R Sahara, 15 Nov. 2002 : पंचमढ़ी की काँग्रेस के मुकाबले माउंट आबू की काँग्रेस कितनी अलग है| माउंट आबू में न तो काँग्रेस महासमिति का अधिवेशन था और न ही कार्यसमिति की बैठक ! सिर्फ 14 राज्यों के काँग्रेसी मुख्यमंत्री वहाँ मिले थे लेकिन इस मिलन का महत्त्व किसी भी अधिवेशन से कम नहीं है| जो काँग्रेस कभी केन्द्र में अकेले ही सरकार बनाने के सपने देखती थी, उसने अब ज़मीन पर चलना शुरु कर दिया है| अब काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी यह दावा नहीं करेंगी कि मेरे पास 272 सांसदों का बहुमत है| उन्होंने खुले-आम कहा है कि वे अगला चुनाव अन्य ‘पंथ-निरपेक्ष’ दलों के साथ मिलकर लडे़ंगी| याने काँग्रेस का यह गरूर जाता रहा कि वह परम पवित्र ब्राह्मण है और अन्य दल अस्पृश्य शूद्र हैं| वह जान गई है कि जब तक वह भाजपा की तरह लचीली नहीं बनेगी, वह दिल्ली पर काबिज़ नहीं हो पाएगी| यदि 1998 में काँग्रेस बावरी नहीं हुई होती तो क्या दिल्ली का परिदृश्य आज वही होता, जो कि है| देवेगौड़ा और गुजराल सरकार को गिराने के पीछे भी वही मानसिकता काम कर रही थी, जिसके कारण चरणसिंह और चंद्रशेखर को जाना पड़ा| भारत की सत्ता के एकमात्र अधिकारी होने के इस घमंड की धारावाहिकता को पिछले एक दशक में जैसा धक्का लगा है, वैसा धक्का इसके पहले कभी नहीं लगा था| यह ठीक है कि काँग्रेस अब भी कश्मीर समेत भारत के 15 राज्यों में राज कर रही है लेकिन यदि इन 15 राज्यों में वह दो-तिहाई सीट भी जीत ले तो क्या संसद में उसे स्पष्ट बहुमत मिल सकता है ? पहली बात तो यह कि काँग्रेस-शासित बड़े राज्यों -म.प्र., राजस्थान, कर्नाटक – आदि में लोकसभा की आधी सीटें मिल जाएँ, यही गनीमत है, जबकि उ.प्र., बिहार,बंगाल, आंध्र, तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में काँग्रेस को अपने पाँव जमाना भी दूभर होगा| जिन छोटे-मोटे राज्यों में उसकी हुकूमत है, वहाँ उसने कोई ऐसा जादू नहीं किया है कि वह सेंत-मेंत में जीत जाएगी| इसके विपरीत जहाँ-जहाँ पहले से हुकूमतें होती हैं, वहाँ जीतना जरा कठिन हो जाता है| मतदाताओं को कोरे नारे लुभा नहीं पाते| वे सच्चाई के अधिक निकट होते हैं| ऐसा लगता है कि स्वयं काँग्रेस भी माउंट आबू में इस सच्चाई के निकट पहुँच गई है|
काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी का स्वर सुधरा तो है लेकिन उसमें बुलंदी की तलाश अब भी करनी पड़ रही है| वे कहती हैं कि समान विचारधारा वाले दलों के साथ चुनाव-समझौता हो सकता है और साझा सरकार भी बनाई जा सकती है लेकिन ‘जरूरत पड़ने पर’ ! याने जरूरत पड़े, यह जरूरी नहीं है| यदि जरूरत न पड़े तो वास्तव में देश के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है| एक बार फिर दस साल बाद भारत एकदलीय शासन-व्यवस्था को प्राप्त हो जाएगा लेकिन सभी जानते हैं कि माउंट आबू या गुवाहटी या पंचमढ़ी-कहीं से भी यह संदेश नहीं उभर रहा कि काँग्रेस अपने विगत वैभव को दुबारा प्राप्त करनेवाली है| यह सच है कि आज काँग्रेसियों का मनोबल सीताराम केसरी की काँग्रेस के मुकाबले कहीं ऊँचा है लेकिन उसका कारण स्वयं काँग्रेस नहीं, सत्तारूढ़, गठबंधन है| गठबंधन की अनाड़ी शासन-शैली, संघ परिवार का आंतरिक लत्तम-धत्तम, गुजरात के प्रेत और नौकरशाहों के बोलबाले ने केन्द्र सरकार की जो थोड़ी-बहुत उपलब्धियाँ हैं, उनको भी फीका कर दिया है| जिस भाजपा-गठबंधन के प्रति आम आदमी अब से साढ़े चार पहले उमंग से भरा हुआ था, अब ऊब से भर गया है| वह विकल्प की तलाश में है लेकिन क्या सचमुच उसका कोई विकल्प दिखाई पड़ रहा है ? देश की सबसे बड़ी पार्टी काँग्रेस भी नहीं|
