Hindustan, 1 Nov 2002 : सबसे पहला प्रश्न तो यही है कि भाजपा-गठबंधन सरकार की उम्र क्या मानें ? तीन साल या साढ़े चार साल ? इस सरकार ने अक्तूबर में अपनी तीन-वर्षीय अवधि का उत्सव मनाया| प्रधानमंत्री लंदन में थे और रात देर से लौटनेवाले थे, इसलिए 13 अक्टूबर की शाम को ही उप-प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने पत्रकार-परिषद्र बुलाई और अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाया| उन्होंने तीन साल कहा लेकिन वास्तव में इस सरकार ने अक्तूबर में साढ़े चार साल पूरे किए है| इस सरकार ने पहली बार मार्च 1998 में शपथ ली थी और अप्रैल 99 में वह एक वोट से गिर गई थी| छह माह वह कामचलाऊ सरकार की तरह चलती रही और अक्तूबर’ 99 में उसने दुबारा शपथ ली| इस कुल साढ़े चार वर्ष की अवधि में इस सरकार के मूल चरित्र में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ| दोनों अवधियों में भाजपा का पलड़ा भारी रहा, दोनों में प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी रहे, दोनों में असली कर्ता-धर्ता ब्रजेश मिश्र रहे, दोनों में खास-खास मंत्र्िागण किसी न किसी रूप में बराबर बने रहे, दोनों चुनावों में घोषणा-पत्र लगभग एक-जैसा रहा, दोनों सरकारों के विरोधी दल एक-जैसे रहे| जयललिता अलग हट गई थीं लेकिन वे अब दुबारा नज़दीक आती जा रही हैं| ममता के जाने या आने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता| श्री आडवाणी दूसरी अवधि में उप-प्रधानमंत्री जरूर बने लेकिन यह कोरी औपचारिकता थी| उसी हैसियत में वे पहले भी काम करते ही रहे हैं| दोनों अवधियों में भाजपा-गठबंधन सरकार की नीतियों में भी कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है| ऐसी स्थिति में इस सरकार की उम्र तीन साल नहीं, साढ़े चार साल ही मानी जानी चाहिए| साढ़े चार साल याने पूरी
अवधि ! पाँच साल की अवधि पूरी होने के छह माह पहले से चुनाव के ढोल बजने लगते हैं| अत: अब हमें इस सरकार का मूल्यांकन यह मानकर करना चाहिए कि इसने अपनी एक सामान्य अवधि लगभग पूरी कर ली है|
क्या यह सत्य नहीं कि यह पहली गैर-काँग्रेसी सरकार है, जो इतनी लम्बी अवधि तक चली है ? इसके पहले जितनी भी गैर-काँग्रेसी सरकारें बनीं, उनमें से कोई भी ढाई साल से ज्यादा जिंदा नहीं रही| कुछ तो चार-छह माह में ही ढेर हो गई| मोरारजी, चरणसिंह, विश्वनाथप्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल के प्रधानमंत्र्िात्ववाली सरकारों की तुलना में वाजपेयी-सरकार सुदीर्घतम है| निकट भविष्य में भी इसके गिरने की आशंका दिखाई नहीं पड़ती| इतना ही नहीं, अब से पहले जो छह गैर-काँगे्रसी सरकारें बनीं, उन सबके नेता अपने जीवन में कभी न कभी काँग्रेसी रहे| दूसरे शब्दों में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सच्चे अर्थों में पहली गैर-काँग्रेसी सरकार है| इस सबसे लंबी गैर-काँग्रेसी सरकार को सफल कहें या असफल, अच्छी कहें या बुरी, महान कहें या निकृष्ट-यह दुविधा किसी भी विश्लेषक को पसोपेश में डाल सकती है|
