नवभारत टाइम्स, 10 मार्च 2002: सब मजे में हैं| कोई भी घाटे में नहीं| सेक्यूलरवादी खुश हैं कि अविवादित भूमि में भी पूजा नहीं हो पाई| सरकार खुश है कि गोलियाँ नहीं चलीं| साधु-संत खुश हैं कि उन्होंने आखिरकार पूजा कर ही ली| शिला-दान किसी ऐसे-वैसे ने नहीं, प्रधानमंत्र्ी के प्रतिनिधि ने स्वीकार किया| मुसलमान खुश हैं कि यथास्थिति बनी रही और दंगे नहीं हुए| सर्वोच्च न्यायालय खुश है कि उसने सबको चित कर दिया| सिर्फ अखबारवाले नाखुश हैं कि हम भी देखने गए थे लेकिन तमाशा न हुआ| तमाशा तो हुआ, नाटक तो हुआ लेकिन सुखांत हुआ| लगभग हर सीढ़ी पर फिसलती हुई सरकार यकायक उचककर छज्जे पर जा बैठे तो उस नाटक को कौन सुखांत नहीं कहेगा ? गोधरा से अयोध्या तक की यात्र कुछ इस तरह हुई कि जैसे तपते हुए रेगिस्तान से निकलकर कोई अचानक नंदन-कानन पहुँच जाए| इस यात्र के फलागम पर सरकार आत्म-मुग्ध हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन अयोध्या के इस सुखांत नाटक के कुछ दुखद पहलू भी हैं, जिन पर ध्यान दिया जा सकता है|
सबसे पहला तो यह कि शंकराचार्य की किरकिरी हुई| विश्व हिन्दू परिषद्र (विहिप) ने पहले कहा कि राम जन्म भूमि के बारे में हम अदालत का फैसला मानेंगे| जब शोर मचा तो उसने कहा, नहीं मानेंगे| जब शंकराचार्य ने कहा कि मुझे लिखकर दिया गया है तो विहिप ने फिर कहा कि मानेंगे| जब अदालत ने फैसला दे दिया तो विहिप परेशान हो गई| उसने नहीं मानने का तेवर दिखाया| देश का पारा ऊपर चढ़ गया| फिर वह मान गई| नतीजा क्या निकला ? हिन्दुत्ववादियों में ही विहिप की छवि गिर गई| लोग पूछने लगे कि बीसियों वर्षों से जो विहिप कह रही थी कि राम जन्म भूमि विश्वास और श्रद्घा का मामला है, उस पर बहस नहीं हो सकती, उस पर कोई अदालत फैसला नहीं दे सकती, वही विहिप आज अचानक अदालत के फैसले पर राजी कैसे हो गई ? विहिप आज तक जो दावा करती रही, क्या वह हिन्दुओं को बेवकूफ बनाने के लिए था ? यदि अदालत ने कह दिया कि राम के जन्मस्थान के कोई ठोस प्रमाण उसे नहीं मिले तो क्या विहिप उसे मान लेगी ? यदि मान लेगी तो उसने यह आंदोलन क्यों चलाया? वह शुरू से ही अदालत में क्यों नहीं गई और नहीं मानेगी तो वह शंकराचार्य और देश, दोनों को ही क्या धोखा नहीं दे रही है ? इस प्रश्न ने देश के समस्त कारसेवकों को मथ डाला है| उन्हें अपने नेताओं के विवेक पर शक होने लगा है| दूसरी ओर सेक्यूलरवादी पूछ रहे हैं कि क्या सरकार और सर्वोच्च न्यायालय में कोई गुपचुप साँठ-गाँठ हो गई है| क्या सरकार ने विहिप को पहले से ही अनुकूल फैसले के संकेत दे दिए हैं ? सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता सर्वथा निर्विवाद है लेकिन विहिप की रजामंदी ने उसके बारे में शंका उत्पन्न कर दी है| अदालत का फैसला मानने के बारे में विहिप की रजामंदी का रहस्य किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है| कारसेवक पूछ रहे हैं कि हजरतबल की प्रामाणिकता पर विनय कटियार के बयान को लेकर इतनी हायतौबा मच रही है और राम जन्मभूमि की प्रामाणिकता अब क्या अदालत का विषय बनेगी ? अदालत के फैसले को विहिप के नेता मानना चाहें तो मानें, कार सेवक तो नहीं मानेंगे| इस स्थिति ने न केवल विहिप के नेतृत्व के सामने अब तक का गंभीरतम संकट उपस्थित कर दिया है बल्कि शंकराचार्य और सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर भी चुनौती की स्थिति उत्पन्न कर दी है| सर्वोच्च न्यायालय ने पूजा अंदर न करने देकर इस बार अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कर ली लेकिन लोग पूछ रहे हैं कि उसका अंतिम निर्णय विहिप के पक्ष में चला गया तो क्या भारत के मुसलमान उसे स्वीकार कर लेंगे ? जैसे साधु-संतों ने पूजा 67 एकड़ के बाहर की, क्या वे अपनी मस्जिद कहीं सौ एकड़ दूर बना लेंगे ? दूसरे शब्दों में सुखांत नाटक के जो दुखद पहलू हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती|