यदि काँग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा-गठबंधन का विकल्प बन रही होती तो माउंट आबू में उसकी भाषा कुछ और ही होती| उसके अध्यक्ष की जुबान गठबंधन के मसले पर तलवार की तरह तेज चलती, ‘किंतु’-‘परंतु’ के रोड़ों पर लड़खड़ाती हुई दिखाई नहीं पड़ती| वह ‘जरूरत पड़ने’ का इन्तजार नहीं करती, खुद जरूरत पैदा करती| पहल करती| उत्तर प्रदेश में वह विधान सभा-सत्र का इन्तजार क्यों करती ? क्या कोई सच्चा नेता कभी इन्तज़ार करता है ? उत्तर प्रदेश ही क्यों, सारे भारत में सभी समान विचारवाले दलों की संयुक्त रणनीति के लिए आखिर पहल किसे करनी चाहिए ? क्या काँग्रेस को नहींं ? काँग्रेस पहल नहीं कर रही है, इसका मतलब साफ है कि या तो उसमें आत्मविश्वास की कमी है या अब भी घमंड की धारावाहिकता बरकरार है| क्या वजह है कि वह गुजरात में साझा मोर्चें के लिए उत्साहित नहीं है ? यदि वह गुजरात में बड़ी पार्टियों से कतराएगी तो वे पार्टियां दिल्ली में उसकी पालकी क्यों ढोएँगी ? कश्मीर में उसने बृद्घिमानी दिखाई है, लेकिन क्या वह मुफ्ति को भी देवेगौड़ा या गुजराल की तरह दरवाजा दिखाएगी ? काँग्रेस के इरादों पर किसे शक नहीं है ?
जहाँ तक विचारधारा का सवाल है, भारत की राजनीति इस मुकाम से बहुत आगे निकल चुकी है| भाजपा-गठबंधन इसका साक्षात्र प्रमाण है| स्वयं काँग्रेस की विचारधारा क्या है, यह काँग्रेस अध्यक्ष भी नहीं बता सकतीं| शाह बानो के मामले में घुटने टेकना, राम मंदिर का शिलान्यास करवाना, राम-राज्य की स्थापना का नारा देना आदि क्या है ? क्या यही पंथ-निरपेक्षता है ? वास्तव में यह पंथ निरपेक्षता नहीं, दोहरी पंथ-सापेक्षता है| गंगा गए तो गंगादास और जमना गए तो जमनादास ! इसे आप शिष्टतावश चाहे दोहरी सांप्रदायिकता न कहंे लेकिन ऐसी नरम वोट कबाड़ू नीति हर तबके में सांप्रदायिकता का संचार करती है| काँँग्रेस की इसी नीति का फायदा भाजपा को मिला|आज भाजपा और काँग्रेस में फर्क करना मुश्किल हो गया है| लगता ही नहीं कि काँग्रेस कोई विपक्षी दल है| भाजपा और काँग्रेस एक-दूसरे की कार्बन-कॉपी-से लगते हैं| गुजरात में हुई हिंसा का मुकाबला काँग्रेस ने कैसे किया? क्या कहीं कोई बहादुरी दिखाई ? सिर्फ जबानी जमा-खर्च चलता रहा और जब चुनाव का मौका आया तो उसने नरेन्द्र मोदी की एक फीकी कार्बन कॉपी गुजरात के माथे पर चिपका दी| अगर मोदी गरम हिन्दुत्व के प्रतीक हैं तो वाघेला नरम हिन्दुत्व के ! दोनों मंजे हुए स्वयंसेवक हैं ! वाघेला के जनसंघी दौर के बयानों को जब गुजरात में घुमाया जाएगा तो क्या मुसलमान काँग्रेस को वोट देंगे ? और उत्तेजित हिन्दू जनमत गरम हिन्दुत्व के मुकाबले नरम हिन्दुत्व को क्यों पसंद करेगा ? कहीं ऐसा न हो कि काँग्रेस दोनों तरफ से ही हाथ मलती रह जाए| यह भी हो सकता है कि चुनाव के आखिरी दौर में नरम हिन्दुत्व का शैलाब उमड़ पड़े| अगर वह जीत भी गई तो वह जीत भी क्या जीत होगी ? क्या उसे हम किसी विचारधारा की जीत कह पाएँगे ? वह महायान पर हीनयान की विजय होगी|
सवाल सिर्फ सांप्रदायिकता का ही नहीं है, प्रत्येक राष्ट्रीय समस्या का है| किसी भी मुद्दे पर काँग्रेस की अपनी कोई अलग राय नहीं है| चाहे प्रश्न कश्मीर का हो, लोकपाल का हो, विनिवेश का हो, भ्रष्टाचार का हो, आतंकवाद का हो, पाकिस्तान का हो, फीजी का हो – काँग्रेस का रवैया गतानुगतिक ही रहता है| यह शेर चाल नहीं, भेड़ चाल है| जैसे जनसंघियों को विपक्ष में रहने की आदत पड़ गई है, वैसे काँग्रेसियों को सत्ता पक्ष में रहने की आदत पड़ गई है| जैसे भाजपाइयों को शासन करना नहीं आता, वैसे काँग्रेसियों को विरोध करना नहीं आता| इसीलिए पिछले सात साल की साझा सरकारें न केवल अपने दम पर चलती रहीं बल्कि निरापद ढंग से चलती