जनसत्ता, 7 सितंबर 2007 : रावलपिंडी में हुए दो बम-विस्फोटों ने मुशर्रफ-बेनज़ीर सौदेबाजी के कोढ़ में नई खाज पैदा कर दी है| जिस आधार पर अमेरिका इस समझौते को बढ़ावा दे रहा है, वह ढहता हुआ नज़र आ रहा है| अमेरिका का लक्ष्य बहुत सीमित है| तानाशाह से भी हाथ मिलाना पड़े तो उसे कोई एतराज़ नहीं है| आतंकवादियों ने पाकिस्तान के फौजी मुख्यालय के निकट बम-विस्फोट करके यह स्प”ट संदेश दे दिया है कि जनरल मुशर्रफ की पकड़ निरंतर ढीली होती जा रही है| ऐसे डूबते हुए मुशर्रफ का हाथ पकड़कर बेनज़ीर भुट्टो कैसे तिर पाऍंगी? अगर ये दोनों डूबेंगे तो पाकिस्तान में अमेरिका के सूर्य को डूबने से कौन बचा सकता है?
मुशर्रफ-बेनज़ीर सौदेबाजी का सबसे घुमावदार पेच यही है कि वह अमेरिकी समर्थन से आगे बढ़ रही है| सारा पाकिस्तान अमेरिका-विरोधी हुआ जा रहा है| यद्यपि अमेरिका आतंकवाद को खत्म करके पाकिस्तानियों की मदद करना चाहता है और साधारण पाकिस्तानी भी आतंकवाद से त्र्स्त हैं लेकिन आज अमेरिका की छवि वहॉं आतंक विरोधी नहीं, इस्लाम-विरोधी बन गई है| औसत पाकिस्तानी अमेरिका को फलस्तीन-विरोधी, सद्दाम-विरोधी, ईरान-विरोधी, तालिबान-विरोधी और इस्लाम विरोधी मान रहा है| भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के कारण यह भावना भी फैली है कि अमेरिका इस्लाम पाकिस्तान के मुकाबले हिंदू भारत को आगे बढ़ा रहा है| ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के सतही तर्क पर पाकिस्तान के बुद्घिजीवी भी विश्वास करने लगे हैं| पाकिस्तान में अमेरिका-विरोधी हवा इतनी तेज़ बह रही है कि उसमें मुशर्रफ सूखे पत्ते की तरह उड़ सकते हैं| यदि मुशर्रफ चुनाव या जनमत के दम पर टिके रहना चाहते हैं तो उन्हें मान लेना चाहिए कि उनके दिन लद गए हैं|
मुशर्रफ ने इस संकट से उबरने के लिए बेनज़ीर भुट्टो को अपना तारणहार मान लिया था| पिछले छह महीने से उनकी यह कोशिश है कि वे और बेनज़ीर मिलकर पाकिस्तानी राजनीति का ऐसा ढॉंचा खड़ा कर दें, जो सैन्य-नागरिक ढांचा कहा जा सके| याने आधा फौजी और आधा लोकतांत्रिक! मुशर्रफ और बेनज़ीर ने जब अपनी सौदेबाजी शुरू की तो पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ अखाड़े से बिल्कुल बाहर थे| वे जेद्दा से लंदन जाकर सभी राजनीतिक दलों का मोर्चा खड़ा करने में लगे हुए थे| उन्होंने बेनज़ीर की पीपल्स पार्टी के अलावा सिंध, सरहद और बलूचिस्तान की उन पार्टियों से भी बात की, जो उनकी मुस्लिम लीग का प्राय: विरोध करती रही हैं| नवाज़ और बेनज़ीर की गुप्त मुलाकातें भी हुई| इन खुली और गुप्त गतिविधियों ने जनरल मुशर्रफ के कान खड़े कर दिए लेकिन वे जितने बड़े फौजी हैं, उससे ज्यादा बड़े वे कूटनीतिक हैं| उनकी कूट राजनीति ने इस मोर्चे को लगभंग कर दिया| इस मोर्चे की सबसे शक्तिशाली पार्टी पीपीपी की नेता बेनज़ीर भुट्टों को उन्होंने सत्ता की गोलियॉं फेंककर अपनी बातों में फंसा लिया| बेनज़ीर को भी लगा कि सौदा सस्ता है, क्योंकि नवाज़ तो अभी अगले तीन साल पाकिस्तान लौट नहीं सकते, इसलिए मुशर्रफ को दबाकर जितने रियायतें ली जा सकें, ली जाऍं| पीपल्स पार्टी को चुनाव जीतने से कौन रोक सकता है| नवाज़ की मुस्लिम लीग के दो टुकड़े हो चुके हैं| बड़ा टुकड़ा चौधरी शुजात हुसैन के नेतृत्व में मुस्लिम लीग (क़ायदे आजम) के नाम से मुशर्रफ के साथ है| चुनाव में मुस्लिम लीग (क़ा) और पीपीपी मिलकर पूरा पाकिस्तान फतह कर सकते हैं|
