NavBharat Times, 9 March 2003 : भारत के स्वाधीनता संग्राम में सावरकर को हम सही स्थान क्या देंगे, अभी तक तो सेन्ट्र्रल हाल में उनके चित्र को लेकर ही कोहराम मचा हुआ है| सावरकर के चित्र के विरुद्घ सोनिया ने राष्0पति को पत्र तो लिखा दिया लेकिन तब तक उन्हें पता नहीं था कि उनकी सास इंदिरा गॉंधी ने सावरकर का डाक-टिकिट जारी किया था और उनकी स्मृति में स्थापित न्यास को 11 हजार रूपये भी दिए थे| शिवराज पाटील और प्रणव मुखर्जी कोई सोनिया गॉंधी नहीं हैं| वे जानकार हैं| उन्होंने संसदीय समिति में चित्र कि लिए हामी क्यों भरी ? मार्क्सवादी पार्टी के नेता सोमनाथ चटर्जी ने सहमति क्यों दी ? वे तो बड़े विद्वान और जागरूक सांसद हैं| लोगों को यह पता नहीं कि सोमनाथजी के पूज्य पिताजी प्रो एन.सी.चटर्जी हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे और स्वयं सोमनाथजी अपने बचपन में सावरकरजी के दर्शन करने जाया करते थे| कांग्रेस के नेता वसंत साठे ने पिछले साल मॉंग की थी कि सावरकरजी को ‘भारत रत्न’ दिया जाए| अन्य कांग्रेसी नेता वी.एन.गाडगिल दिल्ली के ‘सावरकर पुनरोत्थान न्यास’ के संरक्षक रहे हैं| कांग्रेसी महापौर ने ही मुंबई के दादर में सावरकर-स्मृति के लिए लगभग 100 करोड़ लागत की जमीन भेंट की, जिसका भूमि-पूजन जगजीवन राम ने किया और उद्घाटन राज्यपाल शंकरदयाल शर्मा ने किया| अध्यक्षता शरद पॅवार ने की| सावरकर पर पंद्रह-बीस साल पहले दो फिल्में बनीं, जिन्हें साठे और गाडगिल (सूचना मंत्रियों) का प्रोत्साहन था| 1927 में महात्मा गॉंधी जब रत्नागिरि गए तो सावरकर से मिलने उनके घर गए थे| इससे पहले भी गॉंधी और सावरकर की लन्दन के ‘ इंडिया हाउस’ में, जहॉं सावरकर रहते थे, भेंट हो चुकी थी| गॉंधी और सावरकर पहले दिन से ही एक-दूसरे से असहमत थे| दोनों के रास्ते अलग-अलग थे| आगे चलकर दोनों ने एक-दूसरे को रद्द भी किया|
लेकिन अब हम क्या करें ? वैचारिक स्तर पर गॉंधी बनाम सावरकर की बहस चलाने में अब भी कोई बुराई नहीं है लेकिन सावरकर का चरित्र-हनन करने से क्या गॉंधी की छवि ज्यादा चमकेगी ? सच्चाई तो यह है कि गॉधी को अपनी छवि के लिए किसी की भी जरुरत नहीं है, स्वतंत्रता-संग्राम की भी नहीं| गॉंधी के अवतरण के पहले भी यदि भारत आज़ाद हो गया होता तो भी गॉधी इतिहास-पुरुष माने जाते | गॉधीजी ने जो प्रयोग किए, वे उनके पहले मानव जाति में किसी ने नहीं किए| स्वाधीनता संग्राम में उनका योगदान अद्वितीय था लेकिन उसका इतिहास लिखते हुए अगर हम तिलक, लाजपतराय,सावरकर, सुभाष बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर, चाफेकर, बरकतुल्लाह आदि को भूल जाऍं तो यह अकादमिक बेइमानी तो होगी ही, यह हमारी घनघोर कृतघ्नता भी होगी| गॉंधी को स्वतंत्र भारत का प्रवक्ता उसी तरह नहीं बनाया जा सकता जैसा कि जिन्ना को स्वतंत्र पाकिस्तान का बनाया जाता है | पाकिस्तान बनानेवाले जिन्ना अकेले थे लेकिन भारत को आज़ाद करानेवाले गॉंधी अकेले नहीं थे| गॉंधी के पहले और बाद में अनेक महानायक हुए| गॉंधी को हम जिन्ना की पंगत में क्यों बिठाना चाहते हैं ? गॉंधी के अलावा अन्य नायकों की उपस्थिति भारत की आज़ादी और उसके वर्तमान लोकतंत्र में चार चॉंद लगाती है| उसके इंद्रधनुषी व्यक्तित्व में विविध रंग भरती है|
