R Sahara, 2 March 2003 : यह बात कहॉं तक ठीक है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी? अगर अंडमान निकोबार जेल के मूल दस्तावेज देखें तो मन पर कुछ दूसरा ही प्रभाव पड़ता है| सावरकर ने कोई गुपचुप माफीनामा नहीं लिखा| उन्होंने अक्तूबर 1913 में एक खुली याचिका दी थी, जैसा कि अन्य चार क्रांतिकारियों ने भी दी थी| लगभग सभी क्रांतिकारियों ने उन पर किए जा रहे नृशंस अत्याचारों का वर्णन अपने-अपने ढंग से किया था| उन्होंने जेलर से सभ्य बर्ताव की मांग की थी और यह आशा की थी कि या तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा या कम से कम अंडमान की जेल से निकालकर वापस भारत की किसी जेल में रख दिया जाएगा| बदले में उन्होंने आतंकवाद के परित्याग और राजभक्ति का आश्वासन दिया था| सावरकरजी की याचिका शब्दावली जरा ज्यादा चाशनीयुक्त और लुभावनी थी| वे कवि और लेखक जो थे| इसके अलावा वे जानते थे कि अन्य कैदियों के मुकाबले उनका महत्व भी बहुत ज्यादा था| इसके बावजूद गवर्नर जनरल के प्रतिनिध आरएच क्रेडोक ने उनके बारे में जो गोपनीय टिप्पणी लिखी, वह उसके शब्दों में ही पढिए: ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पश्चाताप या खेद नहीं है और वह अपने हृदय परिवर्तन का सिर्फ ढोंग कर रहा है|’ क्या इस याचिका को हम माफीनामा कहेंगे? क्रेडोक ने यह भी लिखा कि सावरकर को यदि किसी भारतीय जेल में रख दिया गया तो यूरोप के अराजकतावादी उस जेल के ताले तोड़कर उसे फरार कर देंगे| क्रेडोक की यह धारणा गलत नहीं थी| अगले ही साल जर्मन चांसलर ने सावरकर को छुड़ाने के लिए एक युद्घपोत अंडमान भेजा था| सावरकर को 50-50 साल की दो सजाएं हुई थीं| वे 27 साल तक कारावास और नज़रबंदी में रहे|
‘फालुन दाफा’ नामक आंदोलन को शुरू हुए अभी दस साल भी नहीं हुए लेकिन सारी दुनिया में उसके अनुयायियों की संख्या दस करोड़ तक पहॅुंच गई है| यह आंदोलन चीन में शुरू हुआ और इसके जनक हैं – आचार्य ली होंग ज़ी ! आचार्य ली की चीनी पुस्तक ‘फालुन गोंग’ का अंग्रेजी अनुवाद मैंने दो साल पहले पढ़ा था| तभी मैंने उनके चीनी अनुयायियों से आग्रह किया था कि वे इसे हिंदी में भी लाएं| उसका हिंदी अनुवाद हाल ही में प्रकाशित हुआ है| उन्होंने आग्रह किया कि उसका विमोचन मैं ही करूं| यह पुस्तक लाखों की संख्या में बिकती है| फालुन गोंग का शाब्दिक अर्थ है – धर्मचक्र साधना शक्ति ! आचार्य ली इस पुस्तक में लोगों को एक तरह का योगाभ्यास सिखाते हैं, जो रोगों की चिकित्सा तो करता ही है, आध्यात्मिक शांति भी प्रदान करता है| इस पुस्तक में भारतीय अवधारणाऍं सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं| स्वस्तिक, कर्म, पुनर्जन्म, निर्वाण आदि शब्दों को चीनी भाषा के बीच आया हुआ देखकर आनंद होता है| इस आंदोलन की तीन प्रमुख अवधारणाऍं हैं – सत्य, करुणा और धैर्य| यह आंदोलन पूर्णतया आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मालूम पड़ता है लेकिन चीनी सरकार इसके अनुयायियों पर भयंकर जुल्म ढा रही है| उसे डर है कि आचार्य ली का संगठन कहीं चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को ही न लील जाए|