लेकिन बेनज़ीर के ये सपने चूर-चूर होते नज़र होते आ रहे हैं| बेनज़ीर और मुशर्रफ की सौदेबाजी के प्रति शुरू-शुरू में पाकिस्तान की जनता ही सहानुभूति थी, क्योंकि वह मान रही थी कि फौजी तानाशाह को हटाना तो असंभव है| बेनज़ीर का तरीका ही व्यावहारिक और बेहतर है| लोकतंत्र् किसी न किसी रूप में तो बढ़ेगा ही| और फिर बेनज़ीर अन्य प्रधानमंत्रियों के मुकाबले ज्यादा तेज़-तर्रार है| उन्हें अमेरिकी आर्शीवाद भी प्राप्त है| इसलिए मुशर्रफ और फौज भी उन्हें ज्यादा नहीं दबा पाऍंगे| वास्तव में बेनज़ीर-मुशर्रफ सौदेबाजी पाकिस्तान में लोकतंत्र् की आंशिक वापसी का पर्याय बन गई थी| नवाज़ शरीफ लंदन में अकेले पड़ते जा रहे थे| बेनज़ीर का रूतबा इतना बढ़ता चला जा रहा था कि सत्तारूढ़ मुस्लिम लीग के नेता उनसे जाकर लंदन और दुबई में गुपचुप सॉंठ-गॉंठ करने लगे थे|
लेकिन चार-पॉंच माह में सारी चौपड़ ही उलट गई है| इसके तीन प्रमुख कारण हैं| पहला, पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार खान चौधरी की बर्खास्तगी| चौधरी को मुशर्रफ ने ऐसे बर्खास्त कर दिया, जैसे वे किसी दफ्तर के चपरासी हों| चौधरी के समर्थन में सारा पाकिस्तान उठ खड़ा हुआ| यों तो चौधरी जन्म से बलूच हैं लेकिन पाकिस्तान का कौनसा ऐसा प्रांत है और कौनसा ऐसा बड़ा शहर है, जिसमें मुशर्रफ-विरोधी जुलूस नहीं निकले? जजों और वकीलों का प्रतिरोध जर्बदस्त जन-आंदोलन बन गया| उन दिनों की याद ताज़ा हो गई, जब जनरल अयूब के खिलाफ जुल्फिकार अली भुट्टो लोकनायक बन गए थे| चौधरी के पक्ष में चाहे बेनज़ीर की जुबान लड़खड़ाती रही हो और मुहाजिरों की पार्टी भी मौन रही हो लेकिन सभी पार्टियॉं खांडे खड़का रही थीं| नवाज़ शरीफ़ ने चौधरी का डटकर समर्थन किया| उच्चतम न्यायालय की विशेष बेंच ने चौधरी को दुबारा अपने पद पर प्रतिष्ठित क्या किया, मुशर्रफ की प्रतिष्ठा पैंदे में बैठ गई| अगर चौधरी की अपने पद पर वापसी नहीं होती तो वे पाकिस्तान के जयप्रकाश नारायण बन जाते| चौधरी की वापसी ने मुशर्रफ से भी ज्यादा प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज को नुकसान पहुंचाया, क्योंकि उन्होंने ही चौधरी की बर्खास्तगी का बीड़ा उठाया था|
मुशर्रफ की जड़े हिलाने में जो दूसरा कारण बना, वह था लाल मस्जिद पर हमला| मुशर्रफ की कार्रवाई का उस तबके ने भी समर्थन किया, जो चौधरी-समर्थक था, लेकिन आम लोगों ने उसे इस्लाम-विरोधी कार्रवाई माना और अमेरिका व चीन के इशारे पर की गई खूंरेज़ी कहा| मुशर्रफ के इस कदम का दबी जुबान में बेनज़ीर ने समर्थन किया| दूसरे शब्दों में पहले उन्होंने चौधरी के मामले में प्रबुद्घ शहरियों और लोकतंत्र्वादियों के वोट खो दिए और अब इस्लामवादियों को उन्होंने अपना दुश्मन बना लिया| शहरों और गांवों, दोनों जगह उन्होंने अपनी स्थिति कमजोर कर ली| वे मुशर्रफ से बराबर बातचीत चलाती रहीं| मुशर्रफ के विरूद्घ जितना गुस्सा बढ़ता जा रहा था, वह बेनज़ीर के खाते में भी दर्ज होता जा रहा था|