यह ठीक है कि सत्तारूढ़ गठबंधन के ‘सेक्यूलर’ सहयोगी कई कारणों से चुप हो गए हैं लेकिन शंकराचार्य के साथ वार्ता के दौरान उन्होंने जैसा कोहराम मचाया था, उससे क्या सिद्घ होता है ? क्या यह नहीं कि प्रधानमंत्र्ी और भाजपा भारत सरकार को अपने मनचाहे रास्ते पर नहीं चला सकते| अयोध्या-कांड ने सरकार की सीमाओं को स्पष्टत: उकेर दिया है| इसीलिए पिछले हफ्ते यह प्रश्न भी हवा में उछला था कि कहीं वाजपेयी और आडवाणी स्वंय ही पूजा करने अयोध्या न चले जाएँ| कहीं वे सरकार भंग करके चुनाव कराने के मूड में तो नहीं हैं ? प्रधानमंत्र्ी द्वारा अपने एक अफसर को अयोध्या भिजवाना और उससे राम-शिला स्वीकार करवाना भी कई विरोधी नेताओं को अनैतिक मालूम पड़ रहा है| उसे वे अदालत की अवमानना भी कह रहे हैं| इसी प्रकार महान्यायवादी सोली सोराबजी ने सर्वोच्च न्यायालय को जो तर्क दिए, उसमें सरकारी मिलीभगत का संदेह किया जा रहा है| दूसरे शब्दों में, यह माना जा रहा है कि सरकार तो राष्ट्रीय गठबंधन की है लेकिन वह भाजपा का एजेन्डा चोर दरवाजे़ से घुसवाने की कोशिश कर रही है| इस तरह के संदेह कोई भी कर सकता है लेकिन यह तो हाथ की रेखाओं की तरह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि गठबंधन के जिन साथियों को अपने मुसलमान वोटों की चिंता है, वे बड़े असमंजस में फँस गए हैं| वे जान गए हैं कि यदि वे इस सरकार में टिके रहे तो अगले चुनाव में उनके अल्पसंख्यक वोट जरूर कटेंगे लेकिन अगर वे प्रधानमंत्र्ी या भाजपा का विरेाध करेंगे तो उनका हिन्दू वोट खतरे में पड़ जाएगा| उन्हें निकल भागने के लिए कोई गली नहीं मिल रही है| अगर वे इस सरकार को छोड़ दें तो छोड़कर जाएँगे कहाँ ? अभी तीसरा मोर्चा हवा में ही झूल रहा है| लखनऊ में मुलायमसिंह की सरकार तक नहीं बन सकी| काँग्रेस से हाथ मिलाना न अभी फायदेमंद दिखाई पड़ता है और न ही चुनाव के बाद! काँग्रेस अब दुबारा अकेले सरकार बनाने के सपने देख रही है| वह छुटभय्रयों को अपने विजय-वाहन पर क्यों बैठाना चाहेगी ? याने यह सरकार चलती रहेगी और इसी तरह चलती रहेगी| एक अर्थ में अयोध्या-कांड वाजपेयी-सरकार की हौंसला-बुलंदी का नया सोपान सिद्घ हुआ है|
वाजपेयी सरकार के विरुद्घ संघ के स्वयंसेवकों और विहिप के कारसेवकों में क्रोध की जो ज्वाला भड़क उठी थी, वह भी अब शांत होती-सी लग रही है| उन्हें समझाया जा रहा हे कि यह मिली-जुली सरकार है| काई अपनी सरकार तो है नहीं| जितना अभी कर दिया, उससे ज्यादा क्या करते, कैसे करते ? सर्वोच्च न्यायालय के आगे झुकना भी क्या झुकना हुआ ? अविवादित स्थल में पूजा नहीं हुई तो नहीं हुई| अरे! असली विवादित स्थल में तो पूजा चल ही रही है| इसीलिए सरकार ने कोई ढील दे भी दी तो कौन सा आसमान टूट गया ? अगर सरकार ढिबरी को ज्यादा कस देती तो वह टूट जाती| संघ चाहे जितना कसे, क्योंकि उसके पास टूटनेवाली कोई चीज़ ही नहीं है| उसे सरकार जैसी कोई नाजु़क चीज़ थोड़े