कोई भी फतवा देने के लिए कुछ आधार जरूरी है| वह आधार क्या हो सकता है ? क्या किसी एक आधार की कसौटी पर भारत जैसे विशाल राष्ट्र की सरकार को कसा जा सकता है ? ऐसी कसौटी तो विपक्ष भी तय नहीं कर सकता और अगर तय कर दे तो क्या उसी कसौटी पर वह खुद की पूर्व सरकारों को भी कसवाना पसंद
करेगा ! ऐसी स्थिति में किसी सरकार का मूल्यांकन कई दृष्टियों से किया जा सकता है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि से किसी भी निष्कर्ष पर पहुँच सकता है|
सबसे पहली बात तो यही है कि यह सरकार 21 दलों के गठबंधन से बनी है| दोनों अवधियों में गठबंधन के सदस्यों की संख्या लगभग दो दर्जन रही है| दो दर्जन दलों को लगभग पाँच साल तक एक ही बग्गी में जोते रहना, कोई बच्चों का खेल नहीं है| इन दो दर्जन दलों में एक तरफ जार्ज फर्नांडीस और शरद यादव जैसे खुर्राट समाजवादी हैं तो दूसरी तरफ़ उग्र हिंदूवादी बाल ठाकरे भी हैं| इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर सिद्घांतवादी स्वयंसेवकगण मंत्री हैं तो पानी की तरह तरल नैतिकतावाले अजितसिंह भी हैं, उत्तर के हिंदीवादी घटक हैं तो दक्षिण के हिंदी-विरोधी दल भी हैं| क्या यह शिवजी की बरात नहीं है ? ये बाराती हिमालय पहुँचने के बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार सकते थे| एक-दूसरे के मूंड उड़ा सकते थे और भारतीय राजनीति को रक्त-कुंड में डुबो सकते थे लेकिन इन्हें सत्ता के पार्वती-लोक में टिकाए रखने का श्रेय आखिर किस भोले-भंडारी को है ? उसे ही जो ममता, समता, ललिता तथा आबू-बाबू सबके नखरे उठाता रहा है और जो भानमती के इस पिटारे को निरंतर सहेजता रहा है| तमाशा जारी रहे, इसके लिए भाजपा और उसके नेताओं ने क्या-क्या बर्दाश्त नहीं किया है| उन्होंने धारा 370, राम मंदिर और समान संहिता जैसे प्राण-प्यारे मुद्दे भी छोड़ दिए और दो-दो, चार-चार सदस्योंवाले दलों की भी चिरौरियाँ करते रहे| दूसरे शब्दों में इस सरकार ने भारत में एक नए धर्म को जन्म दिया| उसका नाम है, गठबंधन-धर्म ! केंद्र में गठबंधन-सरकार सफलतापूर्वक कैसे चलाना, यह अगर कोई सीखना चाहे तो उसे श्री अटलबिहारी वाजपेयी से सीखना होगा| सत्यम्र ब्रूयात्र, पि्रयम्र ब्रूयात्र| सत्य बोलो लेकिन पि्रय बोलो| न ब्रूयात्र, सत्यम्र अपि्रयम्र| लेकिन अपि्रय सत्य मत बोलो| जो मुशर्रफ जैसे को कड़वी दवा नहीं दे सकता, वह अपने साथियों को मीठी गोलियाँ देने के अलावा क्या कर सकता है| मीठी गोलियों के इस राजवैद्य ने जिस गठबंधन-धर्म का पालन किया है, वह भारत के आगामी इतिहास की मानक शैली भी बन सकता है| दूसरे शब्दों में इस सरकार ने अपने आचरण से अराजकता की उस आशंका को निर्मूल करना सिखा दिया है, जो गठबंधन-सरकारों के आनन-फानन टूटने पर फैल जाती है| इसमें संदेह नहीं कि कुर्सी प्रेम ही वह गोंद है, जो किसी भी गठबंधन को जोड़े रखता है लेकिन इस गोंद को सूखने नहीं देना भी तो एक कला है| क्या ही अच्छा होता कि पाकिस्तान और कश्मीर के दल भारत सरकार से सबक लेते और इतने लंबे समय तक अधर में लटके रहने की बजाय कोई बढि़या गठबंधन-सरकार तुरंत गठित कर लेते|
