R Sahara, 27 June 2003 : अगर विश्व – भाषा का ताज हिन्दी के सिर पर न रखा जाए तो किसके सिर रखा जा सकता है? हिन्दी की पगड़ी में ऐसे रत्न जड़े हुए हैं, जो दुनिया की किसी अन्य भाषा के पास नहीं हैं| सबसे पहले संख्या की बात ही लें| यों तो माना जाता है कि चीनी और अंग्रेजी के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी बड़ी भाषा है लेकिन यह मान्यता अब पुरानी पड़ गई है| इस मान्यता का आधार यह था कि चीनी बोलनेवालों की संख्या एक अरब से भी ज्यादा है और अंग्रेजी अमेरिका, बि्रटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधे कनाडा के अलावा लगभग 50 राष्ट्रकुल देशों में भी बोली जाती है| इन्हीं तथ्यों के आधार पर हिन्दी को तीसरे स्थान पर बिठा दिया जाता है|
यदि इन तर्कों की ठीक से परीक्षा करें तो हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि विश्व में हिन्दी बोलने और समझनेवालों की संख्या सबसे ज्यादा है और उसका स्थान सर्वप्रथम होना चाहिए| पहले चीनी भाषा को लें| चीन की आधिकारिक भाषा ‘मेन्डारिन’ है| इस मेन्डारिन को पूरा चीन एक-जैसा न समझता है औन न ही बोलता है| माओत्से तुंग जब हुनान से पेइचिंग आए तो उनकी सबसे बड़ी समस्या यही थी कि उनकी बोली किसी के पल्ले ही नहीं पड़ती थी| आज भी यही हाल है| कुछ वर्ष पहले अपनी चीन-यात्रा के दौरान मैंने पेइचिंग में जिन चीनी शब्दों को याद किया, उन्हें जब शांघाई में दोहराया तो लोग हॅंस-हॅंसकर लोट-पोट हो गए, क्योंकि वहॉं उनकाक मतलब बिल्कुल दूसरा ही होता था| इसीलिए चीनी भाषा को एक अरब लोगों की भाषा औपचारिक तौर पर ही कहा जा सकता है, जबकि हिन्दी न केवल भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, बर्मा, फीजी, सरिनाम, मोरिशस, गयाना, त्रिनिदाद, जमैका आदि देशों में भी बोली और समझी जाती है| यदि दो करोड़ प्रवासी भारतीयों को भी जोड़ लिया जाए तो हिन्दी लगभग सवा अरब लोगों की भाषा बनती है| चीनी केवल चीन और ताइवान में बोली जाती है जबकि हिन्दी दुनिया के दर्जन भर देशों में बोली जाती है| फाजी से सूरिनाम तक फैले 35 हजार किलोमीटर के आकाश में हिन्दी का सूर्य कभी अस्त नहीं होता| ऐसी हिन्दी अगर विश्व-भाषा कहलाने यौगय नहीं है तो फिर कौनसी भाषा विश्व-भाषा कहलाएगी? इसके अलावा चीनी भाषा की की चित्र- लिपि चीनियों के लिए भी अत्यंत दुर्गम होती है जबकि हिन्दी की लिपि, देवनागरी, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ लिपियों में से एक मानी जाती है| हिन्दी का व्याकरण और उच्चारण भी सारी दुनिया में एक-जैसा है| गैर-चीनियों के लिए चीनी को अपनाना जितना कठिन है, गैर-हिन्दियों के लिए हिन्दी को अपनाना उतना ही सरल है|