ही चलानी है| इसीलिए बेंगलूर घोषणा में संघ ने मुसलमानों को ज़रा कस दिया है| उन्हें चेतावनी दे दी है कि वे बहुसंख्या का लिहाज़ करें, सहनशील बनें और बहुसंख्यकों की सद्रभावना में ही उनकी सुरक्षा है| जाहिर है कि यह धमकी है| भाजपा प्रवक्ता ने इस धमकी के नुकीले-चुभीले कोनों को तुरंत घिस दिया और कहा कि ये भाजपा का प्रस्ताव नहीं है, संघ का है| भाजपा मानती है कि लिहाज़दारी और सहनशीलता दोनों तरफ होनी चाहिए| कोई राजनीतिक दल यह नहीं कहेगा तो क्या कहेगा ? स्वयंसेवकों और कार सेवकों को इस बयान का असली अर्थ समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी| वे प्रधानमंत्र्ी की मजबूरियों को अब धीरे-धीरे समझने लगे हैं| वे जानते हैं कि तनी हुई रस्सी पर चली जा रही इस नट-चाल के विभिन्न लटकों का मतलब क्या है ? उनके लिए प्रधानमंत्र्ी वाजपेयी अब पहले से भी अधिक अपरिहार्य हो गए हैं| अटलजी के नेतृत्व में वे अब कुछ अद्रभुत अदृश्य शक्तियों के दर्शन करने लग गए हैं| अयोध्या के नाटक का इससे बढि़या सुखांत क्या हो सकता है ?
लेकिन यह सुखांत किसी महानाटक का दुखांत भी सिद्घ हो सकता है| यह असंभव नहीं कि भारत की हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ अब तीन अलग-अलग धरातलों पर जीने लगें| भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विहिप ! तीनों का सहज सम्वाद कब भंग हो जाए, कुछ पता नहीं| ऐसे में वर्तमान सरकार तो गिर ही जाएगी, कोई भी सरकार जनता को काबू में नहीं रख पाएगी| अयोध्या में विहिप नेताओं के विरुद्घ लगे कारसेवकों के नारे, ओडिसा विधानसभा में हुई उद्दंडता और गुजरात में रह-रहकर जो आग सुलग रही है, वह आनेवाले तूफानों का पूर्व-संकेत है| यदि सरकार इस भरोसे बैठी हुई है कि सर्वोच्च न्यायालय उसे तिरा ले जाएगा, तो यह माना जाना चाहिए कि उसने अपने और देश के डूबने का पूरा प्रबंध कर लिया है| प्रतीकात्मक पूजा का फैसला करना एक बात है और मंदिर-मस्जिद का फैसला करना बिल्कुल दूसरी बात है| पहली शंका तो यही कि भारतीय न्यायालयों की जैसी रफ्तार है, वे अयोध्या-मसले को साल-दो साल में नहीं निपटा सकते और अगर निपटा भी दिया तो आखिर कैसे निपटाएँगे ? विवादित स्थल पर या तो मंदिर बनेगा या मस्जिद बनेगी या दोनों बनेंगे | इन तीनों विकल्पों में से किसी को भी कौन सी सरकार लागू कर सकती है ? फैसले के बाद भी दोनों समुदायों से बात करनी ही पड़ेगी तो फैसले के पहले ही बात क्यों नहीं की जाए? फैसले के पहले ही बात हो जाए तो फिर फैसले की जरूरत ही नहीं रह जाएगी| लेकिन अगर बात शंकराचार्यजी की शैली में हुई तो वह बांझ साबित होगी, क्योंकि उनकी बात का लक्ष्य केवल यह था कि दोनों पक्ष अदालत के फैसले को मान लें| जिन्हें हम पक्ष कह रहे हैं, क्या वे बहुमत और अल्पमत के वास्तविक प्रतिनिधि हैं ? उन्हें पटा लेने से भी बात नहीं बनेगी| अदालती फैसला मानने के लिए उन्हें पटाने की बजाय क्या यह कहीं बेहतर नहीं होगा कि वे आपस में सीधी बात करें और अपना फैसला खुद करें| अगर अपना फैसला वे खुद करेंगे तो केन्द्र में सरकार किसी की भी हो, फैसला लागू हो जाएगा और अगर फैसला कोई और करेगा तो उसे कोई भी सरकार, उसका प्रधानमंत्र्ी चाहे कोई कारसेवक हो या बड़ा इमाम, लागू नहीं कर पाएगी| वह स्थिति सरकार, न्यायालय, जनता और देश सभी के लिए क्या दुखांत नहीं होगी ?
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