यह सरकार इतनी लंबी चलती रही, क्या यही इसकी उपलब्धि है ?यदि हां तो इसे नेहरू, इंदिरा, राजीव और नरसिंहराव की सरकार से बेहतर नहीं कह सकते| ये सरकारें वाजपेयी-सरकार से ज्यादा लंबी चली हैं| यद्यपि लंबा चलना बेहतर होने का एक मात्र पैमाना नहीं है| लेकिन इस सरकार की खूबी यह है कि यह लंबी तो चली ही है, इसने वैसा गच्चा अभी तक नहीं खाया, जैसा 1962 में नेहरू सरकार ने, आपात्काल में इंदिरा सरकार ने, बोफर्स में राजीव सरकार ने और हर्षद मेहता और हवाला में नरसिंहराव सरकार ने खाया था| ये घटनाएँ काँग्रेसी प्रधानमंत्र्िायों के गले का पत्थर बन गई थीं| ऐसा नहीं है कि इस सरकार का दामन बेदाग है| इस सरकार का भी गला खराब होता रहता है लेकिन इस गले के अंदर या बाहर अभी तक कोई पत्थर अटका या लटका नहीं है| बंगारू लक्ष्मण के रंगे हाथों को कौन भूल सकता है लेकिन वे पार्टी-अध्यक्ष थे, प्रधानमंत्री नहीं| इसके अलावा सभी पार्टियों के अध्यक्षों को पता है कि उन्हें भी रोज़ ही बंगारू बनना पड़ता है| काँग्रेसी प्रधानमंत्री अपना-अपना पत्थर गले में लटकाए हुए आखिर दम तक डटे रहे लेकिन बेचारे बंगारू को तत्काल जाना पड़ा| इसी प्रकार पेट्रोल पंप की बंदर-बाँट ने भी भाजपा-गठबंधन के चेहरे पर खरोंचें डाल दीं लेकिन प्रधानमंत्री के झपट्टे ने थोड़ा मरहम लगाया और उच्चतम न्यायालय के फैसले ने उस लहूलुहान चेहरे पर मोटा-सा मेक-अप चढ़ा दिया| इसमें शक नहीं कि नरेन्द्र मोदी का गुजरात भाजपा के माथे पर कलंक का टीका बन गया है लेकिन कहा नहीं जा सकता कि दो साल बाद होनेवाले आम चुनावों में इस टीके का रंग गहरा हो जाएगा या फीका पड़ जाएगा| आम जनता की याददाश्त कमज़ोर होती है और उसे अपने नून-तेल-लकड़ी से ही इतनी फुरसत कहाँ कि वह नरेन्द्र मोदियों का बोझ अपनी पीठ पर लादे रहे| इसके अलावा यह भी असंभव नहीं कि इतिहास का अंतराल गुजरात की जघन्यता को पतला कर दे| लोग अहमदाबाद को गोधरा के प्रतिशोध के रूप में देखने लगें| ऐसी स्थिति में इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि वर्तमान सरकार अभी तक उस कगार पर नहीं पहुँची है, जहाँ काँग्रेसी सरकारें अपने अंतिम दौर में पहुँच चुकी थीं| अभी यह नौबत नहीं आई है कि प्रधानमंत्री का चेहरा जैसे ही पर्दे पर उभरे और लोग अपना टी.वी बंद कर दें| अब भी अक्षरधाम हो या कश्मीर, लोग अपने नेताओं की बात कान लगाकर सुनना चाहते हैं| वे जानते हैं कि तिलों में तेल नहीं है लेकिन तेल का भरम तो अब भी है|