अब अंग्रेजी को लें| अंगे्रजी दुनिया के सिर्फ साढ़े चार देशों में बोली जाती है, जिनकी आबादी लगभग 50 करोड़ है| इन देशों में भी सभी लोग अंग्रेजी नहीं बोलते| अकेले अमेरिका में चार करोड़ हिस्पानीभाषी हैं उनकी अलावा चीनी, भारतीय, जापानी आदि अन्य भाषाभाषी लगभग एक करोड़ हैं| ये सब लोग अपनी मातृभाषों को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं| अंग्रेजी के गढ़ ग्रेट बि्रटेन में भी लाखों स्कॉट और वेल्श लोग अंग्रेजी नहीं बोलना चाहते| वह अंग्रेजी के दबदबे का विरोध करते हैं| जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने तो अंग्रेजी की कमियॉं उजागर करते हुए उसके अनावश्यक वर्चस्व को खत्म करने की मुहीम भी चलाई थी| केनाडा के फ्रांसीसी भाषी इलाकों में अंगेजी का इतना कठोर विरोध रहा है कि मॉंटि्रयाल जैसे शहर में यदि कभी अंग्रेजी मंे पानी मॉंगते थे तो हमें पानी तक मिलना मुश्किल हो जाता था| जहॉं तक अंग्रेज के पुराने गुलाम देशों का सवाल है, उनमें से कई देशों में अब भी अंग्रेजी का वर्चस्त है| गुलामी की इस दौड़ में भारत सबसे आगे है लेकिन भारत में कितने लोग हैं, जो अंगे्रजी लिखते-पढ़ते हैं? मुश्किल से दो-तीन प्रतिशत ! यदि भारत-जैसे देश में ऐसे लोगों का इतना कम प्रतिशत है तो अन्य देशों में कितना होगा? और उन सब देशों की जनसंख्या भी भारत के मुकाबले नगण्य है| इसके अलावा यह भी सत्य है कि पिछले पचास वर्षो में अनेक अन्य देशों में भी अंग्रेजी का प्रसार हुआ है| यह मान भी लें तो हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी भाषियों की संख्या अधिक कैसे हो सकती है? संख्या-बल में तो हिन्दी अंग्रेजी से निश्चय ही आगे है| इसीलिए अब यह कहना बंद किया जाना चाहिए कि हिन्दी दुनिया की तीसरी भाषा है| वह दुनिया की पहली भाषा है| इसीलिए वह विश्वभाषा होने की हकदार है|
जहॉं तक भाषाशास्त्र का प्रश्न है, उस दृष्टि से भी हिन्दी की गिनती दुनिया की समृद्दतम भाषाओं में की जानी चाहिए| यों तो हिन्दी का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है लेकिन अगर पाली और प्राकृत में उसका मूल खोजने लगें तो वह ढाई हजार साल तक पीछे जा सकती है| जरा विचार करें कि पिछले हजार-दो हजार साल में कितने लोग भारत में पैदा हुए होंगे और हिन्दी बोलते रहे होंगे? यह हिसाब अरबो-खरबों तक पहुॅंच जाएगा| जिस भाषा को खरबों लोग सैकड़ों वर्ष्ों से बोलते-बरतते चले आ रहे हैं, क्या उसे पिछड़ी हुई भाषा माना जा सकता है? उसे पिछड़ी हुई कहना तो शुद्द दिमागी गुलामी का प्रतीक है| जहॉं तक शब्दों का सवाल है, आज तक हिन्दी का कोई विशाल शब्द-कोश ही नहीं बना है| यदि लोक-प्रतिशत शब्दों को ही लिपिबद्घ कर लिया जाए तो कम से कम पचास लाख शब्द बनेंगे| दुनिया की कौनसी अन्य भाषा है, जिसके पास हिन्दी से अधिक शब्द हैं? जितनी बोलियॉं हिन्दी के ऑंगन में सरस रही हैं, क्या किसी अन्य भाषा के स्वप्त में भी आ सकती हैं? हिन्दी की बेल को हजारों-सैकड़ों वर्षों से सींचनेवाली संस्कृत, अरबी, फारसी की धरोहर क्या अन्य भाषाओं के पास भी है? संस्कृत तो हिन्दी की माता है| संस्कृत के शब्द हिन्दी में जयों के त्यों खप जाते हैं| संस्कृत में लगभग तीन हजार ज्ञात धातुऍं हैं प्रत्येक धातु से हजारों शब्द बनते हैं उनमें प्रत्यय और विभक्तियॉं आदि लगाकर अन्य नए हजारों शब्दों का निर्माण किया जा सकता है| याने कोई चाहे