इन दोनों कारणों पर सान चढ़ाई, उच्चतम न्यायालय के उस फैसले ने, जिसमें नवाज़ शरीफ को पाकिस्तान लौटने की छूट घोषित की गई| नवाज़ रातों-रात महानायक बन गए| माना यह जा रहा था कि 12 अक्तूबर 1999 के फौजी-तख्ता पलट के बाद मुशर्रफ की जेल से छूटने के लिए नवाज़-परिवार ने 10 साल तक पाकिस्तान से बाहर रहने का लिखित समझौता किया था| उच्चतम न्यायालय ने इस तथाकथित समझौते को अवैध घोषित कर दिया है| नवाज़ 10 सितंबर को लौटनेवाले हैं| जाहिर है कि उनके स्वागत के लिए लाखों लोग जुटेंगे| अभी से उनके समर्थकों की गिरफ्तारियॉं शुरू हो गई हैं| यदि उन्हें आने नहीं दिया गया या आने पर गिरफ्तार किया गया तो मुशर्रफ अपनी कब्र ही गहरी खोदेंगे|
बेनज़ीर मुशर्रफ वार्ता के सफल होने के आसार कम ही हैं, क्योंकि बेनज़ीर की तीनों शर्ते काफी कठोर हैं| मुशर्रफ सेनापति का पद छोड़े, संवैधानिक संशोधन के ज़रिए संसद को भंग करने का आधिकार छोड़े और दो बार से ज्यादा प्रधानमंत्री बनने के प्रावधान को वापस लाऍं| तीसरी शर्त वे मान लेंगे लेकिन पहली दो शर्ते मानने का अर्थ है, अपने आपको गोबर-गणेश बना लेना| छह माह पहले का माहौल बिल्कुल दूसरा था| अब मुशर्रफ इतने अलोकपि्रय हैं कि यदि वे सेनापति नहीं रहेंगे तो वे केवल अपनी पत्नी के पति रह जाऍंगे| उन्हें चुनकर राष्ट्रपति कौन बनाएगा? अगर वे जुआ खेलेंगे और बेनज़ीर की शर्ते मान भी लेंगे तो अकेले नवाज़ शरीफ उन दोनों की नाव को डुबो देंगे| मियॉ नवाज़ ने अमेरिका की तरफ मैत्रीपूर्ण संकेत भेजने शुरू कर दिए हैं| अमेरिका भी गोटी बदलने में देर क्यों करेगा? भारत सरकार के लिए पाकिस्तान के वर्तमान हालात एक चुनौती बन गए हैं| मुशर्रफ और बेनज़ीर के साथ पिछले कुछ वर्षो में जो समीकरण बने हैं, उनके पुनर्मूल्यांकन की घड़ी आ चुकी है| यदि बेनजीर-मुशर्रफ गठजोड़ हो गया तो भी अक्टूबर 2007 में होनेवाले राष्ट्रपति के चुनाव में मुशर्रफ का जीतना आसान नहीं होगा| यह ठीक है कि इस चुनाव में सिर्फ सांसद और विधायक ही मतदाता होते हैं और इस समय कुल मिलाकर मुशर्रफ-समर्थक पार्टियों का बहुमत है लेकिन लगभग सभी दल और सभी नेता मुंडेर पर जा बैठे हैं| हर दल में बगावत के झंडे लहरा रहे हैं| बेनज़ीर की बची-खुची पीपल्स पार्टी में काफी बैचेनी है| उनके सबसे बड़े समर्थक बेरिस्टर एतजाज अहसन, जो कि उनके विधि मंत्री और राजनीतिक सलाहकार रहे हैं, अभी दो सप्ताह पहले नवाज़ शरीफ के साथ लंच करते पाए गए| ये वे ही एतज़ाज हैं, जिन्होंने जस्टिस चौधरी का मुकदमा लड़ा था| इसी प्रकार शुजात हुसैन की सत्तारूढ़ मुस्लिम लीग के कितने पंजाबी नेता दुबारा मियॉं नवाज़ से जा मिलेंगे, उन्हें खुद कुछ पता नहीं| यद्यपि नवाज़ ने अमेरिका के प्रति मैत्र्ीपूर्ण संकेत दिए हैं और खुद को आतंकवाद का विरोधी भी बताया है लेकिन इसके बावजूद सिंध, बलूचिस्तान और सरहद की कई पार्टियॉं उनके साथ हो गई हैं| कोई आश्चर्य नहीं कि मुशर्रफ-विरोधी मज़हबी पार्टियॉं भी नवाज के जुलूस में शामिल हा जाऍ| मुशर्रफ-विरोधी लहर इतनी ऊंची उठ रही है कि कई नेता चुनाव करवाने के लिए स्वतंत्र् कार्यवाहक सरकार की मांग कर रहे हैं| पाकिस्तानी फौज के पंजाबी बि्रगेडियरों में भी सुगबुगाहट शुरू हो गई हैं| मुशर्रफ के लिए अक्तूबर का महिना काटना भी मुश्किल हो सकता है|
Leave a Reply