पिछले साढ़े चार साल में यह सरकार कौन-कौन से चमत्कारी काम कर चुकी है ? यह सरकार अगर कल गिर जाए और वर्तमान नेताओं के जीवन-काल में दुबारा न बने तो इतिहास इसका मूल्यांकन कैसे करेगा ? कौनसी ऐसी बाते हैं, जो लोगों को देर तलक याद रहेंगी ? शायद दो बाते हैं, जो अपूर्व हैं और जो याद भी रहेंगी| एक तो परमाणु बम का विस्फोट और दूसरा पाठ्रय-पुस्तकोें की सफाई| पहले काम ने भारत को महाशक्ति के पायदान पर चढ़ा दिया और दूसरे काम ने स्वस्थ समाज की नींव रख दी| ये दोनों काम अभी अधूरे ही हैं| अभी पूरे नहीं हुए है| भारत के परमाणु बम को शांति का ब्रह्मास्त्र बनना चाहिए था| परमाणु शक्ति की तौर पर भारत दुनिया के अन्य परमाणु-राष्ट्रों को निरस्त्रीकरण की राह पर चलाने की कोई कोशिश नहीं कर रहा| इतना ही नहीं, भारत के कारण पाकिस्तान-जैसा गैर-जिम्मेदाराना देश भी परमाणु-शक्ति बन गया है| इसी प्रकार कॉमरेडों द्वारा विकृत किए गए इतिहास को पाठ्रय-पुस्तकों में सँवारा तो गया है लेकिन अभी तक ऐसी पुस्तकें प्रकाश में नहीं आई हैं कि जिन्हें आदर्श कहा जा सके| डॉ. मुरली मनोहर जोशी के पास दृष्टि, तर्क और आत्म-विश्वास तीनों हैं लेकिन इनका अवतरण पाठ्रय-पुस्तकों में हो पाएगा या नहीं, कहना कठिन है| जहाँ तक परमाणु शक्ति का प्रश्न है, इंदिराजी का मुकुट अटलजी के माथे पर सुसज्जित हो गया है| परमाणु बम के मामले में इस सरकार के साहस की सराहना करनी होगी लेकिन कोई भी समग्र रणनीति केवल साहस के सहारे नहीं चलती| उसके संचालन के लिए दृष्टि, युक्ति और प्रयत्न तीनों आवश्यक हैं| बम फोड़े हुए चार साल से ज्यादा हो गए लेकिन इन तीनों पहलुओं के कहीं दर्शन नहीं हो रहे| अब भी दो साल का समय है| गठबंधन-सरकार चाहे तो पत्थर में फूल खिला सकती है|
इन दो उल्लेखनीय कार्योंं के अलावा इस सरकार ने कौनसा ऐसा काम किया है, जिसका उल्लेख किया जाए| काम तो कई किए हैं लेकिन वे सब काम ऐसे हैं, जो कोई अन्य सरकार भी करती ही| जैसे टी.वी. चैनल आठ से अस्सी हो गए, मोबाइल फोन दो लाख से 90 लाख हो गए, विदेशी मुद्रा कोश कई अरब का हो गया, अधमरे सरकारी कारखाने बिक गए, भरपेट अनाज पैदा हो गया, नई रेलें, सड़कें, कारें बनती रहीं, 30 लाख नए लोग साक्षर हो गए आदि-आदि| इन्हीं कामों के प्रचार पेलते हुए विज्ञापनों की आजकल भरमार है लेकिन आम आदमी को यह समझ नहीं पड़ रहा कि यह सरकार अन्य सरकारों से किस तरह अलग है ? इस सरकार ने वायदा किया था कि वह भूख, भय और भ्रष्टाचार से लड़ेगी| क्या वास्तव में उसने इस दिशा में एक इंच भी कदम आगे बढ़ाया है ? यदि बढ़ाया होता तो उसे अपनी उपलब्धियों के ढोल पीटने की जरूरत नहीं पड़ती| यदि कुछ जादू हुआ होता तो वह सिर चढ़कर बोलता| किसान, मजूदर और निम्न मध्यम वर्ग बुरी तरह पिस रहा है| गठबंधन सरकार के नेतागण जनता से उतनी ही दूर जा पड़े हैं, जितने कि राजवंशों के लोग होते हैं| यदि सरकार में कुछ दम-खम होता तो ज्यों-ज्यों इसकी उम्र बढ़ रही है, यह जवान होती जाती लेकिन अफसोस है कि यह साढ़े चार साल में ही बुढ़ा गई है| इस सरकार के चेहरे पर जो झुर्रियां उभर आई हैं वह गठबंधन के दलों के कारण नहीं, संघ परिवार के कारण है| संघ परिवार के सदस्य न केवल मंदिर, पश्चिमीकरण, धर्म-परिवर्तन आदि पर खुलकर बोल रहे हैं बल्कि विनिवेश के छत्ते में भी उन्होंने अपना हाथ डाल दिया है| सोनिया गाँधी, मुसलमानों, दलितों और ईसाइयों के बारे में बयान तो विहिप देती है लेकिन उसका खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ता है|