तो कई करोड़ शब्दों काक कोश बनाकर दुनिया को यह बता सकता है कि जो सामर्थ्य हिन्दी भाषा में है, वह दुनिया की किसी भाषा में नही है| उसके पास प्रयोगजन्य और व्याकरणजन्य शब्दों का अनंत भंडार है| हिन्दी की लिपि देवनागरी है| यह दुनिया की सबसे पुरानी लिपियों में से है| संस्कृत, पानी, प्राकृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, नेपाली, उर्दू आदि भाषाओं के लिए इस लिपि का सुगमतापूर्वक प्रयोग होता है| यह लिपि प्राचाीन ही नहीं है, वैज्ञानिक और सरल भी है| इसमें जैसा लिख जाता है, वैसा बोला जाता है और जैसा बोला जाता है, वैसा लिखा जाता है| इस लिपि की तुलना चीनी की चित्र-लिपि औरे अंग्रेजी आदि की रोमन लिपि से करना बेकार है| वास्तव में देवनागरी ऐसी लिपि है, जो विश्व-लिपि बनने के योग्य है| तात्पर्य यह कि जिस भाषा के पास शब्दों का अतुलनीय विश्व-कोश है और अद्घितीय विश्व-लिपि है, उसे विश्व-भाषा का दर्जा सहज ही क्यों नहीं मिलना चाहिए|
इन सब विशेषताओं के बावजूद हिन्दी विश्व-भाषा बिल्कुल नहीं है, यह स्वीकार करने में हमें क्यों हिचकना चाहिए? यह सत्य है| जो भाषा अपने ही घर में अनाथ है, उसे हम विश्वनाथ बनाने चले हैं| यह पागलपन भी हो सकता है| यह सपना है| यह अभी एक विचार है लेकिन विचार की ताकत किसी परमाणु बम से कम नहीं होती| विचार को वास्तविकता का रूप केसे दिया जाए, यह हमारी मुख्य चिन्ता है| यह चिन्ता उन भाषाओं को भी रही है, जो आज विश्व-भाषा के नाम से जानी जाती है| अभी तीन-चार सौ साल पहले तक लंदन की अदालतों में अंग्रेजी बोलने पर जुर्माना होता था| अभी डेढ़-सौ साल पहले तक लोग अपनी मूल पुस्तक अंग्रेजी में लिखते थे और उसकी भूमिका लेटिन में| ताकि विद्घत्जगत का उस पर ध्यान चला जाए| अंग्रेजी को अंग्रेजी का रूतबा हासिल करने के लिए सदियों तक लड़ना पड़ा| हिन्दी की लड़ाई को तो अभी पचपन साल ही हुए हैं| यदि इस लड़ाई में हिन्दी हार गई तो वह विश्व-भाषा कभी नहीं बन सकती| विश्व-भाषा बनने के पहले हिन्दी को भारत-भाषा बनना होगा|
भारत-भाषा याने क्यात्र् सारा भारत हिन्दी समझता है लेकिन फिर भी वह भारत-भाषा नहीं है| क्यों नहीं है? इसलिए नहीं है कि सरकार की भाषा हिन्दी नहीं है| हिन्दी राजभाषा नहीं है| वह सम्मान की भाष् ाा नहीं है| भद्रलोक की भाषा नहीं है| वह साहित्य की भाषा है लेकिन मौलिक विचार की भाषा नहीं है| वह उच्च पदों की सीढ़ी नहीं है| वह राजनीतिक सत्ता की सीढ़ी है| यह उसकी लोकतांत्रिक विवशता है लेकिन प्रशासन, न्याय, वित्त, व्यापार, शिक्षा, कूटनीति आदि के सर्वोच्च सोपानों से हिन्दी का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है| वह सारे भारत में है लेकिन वैसे ही है, जैसे रोमन साम्राज्य में गुलाम होते थे| हिन्दी करोड़ों लोगों का पेट भरती है, उनका मनोरंजन करती है, उनका सम्वाद-सेतु बनती है लेकिन उसकी हैसियत क्या है? क्या किसी गुलाम से ज्यादा है? जब तक भारत में हिन्दी का यह गुलाम-भाषा का दर्जा खत्म नहीं होगा, वह विश्व में सम्मान कैसे अर्जित करेगी?
