नवभारत टाइम्स, 3 मार्च 2003: सावरकर कोई मामूली क्रांतिकारी नहीं थे| उन्हें 27 साल की आयु में 50-50 साल की दो सजाऍं हुई थीं| अंडमान-निकोबार तथा रत्नागिरी में उन्होंने 27 साल की जेल और नज़रबंदी भुगती| क्या दुनिया का कोई और क्रांतिकारी है, जिसने इतना लम्बा कारावास भुगता हो ? अगर 25 साल जेल में रहने के कारण नेल्सन मंडेला विश्व-वंद्य हैं तो सावरकर को कौन सा स्थान मिलना चाहिए ? यह ठीक है कि दक्षिण अफ्रीका में गॉंधी प्रसिद्घ हो चुके थे लेकिन जब 1910 में सावरकर ने बि्रटिश जहाज से समुद्र में कूदकर पलायन किया तो पहली बार सारे संसार को पता चला कि भारत अंग्रेजों के चुंगल से छूटने को छटपटा रहा है| अभी गॉंधी और नेहरु स्वाधीनता संग्राम की मुख्य धारा में शामिल भी नहीं हुए थे जबकि सावरकर इस संग्राम के विश्व-विख्यात योद्घा की तरह पहचाने जाने लगे थे| उन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम का अन्तरराष्ट्र्रीकरण किया| वे पहले भारतीय थे बल्कि विश्व के पहले व्यक्ति थे, जिनकी रिहाई का मुकदमा हेग की अन्तरराष्ट्र्रीय अदालत में चला| वे शायद दुनिया के ऐसे पहले लेखक थे, जिनके ग्रंथ ‘1857 के स्वातंत्र्य-समर का इतिहास’ पर एक साथ दो साकारों ने छपने के पहले ही प्रतिबंध लगा दिया| सावरकर की तरह कोई क्रांतिकारी हो, नेता हो, विचारक हो और साथ-साथ महान साहित्यकार भी हो, ऐसा कोई दूसरा नाम दिखाई नहीं देता| जेल की दीवारों पर कील से कविता की 10 हजार पंक्तियॉं लिखने वाला और उन्हें याद रखने वाला क्या दुनिया में कोई और साहित्यकार हुआ है ? तिलक और गॉंधी से भी पहले विदेशी कपडों की होली का आयोजन सावरकर ने पुणे में किया था| ‘काले-पानी’ की सजा काटते हुए सावरकर ने 11 साल तक जो कष्ट भुगते हैं, उनकी तुलना अगर अन्य महान नेताओं के कष्टों से की जाए तो सावरकर पहाडि़यों के बीच हिमालय की तरह दिखाई देते हैं| ऐसे सावरकर के चित्र पर आपत्ति करने का आखिर कारण क्या है ?
तीन कारण बताए जाते हैं| एक तो यह कि उन्होंने अंग्रेजों से माफी मॉंगी थी| दूसरा, वे हिदूत्व सांप्रदायिकता के जनक हैं| हिदुत्व की धारणा उन्होंने ही दी है| तीसरा, गॉंधीजी की हत्या में उनका हाथ था| इसमें शक नहीं कि गॉंधीजी की हत्या का जिन आठ लोगों पर आरोप था, उनमें सावरकर को भी फॅंसाया गया था| बाक़ायदा मुकदमा चला और सावरकर को ससम्मान बरी किया गया| आज जरूरत इस बात की है कि सावरकर को फॅसानेवालों कर पता लगाया जाए| जहॉं तक हिदुत्व का सवाल है, सावरकर की वह छोटी सी किताब कार्ल-मार्क्स के ‘ कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र ‘ से कई गुना अधिक प्रभावशाली है| उसके तथ्य,तर्क,निष्कर्ष और शैली के आगे हमारे बीसवीं सदी के बड़े-बड़े दिग्गज फीके दिखाई पड़़ते हैं| यह अलग बात है कि ‘हिदुत्व’ के अनेक तर्क अब अप्रासंगिक हो गए हैं ;उनकी विस्तृत समीज्ञा मैंने 1 दिसंबर के राष्ट्र्रीय सहारा और 3 जनवरी के न.भा.टा. में की है द्घ लेकिन हमें उन हालात पर ध्यान देना चाहिए, जिनमें वह पुस्तक लिखी गई थी| अब से ठीक अस्सी साल पहले जब खिलाफत आंदोलन शिखर पर था, भारत पर हुकूमत करने के लिए अफगान-बादशाह अमानुल्लाह को; मुसलमान होने के कारणद्घ आंमत्रित किया जा रहा था, मुस्लिम सांप्रदायिकता अपने फन फैला रही थी, गॉंधी और अन्य नेता अपनी सदाशयता के कारण या मजबूरन उसी प्रवाह में बहे चले जा रहे थे, सावरकर ने ‘हिन्दुत्व’ लिखकर भारत की बहुसंख्या को जबर्दस्त झटका दिया| यद्यपि हिंदु बहुमत गॉंधी के साथ गया, सावरकर के साथ नहीं लेकिन यदि सावरकर नहीं होते तो जरा सोचें कि क्या होता ? यदि भारत का विभाजन नहीं होता तो शायद भारत में दुबारा मुगलिया सल्तनत कायम होती और यदि विभाजन होता तो अब से कई गुना बड़ा पाकिस्तान हमें देना पड़ता| सावरकर के विचारों ने तत्कालीन भारत की राजनीति पर गहरा असर डाला| यह कहना मूर्खतापूर्ण मालूम पड़ता है कि जिन्ना की तरह सावरकर भी द्विराष्ट्र्रवाद में विश्वास करते थे| सावरकर तो अखंड भारत के पक्षधर थे| उन्होंने