गठबंधन सरकार की इक्कीस पार्टियां क्या कर रही हैं ? चुनाव लड़ने और पके आमों को अपनी झोली में झेलने के अलावा उनकी क्या गतिविधियाँ हैं ? क्या उन्होंने कोई साक्षरता अभियान चलाया ? क्या उन्होंने सफाई और स्वावलंबन की चेतना फैलाई ? क्या उन्होंने अरबों के सरकारी खर्च पर कोई निगरानी रखी ? क्या उन्होंने शासक और शासित के बीच सेतु का कार्य किया ? असलियत तो यह है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में भय, भूख और भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं हुआ| दलित, अल्पसंख्यक, स्त्र्िायाँ, बच्चे-अब भी भय के शिकार हैं बल्कि यों कहा जाए तो बेहतर होगा कि वे पहले से अधिक भयभीत हैं| आतंकवाद पहले से अधिक निर्भय हुआ है| करगिल और द्रास में हजारों पाकिस्तानी कैसे घुस गए ? गोधरा और अक्षरधाम करने की हिमाकत कोई कैसे कर सकता है ? जब तक उसे आश्वस्ति नहीं हो कि शासनतंत्र निकम्मा है, वह वाकई यह जुर्रत नहीं कर सकता| फौज को 10 माह तक पाकिस्तान सीमा पर डटाकर अरबों रुपए नाली में बहा दिए लेकिन भारत पाकिस्तान के बर्ताव को ज़रा भी नहीं बदल सका| परमाणु-शक्ति बनने तथा क्षेत्रीय शक्ति होने का हमारा दावा कितना खोखला लगा, जब हमारा जहाज अपहृत हो गया और हमने कंधार जाकर घुटने टेक दिए तथा हमारी संसद पर हमला हो गया और हम बगलें झाँकते रह गए| भारत की विदेशनीति की सफलता की कसौटी यह नहीं है कि रूस या अमेरिका या टिम्बकटू या बुरकिनो फासो से हमारे संबंध कैसे हैं बल्कि यह है कि पाकिस्तान की चुनौती का सामना हम कैसे करते हैं ? जाहिर है कि इस कसौटी पर गठबंधन-सरकार की नीति शत-प्रति-शत असफल हो गई है| लाहौर की वंध्या-यात्रा और आगरा का खाई-गमन, इसके जीते-जागते उदाहरण हैं| मुशर्रफ के प्रति भारत सरकार की हिंडोलेबाजी उसे विदूषकत्व के चरम-शिखर पर पहुँचा देती है| विदेश नीति का हिंडोला दिल दहला देनेवाली पींगे भरता है| कभी वह पूरब में जाता है तो कभी पश्चिम में ! भारत की जनता को यह समझ नहीं पड़ता कि सरकार मुशर्रफ को कभी दुश्मन और कभी अचानक दामाद घोषित क्यों कर देती है ? कश्मीर का निष्पक्ष और सफल चुनाव, इस सरकार की अँगूठी का चमचमाता हुआ नगीना है| लेकिन कश्मीर अब भी समाधान से कोसों दूर है| पंत, जेठमलानी, जेटली – पता नहीं किस-किस की इज़्ज़त दाँव पर लग गई और कश्मीर अपनी जगह मुँह बाये खड़ा हुआ है| आश्चर्य है कि राजनीति में पचास-पचास साल गुजारनेवाले लोगों के पास न तो अपनी कोई दृष्टि है और न ही वे दूसरों की भूलों से कुछ सीखते हुए दिखाई पड़ते हैं| राज्य के कार्य पर वे कुंडली मारकर बैठ गए