यदि हिन्दी को हमें विश्व-भाषा बनाना है तो पहले उसे भारत की राजभाषा बनाना होगा| जिसे हमने घर में नौकरानी बना रखा है, उसे हम दुनिया में महारानी कहलवाना चाहते हैं| क्या कभी ऐसा होता है? जिस दिन हिन्दी भारत की राजभाषा बनेगी, वह पहला दिन होगा जब वह विश्व-भाषा के पायदान पर अपना पॉंव रखेगी| यदि सचमुच वह भारत-भाषा बन जाएगी तो विश्व-भाषा बनने के लिए वह स्वत: ही अनेक कदम उठाएगी| लगभग सभी भारतवंशी राष्ट्रों में भारत सरकार ने भाषा और संस्कृति के संस्थान खोल रखें हैं उनमें नियुक्त अधिकारी प्राणपण से काकर्य भी करते हैं लेकिन उनकी उपलब्धियॉं नगण्य ही हैं| मुझे मोरिशस में एक बार फंरासीसी राजदूत ने बताया कि फंरासीसी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए उनका बजट हमारे संपूर्ण दूतावास के बजट से भी बड़ा है| लगभग सभी देशों में अपनी भाषाई पकड़ बनाए रखने के लिए अमेरिका, बि्रटेन और फंरास करोड़ों डॉलर खर्च करते हैं | वे जानते हैं कि ककूटनीति और व्यापार मं लंबे मोर्चे मारने में भाषा की भूमिका क्या है? हमारे दूतावास चाहे जिस देश में हों, अंग्रेजी की गुलामी कमें डूबे रहते हैं| न तो उन्हें राष्ट्रभाषा का गुमान होता है और न ही वे स्थानीय भाषा का उचित लाभ उठाा पाते हैं| भारतवंशी राष्ट्रों में हिन्दी है जरूर, लेकिन वह धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है| दस साल पहले सूरिनाम में मैंने कुछ लोगों को आपस में हिन्दी बोलते हुए सुना था लेकिन इस बार विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजकों को भी मैंने आपस में और घर में डच बोलते हुए देखा| त्रिनिदाद, गयाना और जमैका में तो आम आदमी हिन्दी उतनी ही समझता है, जितनी भारत के हिन्दीभाषी संस्कृत समझते हैं| फीजी और मोरिशस में हिन्दी अभी बची हुई है लेकिन वहॉं के लोग जब भारत आकर अंग्रेजी का बोलबाल देखते हैं तो वे भी अपने बच्चों की नाक में अंग्रेजी और फंरासीसी की नकेल डाल देते हैं| भारतवंशी बच्चों का मुंह लंदन और पेरिस की तरफ होता है और पीठ दिल्ली की तरफ ! इन देशों के नेता जब हमारे यहॉं आते हैं और हमारे नेता वहॉं जाते हैं तो उनका सारा आधिकारिक काम-काज अंग्रेजी में होता है| हमारा बर्ताव गुलाम देश के नेताओं की तरह होता है| ऐसे में हम यह आशा कैसे करें कि वे हमारा अनुकरण करेंगे? क्या गुलामों की भाषा कभी विश्व-भाषा बनी है|
गुलामों की भाषा कभी विश्व-भाषा नहीं बनी| अभी जिन्हें हम विश्व-भाषा के तौर पर जानते हैं-अंग्रेजी, फंरांसीसी, रूसी, जर्मन, हिस्पानी, चीनी वगैरह ये भाषाऍं या तो मालिक देशों की भाषाऍं हैं या महाशक्तियों की ! हिन्दी कभी डंडे के जोर से नहीं फेली| वहॉं जहॉं भी गई, प्रेम और परिश्रम की प्रतीक बनी| हिन्दी की भूमिका न भारत में कभी शोषक की रही और न ही विश्व में वह कभी वैसी होगी लेकिन अब यदि हिन्दी को विश्व-भाषा बनना है तो भारत को महाशक्ति बनना ही होगा| भारत के महाशक्ति बने बिना हिन्दी विश्व-भाषा कैसे बनेगी? अभी तो हाल यह है कि भारत