्वास, पुलिस प्रबंध आदि सभी कार्यों के लिए जिम्मेदार होगी| उसकी अपनी न्याय-व्यवस्था होगी| तात्पर्य यह कि वह जाफना में एक समानांतर सरकार होगी| यदि पॉंच साल में कोलम्बो और जाफना में कोई समझौता नहीं हुआ तो यह अंतरिम सरकार स्वतंत्र चुनाव करवाएगी, जो लिट्टे सिद्घांतशास्त्री एन्टन बालसिंघम के मतानुसार ‘आन्तरिक आत्म-निर्णय’ होगा| यदि कोलंबो और जाफना में कोई विवाद हुआ तो उसका फैसला हेग का अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय करेगा| जाहिर है कि यह प्रस्ताव लंका को तोड़नेवाला है| इसीलिए श्रीलंका के चारों बौद्घ संप्रदायों के ‘महानायक’ (मुखिया) और उग्र राष्ट्रवाद के प्रबल प्रवक्ता ‘जाविमू’ के नेता चंदि्रका के साथ हैं जबकि संसद का बहुमत रनिल के साथ है| चंदि्रका के चंडीत्व के बावजूद वे संसद को अपने पक्ष में नहीं कर सकीं| यदि वे दर्जन भर सांसदों को भी तोड़ लेतीं तो रनिल की सरकार गिर जाती लेकिन ऐसा नहीं हुआ| दूसरे शब्दों में चंदि्रका और रनिल याने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री में सीधी मुठभेड़ हो गई है और उनमें किसी की भी पराजय या विजय नहीं हो रही है| मामला अधर में लटक गया है| इसीलिए चंदि्रका ने आपात्काल उठा लिया है और दोनों में बातचीत शुरू हो गई है|
दूसरे शब्दों में यह मामला तमिलों का उतना नहीं है, जितना कि चंदि्रका और रनिल का है| दोनों हमउम्र नेता एक-दूसरे के घोर प्रतिद्वंद्वी हैं और दोनों एक-दूसरे को पटकनी लगाना चाहते हैं| यह विचित्र संयोग है कि इस ताज़ा संविधान के पिछले 25 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है कि राष्ट्रपति एक पार्टी का हो और प्रधानमंत्री दूसरी पार्टी का| श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से काफी अलग होते हैं| वहॉं राष्ट्रपति ध्वजमात्र नहीं है| वह भी सीधा चुना जाता है| राष्ट्रपति को प्रचंड शक्तियॉं रनिल की पार्टी के नेता जूनियस जयवर्द्घन ने ही प्रदान की थीं| यदि दो सर्वोच्च पदों पर विरोधी दलों के नेता विराजमान हों तो वे एक-दूसरे की टॉंग खींचे बिना कैसे रह सकते हैं ? वे नेता हैं, साधु नहीं हैं| रनिल ने पिछले दिनों कोशिश की थी कि राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों पर कैंची चला दें| संसदीय बहुमत का फायदा उठाऍं लेकिन वे विफल रहे, क्योंकि एक तो पर्याप्त संख्या में वे सांसदों को तोड़ नहीं पाए और न्यायालय ने भी उनके प्रयत्न को गलत बताया| अब अगले साल राष्ट्रपति के चुनाव भी हैं| इसीलिए दोनों महत्वाकांक्षी नेता अपना-अपना खेल खेल रहे हैं|
इस खेल में श्रीलंका का नुक्सान हो रहा है| सिंहलों की फूट तमिल बागियों का विटामिन है| वे सारी दुनिया को बता रहे हैं कि सिंहल लोग अत्याचारी हैं, शक्ति-पिपासु हैं और तमिलों के विनाश पर उद्यत हैं| श्रीलंका-सरकार की फूट और कमजोरी का लाभ उठाकर वे अपनी फौज, धनागार और जनाधार को अधिक मजबूत बनाते चले जाऍंगे और कई देशों से कहेंगे कि वे उन्हें उसी तरह मान्यता दे दें, जैसे उन्होंने फलस्तीनियों को दे रखी थी| इस बीच उनकी आतंकवादी गतिविधियॉं भी बढ़ती चली जाऍंगी| भारत के लिए यह गहरी चिंता का विषय है| इसीलिए भारत चंदि्रका और रनिल के दलदल में नहीं फॅंसा| यदि भारत के दक्षिण में स्वतंत्र तमिल राष्ट्र बन गया तो वह भारत का स्थायी सिरदर्द बन जाएगा| आजकल भी लिट्टे के सैनिक भारत-श्रीलंका जल-मार्ग पर कब्जा किए रहते हैं| तस्करी और शस्त्र-यातायात मुक्त रूप से चल रहे हैं| तमिलनाडु के आंतरिक मामलों में भी ये ही तत्व दखलंदाजी करते रहे हैं| राजीव गॉंधी की हत्या की हिमाकत भी इन्होंने ही की थी| राजीव गॉंधी के ज़माने में हमने कुछ गलत पासे फेंक दिए| सारी चौपड़ ही उलट गई| सिंहल तो हमारे खिलाफ थे ही, तमिल भी हमारे जानी दुश्मन बन गए| ऐसे में भारत की तटस्थता स्वाभाविक है लेकिन यह हमारा स्थाई भाव नहीं बनना चाहिए| नार्वेजियाई कूटनीतिज्ञों को सारी लगाम थमाकर अगर हम सो गए तो बस सोते ही रह जाऍंगे|
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