रहीं| यदि काँग्रेस दरी नहीं खींचती तो शायद देवेगौड़ा और गुजराल सरकारें भी अपने पाँच साल पूरे करतीं| सक्षम विपक्ष की भूमिका निभाने में तो काँग्रेस असफल रही ही, उसने अपना वैचारिक आधार भी इतना सबल नहीं बनाया कि भाजपा-गठबंधन पर उसका कुछ असर पड़ता| भाजपा के साथ जुड़ी पार्टियों में से शिव सेना को छोड़कर कौनसी पार्टी हिन्दुत्ववादी है? क्या काँग्रेस ने अपने आचरण से कभी किसी गठबंधन-पार्टी के अन्त:करण को खटखटाया ? काँग्रेस के पास विचारधारा तो क्या, वह गोंद भी नहीं जो सत्ता की पतंग को जोड़ सके और उसे कम से कम हवा में उड़ा सके या सत्ता की हवा बना सके| जैसे भाजपा ने सत्ता पाने के लिए विचार से मुक्ति पाई, वैसे काँग्रेस को अपने राजसी स्वभाव से मुक्ति पानी होगी| वह अपने आंतरिक मामलों में लोकतांतिक हो या न हो, उसे अन्य दलों के मामले में लोकतांत्रिक ही नहीं, समतामूलक भी बनना पड़ेगा| यदि अगले दो वर्ष वह प्रखर प्रतिपक्ष की भूमिका निभा सके तो उसे सत्तारूढ़ होने से कौन रोक सकता है ?
माउंट आबू में जो भी विचार-विमर्श हुआ, वह प्रखर प्रतिपक्ष बनने के लिए नहीं, उत्तम सत्तापक्ष बनने के लिए था| इसीलिए काँग्रेसी मुख्यमंत्रिायों को अनेक विशेषज्ञों ने विकास के दाँव-पेंच समझाए| इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन यह वही राज-रोग है| यह राज-रोग दिल्ली की सत्ता नहीं दिला सकता| काँग्रेसी मुख्यमंत्री यही बहस करते रहे कि अच्छा राज कैसे चलाएँ| मुख्यमंत्री लोग इसके अलावा करते भी क्या ? उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे सरकार कैसे गिराएँ – जैसे मुद्दे पर बहस करते ! यह ठीक है लेकिन वे अपनी पार्टी-अध्यक्ष को यह तो बता सकते थे कि वैकल्पिक भारत का उनका नक्शा क्या है| यदि उनका अपना कोई नक्शा नहीं है, कोई सब्ज़ बाग नहीं है, कोई सोने की लंका नहीं है तो मतदाताओं की वानर-सेना में कोई उत्साह क्यों कर होगा ? लोग काँग्रेस को वोट क्यों देंगे ? अगर देश वैसा ही चलना है, जैसा कि भाजपा चला रही है तो फिर भाजपा-गठबंधन ही उसे क्यों न चलाए ? इस गठबंधन के पास कम से कम परखे हुए नेता तो हैं| काँग्रेस के पास क्या हे ? न नेता है न नीति है| नीति वही है, जो गठबंधन के पास है और नेता वही है, जिसे दूसरे चलाते हैं| इसमें शक नहीं कि सोनिया गाँधी का आचरण गरिमामय और सुसंयत है लेकिन प्रचंड प्रतिपक्ष के लिए क्या ये गुण पर्याप्त हैं ? नीचे फिसलती हुई कांग्रेस को सोनिया ने जो टेका लगाया है, उसके लिए काँग्रेसी उनके आभारी अवश्य होंगे लेकिन क्या वे यह नहीं जानते कि भारत काँग्रेस नहीं है| जो स्वीकृति सोनिया को काँग्रेस ने दी है, क्या भारत भी दे सकेगा ? सोनिया के बच्चोंं का नाम उछला, इससे बेहतर तो यह होता कि काँग्रेस के किसी भावी प्रधानमंत्री का नाम उभरता| उस नाम के ईद-गिर्द प्रतिपक्ष का जाल बुनना कहीं अधिक आसान होता| अन्य दलों के नेताओं को काँग्रेस नेतृत्व से वार्तालाप करते समय खून का घूंट पीना पड़ता है| जमीनी नेताओं और हवाई नेता के बीच सम्यक संवाद की स्थिति ही नहीं बन पाती है| सत्तारूढ़-गठबंधन के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है कि उसका मुख्य विपक्ष काँग्रेस है और उसकी नेता सोनिया गाँधी हैं और काँग्रेस तथा सोनिया के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है कि उनका मुकाबला भाजपा-गठबंधन से है| पक्ष और प्रतिपक्ष, दोनों ही एक-दूसरे के सहारे हैं| पारस्परिक अयोग्यता दोनों को अपनी-अपनी जगह टिकाए हुए है| दोनों आनंद में हैं लेकिन देश का हाल क्या है ? न अभी अच्छा है और न तभी अच्छा होने की उम्मीद है|
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