के छोटे-मोटे पड़ौसी राष्ट्र ही भारत-भाषा को मान्यता नहीं देते तो महा राष्ट्र मान्यता क्योें देंगे? दक्षेस-राष्ट्रों के सम्मेलन में भारत हिन्दी का औपचारिक प्रयोग तक नहीं करता, इससे बढ़कर शोचनीय स्थिति क्या होगी| चंद्रशेखरजी ने प्रधानमंत्री के तौर पर मेरे कहने पर एक बार हिन्दी में भाषण दिया था,मालदीव सम्मेलन में| उसका सम्पूर्ण दक्षिण एशिया की जनता में जबर्दस्त स्वागत हुआ था लेकिन उनके बाद पूंछ फिर डेढ़ी हो गई|
दक्षेस में हिन्दी नहीं है लेकिन संयुक्तराष्ट्र में हिन्दी लाने का नारा दिया जा रहा है| श्री अटलबिहारी वाजपेयी वहॉं हिन्दी में अपना भाषण पढ़ चुके हैं| उनसे कोई पूछे कि भारत की संसद मं अंग्रेजी और न्यूयॉर्क के संयुक्तराष्ट्र में हिन्दी, यह कैसा मजाक है? कितनी हॅंसी होगी? हॅंसी न हो, इसीलिए विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने अपने भाषण में सुझाव रखा कि संयुक्तराष्ट्रमें हिन्दी लाने का संकल्प पहले हमारी संसद करे| इस सुझाव को सूरिनाम पहुंचे सभी सांसदों ने स्वीकार किया| विविध दलों के दस सांसदों से हस्ताक्षर करवाकर वह मूल पत्र श्री बालकवि बैरागी ने मुझे दे दिया| अब देखें प्रधानमंत्री क्या करते हैं| संयुक्तराष्ट्रमें हिन्दी लाने के बहाने अगर उसे वे भारत में ले आऍं तो उनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा| संयुक्तराष्ट्रमें हिन्दी लाना बच्चों का खेल नहीं है| वहॉं पहले से जो छह भाषाऍं चल रही हैं, उनमें स्वत:अनुवाद की व्यवस्था क्या हमारे पास है? संयुक्तराष्ट्र में हजारों पृष्ठों की सामग्री रोज़ तैयार होती है| उसकी हिन्दी कौन करेगा, कैसे करेगा? हम पैसे तो भर सकते हैं लेकिन अनुवादकों की कुर्सी में डॉलरों को तो नहीं बिठा सकते| हमारे प्रवक्ताओं के भाषण कौनसी भाषा में होंगे? क्या वे हिन्दी जानते हैं? हमारे कूटनीतिज्ञों को हिन्दी बोलने का अभ्यास ही नहीं है| स्वयं अटलजी के मूल भाषण अंग्रेजी मं होते हैं| वे उसका हिन्दी अनुवाद पढ़ देते हैं| मैंने 1999 मं जब संयुक्तराष्ट्र में अपना मूल भाषण हिन्दी में देने की कोशिश की तो राजदूत कमलेश शर्मा ने कठिनाइयों का हिमालय खड़ा कर दिया| मुझे अपने तीनों भाषण मजबूरन अंग्रेजी मं देने पड़े| संयुक्तराष्ट्र में हिन्दी लाने का स्वांग अगर हमने उसी तरह रचा, जैसा कि भारत में राज्भाषा हिन्दी का ढोंग रचा रखा है तो यह अत्यंत लज्जास्पद होगा| इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि संयुक्तराष्ट्र में हिन्दी न लाई जाए| जरूर लाई जाए| यदि वह वहॉं पहुंच गई तो प्रवासी भारतीय हिन्दी के प्रति प्रोत्साहित होंगे, भारतवंशी देशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी, अन्य देशों में हिन्दी के प्रति जिज्ञासा बढ़ेगी, लिपि-वंचित भाषाओं को देवनागरी का विकल्प मिलेगा और विश्व-भाषा के तौर पर हिन्दी की मान्यता बढ़ेगी|