भारतीय ज्ञानपीठ अपने ढंग की अनूठी संस्था है| साहू-जैन परिवार को जैसी प्रतिष्ठा ज्ञानपीठ के कारण मिली है, वैसी उसके शक्तिशाली अखबारों के कारण भी नहीं| आज ज्ञानपीठ पुरस्कार साहित्य का सर्वोच्च सम्मान है| मूर्तिदेवी पुरस्कार भी है लेकिन उसकी मान्यता अभी उतनी नहीं है| इस बार मूर्तिदेवी पुरस्कार डॉ. गोविंदचंद्र पाण्डेय और डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी को मिला है| दोनों विद्वानों ने अपने-अपने क्षेत्र में गहन परिश्रम किया है और ग्रंथ लिखे हैं| लेकिन क्या बात है कि साहित्य के समारोह के मुकाबले पांडित्य का समारोह फीका-फीका होता है? मूर्तिदेवी पुरस्कार में न तो ज्ञानपीठ की अध्यक्षा दिखीं और न ही उनके स्वनामधन्य सुपुत्र ! सुपुत्र की खाली कुर्सी को कुछ देर बाद भरा गया| उपस्थिति भी वैसी नहीं थी, जैसी की ज्ञानपीठ पुरस्कारों में होती है| कुछ दिन पहले ‘नया ज्ञानोदय’ के लोकार्पण में उपस्थिति का आलम देखने लायक था| संपादक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय का भाषण लंबा लेकिन सटीक था| ‘ज्ञानोदय’ का दुबारा प्रकट होना महत्वपूर्ण घटना है| प्रबंध न्यासी रमेशचंद्रजी और निदेशक-संपादक डॉ. श्रोत्रिय की जोड़ी ज्ञानपीठ को साहित्य के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान की पीठ भी बनाएगी, ऐसी आशा है| सिर्फ पुरस्कार और प्रकाशन काफी नहीं है|
मध्यप्रदेश की राजनीति में कुछ नए गुल खिलने की संभावना बन रही है| मध्यप्रदेश की जनता जितनी कांग्रेस से ऊबी हुई है, उतनी ही भाजपा से भी है| दोनों दल एक-दूसरे की कार्बन कॉपी मालूम पड़ते हैं| लेकिन बेचारे मध्यप्रदेश के लोग क्या करें, उनके पास कोई विकल्प नहीं है| अब कांग्रेस और भाजपा के कुछ तेजस्वी विधायक, जो अपनी-अपनी पार्टी से तंग आए हुए हैं, किन्हीं अन्य दलों से गुपचुप बात कर रहे हैं| यदि कोई तीसरा मोर्चा खड़ा हो सके और वह दो सौ सीटें लड़ सके तो 25-30 सीटें तो जीती ही जा सकती हैं| ये 25-30 विधायक ही तय करेंगे कि वहॉं सरकार कौन-सा दल बनाएंगे|
श्री प्रकाशवीर शास्त्री अपने समय के सूर्य थे| उनके जैसा उत्तम वक्ता न तो संसार में था और न उसके बाहर| उनके निधन को लगभग 30 साल हो गए| वे छोटी आयु में ही गुजर गए| मैं 1965 में जब पीएचडी करने दिल्ली आया तो वे मेरे स्थानीय अभिभावक बने| मेरे शोधग्रंथ को हिंदी में लिखने का जब विवाद संसद में उठा तो प्रकाशवीरजी और डा. लोहिया ने संसद को हिला दिया| प्रकाशवीरजी के संसदीय भाषणों का संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है| इसके पूर्व उनकी स्मृति में जो अभिनंदन गंरथ प्रकाशित हुआ था, उसका विमोचन प्रधानमंत्री ने किया था| अटलजी मानते हैं कि प्रकाशवीरजी उनसे भी बेहतर वक्ता थे| प्रकाशवीर शास्त्री ने हिंदी, धर्मांतरण, अराष्ट्रीय गतिविधियों तथा पांचवें और छठे दशक की अनेक ज्वलंत समस्याओं पर अपने बेबाक विचार व्यक्त किए हैं| उनके भाषणों में तर्क बहुत शक्तिशाली होते थे| उनके विरोधी भी उनके प्रशंसक बन जाते थे| 1957 में आर्य समाज द्वारा संचालित हिंदी आंदोलन में उनके भाषणों ने जबर्दस्त जान फूंक दी थी| सारे देश से हजारों सत्याग्रही पंजाब आकर गिरफ्तारियॉं दे रहे थे| मैं भी 13 साल की आयु में इंदौर से आकर गिरफ्तार हुआ था और पटियाला जेल में रहा था| प्रकाशवीरजी अगर निर्दलीय रहते (जनसंघ, चरणसिंह-पार्टी और कांग्रेस में नहीं जाते) और सिर्फ आर्य समाज का नेतृत्व करते रहते तो शायद अधिक प्रभावी होते| लेकिन आर्य समाजे के तत्कालीन सांगठनिक नेताओं ने उनका जीना मुहाल कर रखा था|
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