हैं| सत्ता-तंत्र अपनी पार्टी और रिश्तेदारों तक सिमट गया है| दूसरों पर वे बिल्कुल भी भरोसा नहीं करते| दूसरों पर भरोसा करने या उनसे सहयोग लेने से बेहतर है, अपने नौकरशाहों के सामने आत्म-समर्पण कर देना| डर यही लगता है कि हमारे नेता कहीं नौकरशाहों के प्रवक्ता मात्र तो नहीं हैं ? उनका सारा समय पहले और अब भी राजनीतिक जोड़-तोड़, डिनर-लंच, भाषणबाजी और विदेश-यात्राओं में खप जाता है और देश अपने आप नौकरशाहों के हवाले हो जाता है|
अपने आपको राष्ट्रवादी कहनेवाली इस गैर-काँग्रेसी सरकार में ऐसा क्या है कि इसे काँग्रेस से अलग कहें ? वंशवादी नेतृत्व के अलावा इसमें सब कुछ काँग्रेस-जैसा ही है बल्कि वैसा भी नहीं है| उससे भी कुछ कम ही है| काँग्रेस को कम से कम हुकूमत करना आती है| इसे हुकूमत के अलावा सब कुछ आता है| माना कि बहुरंगी गठबंधन चलाने के लिए उसे अपने कुछ पि्रय मुद्दे छोड़ने पड़े लेकिन जो मुद्दे उसने पकड़ रखे हैं, उन पर भी उसने कौनसे झंडे गाड़े हैं ? रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा जैसे बुनियादी मामलों में भी क्या उसने ऐसा कुछ किया है कि जिस पर कसीदे काढ़े जाएँ ? सरकार के अधमरे कारखानों को बेचने का अभियान अरुण शौरी काफी मुस्तैदी से चला रहे हैं लेकिन गेहूँ के साथ घुन पिसने का अंदेशा भी बना हुआ है| इस अभियान से अर्थ-व्यवस्था को फायदा हो रहा है, यह बात अब तक भी कागजों में ही है| अर्थ-व्यवस्था में ठोस सुधार के लक्षण अभी तक स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ रहे| बहुराष्ट्रीय निगमों का ऊँट भारत के तम्बू में घुसा आ रहा है और नेतागण कुंभकर्णी मुद्रा धारण किए हुए हैं| मान लिया कि यह सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पक्षधर है और आर्थिक मामलों में उसकी खास गति नहीं है लेकिन असली सवाल यह है कि सांस्कृतिक क्षेत्र में भी उसने क्या किया है ? इन साढ़े चार वर्षों में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ा है, संविधान-समीक्षा प्रहसन-मात्र बनकर रह गई है, भगवाकरण के नाम पर फोकट की बहस छिड़ गई है और साक्षरता और स्वभाषा-माध्यम के प्रश्न नेपथ्य में चले गए है| प्रसार भारती अधर में लटक गई है और दूरदर्शन दूसरे घटिया चैनलों का पिछलग्गू बना हुआ है| समझ में नहीं आता कि हमारे मंत्र्िायों को क्या हो गया है| वे नौकरशाहों के नौकरों की तरह क्यों दिखाई पड़ते हैं ? क्या करोड़ों लोगों ने उन्हें भीगी बिल्ली बनने के लिए ही वोट दिया था ? वे अब सत्ताधीश हैं, स्वयंसेवक नहीं| स्वयंसेवकाई से उनका पिंड कैसे छूटेगा ? वे अपनी बुद्घि का प्रयोग कब शुरू करेंगे ? स्वयंसेवकाई की धेनु-मुद्रा त्यागकर अगर अगले दो वर्षों में उन्होंने ‘स्वयंमेव मृगेन्द्रता’ याने सिंह-मुद्रा धारण नहीं कि तो उन्हें संसद के किसी कोने में छोटे-से विरोधी दल की तौर पर बैठने का मन अभी से बना लेना चाहिए|
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