लेकिन यह ध्यान रहे कि सिर्फ संयुक्तराष्ट्र में आसन जमा लेना काफी नहीं है| विश्व-भाषा बनने के लिए हिन्दी को विश्व-बाजार, विश्व-संचार, विश्व-विचार, विश्व-विज्ञान की भाषा भी बनना होगा| पिछले 15-20 वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि दुनिया के बाजार में जो भी वस्तुऍं बिकने आती हैं, उनके डिब्बों पर सारे विवरण अरबी भाषा में भी होते हैं? हिन्दी में क्यों नहीं होते? अरब बाजार तो फैला ही है, वे लोग अपना काम भी अरबी में ही करते हैं जबकि बाजार तो हमारा भी फैला है लेकिन हमारा सारा महत्वपूर्ण काम अंग्रेजी में होता है| हमारी जो चीजें सारी दुनिया में जाती हैं, उन पर भी सारा विवरण अंग्रेजी में होता है, जो कि ठीक है लेकिन हम कितने बेशर्म हैं कि अपनी भाषा में एक शब्द भी नहीं होता और जिस देश में वह माल बिकता है, उसकी भाषा में भी कुछ नहीं होता| हमसे बढ़कर मूर्ख व्यापारी कौन होगा? यही हाल विश्व-संचार का है| हमारे टी.वी. चैनल तो अब सारी दुनिया में देखे जाते हैं| लेकिन क्या हमारी आकाशवाणी इतनी ताकतवर है कि वह बी.बी.सी. और वॉइस ऑफ अमेरिका की टक्करक में खड़ी हो सके? क्या विश्व-घटनाओं पर हम विश्व-स्तरीय समाचार अपनी भाषा में दे पाते हैं? क्या हमारी दी हुई खबरें सुनने और देखने के लिए दुनिया कभी लालायित होती है? अगर नहीं तो हमारी भाषा विश्व-भाषा कैसे बनेगी? हमारे देश में आज तक कोई सम्पूर्ण समाचार समिति तक नहीं है| अंग्रेजी में चल हरही दो सामचार समितियॉं किसी तरह अपना काम धकाती हैं और उनकी खबरों का अनुवाद करना ही तथाकथित हिन्दी समाचार समितियों का स्थायी कार्यक्रम बन गया है| जब तक भारत मं हिन्दी की मौलिक सम्पूर्ण और सबल समाचार समिति नहीं बनेगी, भारत के अखबरों रेडियो और टी.वी. में सुधार नहीं होगा और जब तक वे विश्व-स्तर के नहीं बनेंगे, हिन्दी विश्व-भाषा कैसे बनेगी?
विश्व-भाषा बनने के लिए विश्व-स्तरीय साहित्य का सृजन भी आवश्यक है| इस मामले में भारत किसी से पीछे नहीं हे लेकिन समस्या वही है कि किसी गुलाम-भाषा के सिर पर प्रभुता का चमचमाता ताज़ कौन रखेगा? परदेसी भाषा में लिखकर विश्व-ख्याति अर्जित करनेवाले भारतीय लेखकों के मुकाबले भारतीय भाषाओं के लेखकों की रचनाऍं कहीं अधिक प्रगल्भ हैं लेकिन उनकी पूछ-परख कैसे करवाई जाए? शुद्द विचार और उच्च-विज्ञान के क्षेत्र में भी भारतीयों ने अपने झंडे गाडे हैं लेकिन वे झंडे अंग्रेजी के डंडों पर फहरा रहे हैं| इन्हीं डंडों से हिन्दी की पिटाई होती है, भारत मं भी और भारत के बाहर भी ! दुनिया की अन्य महत्वपूर्ण भाषाओं में यदि हमारी सभी प्रकार की रचनाओं का अनुवाद हो तो भारत और हिन्दी का रूतबा बढ़ेगा| अन्य भाषाऍं हिन्दी की महत्ता को अधिक आसानी से अंगीकार करेंगी, क्योंकि वह उनकी गुलाम कभी नहीं रही, जैसी कि अंग्रेजी की वह आज भी है| भारत जिस दिन स्वभाषा में काम शुरू करेगा, विश्व में उसका स्वत्व भी पहचाना जाएगा और वह पहचान उसे महाशक्ति बनवाने में भी सहायक होगी ! भारत का महाशक्ति बनना और हिन्दी का विश्व-भाषा बनना एक-दूसरे के पर्याय हैं|
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