उसी तरह के एक नायक सावरकर भी थे | वे अहिंसा में नहीं, सापेक्षिक हिंसा में विश्वास करते थे| वे साध्य की पवित्रता में विश्वास करते थे, साधनों की पवित्रता उनके लिए गौण थी| उनके आदर्श शिवाजी थे, गौतम बुद्घ नहीं | एक कदम पीछे और दो कदम आगे| इसीलिए जब बि्रटिश राज के प्रति सावरकर के भक्ति के नाटक को हमारे साम्यवादी और संप्रदायवादी भारत-द्रोह कहते हैं तो वे भूल जाते हैं कि गॉंधी ने बि्रटिश भक्ति की कसमें (सचमुच में ही) पता नहीं कितनी बार खाई थीं और लेनिन तथा स्तालिन ने पता नहीं कितने विरोधियों और समर्थकों को मौत के घाट उतारा था| यह नहीं हो सकता कि सावरकर को नापने के लिए एक मीटर लगया जाए और गॉंधी, लेनिन व स्तालिन को नापने के लिए दूसरा ! क्या यह मूर्खतापूर्ण आनंद की पराकाष्ठा नहीं कि सावरकर की जिस याचिका को तत्कालीन अंग्रेज अफसर धोखे की ठट्ठी बता रहा है, उसे हमारे आज के सर्वज्ञ नेतागण वेदमंत्रों की तरह प्रामाणिक माने चले जा रहे हैं ? अनेक क्रांतिकारियांे द्वारा दी गई ‘याचिकाओं’ को ‘माफीनामा’ कहना इतिहास के साथ अन्याय है| अच्छा हुआ कि मार्क्सवादी मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने अपनी सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक में सावरकर के योगदान का सम्मान किया और मार्क्सवादियों को इस पाप से बचाया| जिस सुभाष बोस को मार्क्सवादी कल तक ‘तोजो और हिटलर का कुत्ता’ कहते थे, अब उसे वे महानायक की तरह अपने कंधों पर चढ़ा रहे हैं| सावरकर पर चली यह बहस इतिहास के इस टेढ़े मॅुह को सीधा किए बिना नहीं रहेगी|
गॉंधी को आज़ादी का एक मात्र प्रवक्ता बनाने की खसलत इतनी संकीर्ण है कि उसकी गली में आम्बेडकर, पेरियार, एम.एन.रॉय, राजा महेन्द्र्रप्रताप जैसे लोगों के लिए भी कोई जगह नहीं रह जाती और हम यह भी नहीं पूछ पाते कि 1920-21 में चले गॉंधी के खिलाफत आंदोलन ने पाकिस्तान की नींव रखी या नहीं रखी ? सावरकर ने जिन्ना के द्विराष्0वाद को जितनी निर्ममता से रद्द किया, क्या किसी और नेता ने किया लेकिन कुछ पोंगा पंडित सावरकर के एक लम्बे भाषण के एक वाक्य को अलग तोड़कर यह अर्थ निकाल रहे हैं कि जिन्ना की तरह सावरकर भी हिन्दू और मुसलमान, दो अलग राष्0ों को मान्यता देते थे| अखंड भारत के सर्वोच्च प्रवक्ता का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है| यह ठीक है कि गॉधी की तरह उस समय सावरकर लोकपि्रय नहीं हुए लेकिन यदि सावरकर नहीं होते तो कोई आश्चर्य नहीं कि भारत के इतिहास का रथ दुबारा मुगलिया सल्तनत, निज़ामे-मुस्तफा या अफगान बादशाही के विषपथ पर मुड़ जाता| गॉधी उसे रोक पाते, इसमें मुझे संदेह है| स्वातंत्र्य-रथ के सारथि गॉधी अवश्य थे लेकिन साम्प्रदायिक ब्लेकमेल के मार्ग पर चकनाचूर होने से उसे अगर किसी ने रोका तो वह सावरकर ही हैं| सावरकर के बिना आज़ादी का इतिहास अधूरा ही रहेगा|
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