न तो ‘हिन्दुत्व’ में और न ही अपने किसी भाषण में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की बात कभी कही| उल्टे उन्होंने अपने 1937 के हिन्दु महासभा के अध्यक्षीय भाषण में मुसलमानों को ‘अपनी भाषा,संस्कृति और धर्म’ की रक्षा के लिए विशेष गारंटियॉं देने की बात कही है| उन्होंने यह कई बार दोहराया है कि उनके ‘हिन्दु राष्ट्र्र’ में किसी भी व्यक्ति से उसके धर्म,वंश या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा| हिन्दु, मुसलमान, ईसाई और यहूदी सब बराबर होंगे| सबके साथ ‘पूर्ण समानता का बर्ताव होगा और किसी एक को दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित नहीं करने दिया जाएगा|’ उनका विरोध मुसलमानों से नहीं, मुस्लिम ब्लेकमेल से था| इसमें शक नहीं कि उनके लेखों और भाषणों से देश में गॉंधी-विरोधी वातावरण बना और भारत विभाजन की रेखाऍं ज़रा ज्यादा गहरी हुई लेकिन गॉंधी और नेहरु के मरहम को मुसलमानों ने छुआ तक नहीं| यदि सावरकर 27 साल जेल में नहीं रहते और लंदन से बेरिस्टर बनकर 1910 में ही भारत लौटते तो पता नहीं भारत कौन सा हिन्दुत्व स्वीेकार करता ? गॉंधी का नरम हिन्दुत्व या सावरकर का गरम हिन्दुत्व ? गॉंधी का नरम हिन्दुत्व विफल हुआ और मुस्लिम तुष्टीकरण की कोख से पाकिस्तान जन्मा| राममनोहर लोहिया ने भी अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन के दोषी’ में नेहरू और पटेल को जिम्मेदार ठहराया है| उन्होंने ही जिन्ना के द्विराष्ट्र्रवाद को असली जामा पहनाया| सावरकर तो पाकिस्तान का बराबर विरोध करते रहे| देखें भाग्य की विंडम्बना कि गॉंधी और सवारकर का गंतव्य एक ही हो गया तथा जिन्ना और नेहरु के गंतव्य में कोई फर्क नहीं रह गया|
सावरकर जितने सेक्युलर और बुद्घिवादी थे, उतने तो गॉंधी भी नहीं थे| क्या कोई कल्पना कर सकता है कि हिन्दुत्व की अवधारणा का जनक कुछ खास परिस्थितियों में गोमांस-भक्षण की वकालत कर सकता है, वेदों की अयौरूषेयता और जन्मना वर्णाश्रम को रद्र कर सकता है और पुरोहिताई पाखंडों पर बज्र-प्रहार कर सकता है ? ऐसा क्रांतिकारी सावरकर राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ को कैसे स्वीकार हो सकता था ? हिन्दु महासभा और संघ में जैसी खीचंतान अब से 40 साल पहले तक चला करती थी, वैसी इन संगठनों की कॉंग्रेस के साथ भी नहीं थी| सावरकर की प्रतिमा लगाने का अर्थ अगर यह है कि संघ परिवार किसी नए महानायक की तलाश में है तो इस बात से प्रतिपक्ष को प्रसन्न ही होना चाहिए, क्योंकि सावरकर के सपनों का भारत तो जीवन की वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित है, किसी पुराण, कुरान, बाइबिल, जिन्दावस्ता या दास केपिटल पर आधारित नहीं है|
जहॉं तक सावरकर द्वारा माफी मॉंगने का सवाल है, किसकी बात प्रामाणिक मानें, अपने अनपढ़ नेताओं की या उस अंग्रेज अफसर की, जिससक माफी मांगी जा सकती थी| 1913 में जब गवर्नर-जनरल का प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो उसके सामने पॉंच राजनीतिक कैदियों ने याचिकाऍं पेश की, उनमे सावरकर भी थे| यह ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्राति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने का और राजभक्ति का आश्वासन दिया लेकिन ज़रा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडोक ने क्या कहा| क्रेडोक ने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने दय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है|’ उसने यह भी लिखा कि सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है| भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसम खाते हैं और यदि भारत भेज दिया गया तो वे उसे भारतीय जेल तोड़कर निश्चय ही छुड़ा ले जाऍंगे| इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक ‘काले पानी’ की महायातना भोगी| ऐसे सावरकर के चित्र पर भी आपको आपत्ति है| धन्य हैं, हमारे राजनेता!
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