राष्ट्रीय सहारा, 18 मई 2013 : पाकिस्तान में चुनाव पर भारत ही नहीं पूरी दुनिया की नजरें लगी थीं। इसलिए कि इसके माध्यम से एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज-राज्य के रूप में माने जाने की पाकिस्तान की अधूरी महत्त्वाकांक्षा सतत होने की दिशा में अभिव्यक्त हो रही थी। लोकतांत्रिक पर्व के पहले चरण चुनाव में पाकिस्तान पास हो गया है। दूसरा अनिवार्य चरण सत्ता हस्तांतरण होना बाकी है। खंडित और विभाजित जनादेश के बावजूद नवाज शरीफ और उनकी पार्टी पीएमएल (एन) सत्ता संभालने जा रही है। मियां नवाज के लिए यह तीसरा मौका है। उन्हें शुभकामनाएं देने में यह आशंका भी कुलबुलाती है कि अगर उनके साथ फिर अतीत दोहराया गया तो..? इसका डर खुद पाक को, भारत को और समूचे विश्व को भी है। कारण यह कि सेना, आईएसआई और कट्टरपंथ की परंपरागत वर्चस्ववादी लिप्सा में सतह पर वैसी कमी दिखती नहीं है। एक पूरी लोकतांत्रिक सरकार के कार्यकाल पूरा कर लेने के बावजूद विदेश-रक्षा नीति को सेना और कट्टरपंथी ताकतें ही डिक्टेट करती लग रही हैं। मुंबई बम विस्फोट भुला कर लाहौर समझौता करने के बाद करगिल-विश्वासघात की तीखी यादों को परे रख नवाज की जीत पर भारत में खूब उत्साह है। यह दो कारणों से है-पड़ोस में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मजबूत हो ने की आश्वस्ति पर। दूसरे खुद नवाज में भारत के बारे में तथ्यपरक एक मजबूत दृष्टिकोण विकसित होने के चलते। फिर भी इस आकलन में नवाज के आड़े आने वाली पाकिस्तान के सांस्थनिक ढांचों में कायम कट्टर वास्तविकताओं का अंदाजा नहीं है। ऐसे में नवाज अपने वादे पूरे करने के लिए कितनी छूट ले पाएंगे और भारत से बिखरी कड़ियां जोड़ने के लिए कितनी दूर तक जाएंगे, इसको थाहना बाकी है। इन्हीं तमाम मुद्दों पर पेश है, हस्तक्षेप का विचारोत्तेजक अंक
डा. वेदप्रताप व्ैदिक अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ
पाकिस्तान में मियां नवाज शरीफ ऐसे पहले नेता हैं, जिनके प्रधानमंत्री बनने के पहले लगातार पांच साल तक एक लोकतांत्रिक सरकार काम करती रही। न तो वे खुद, न जुल्फिकार अली भुट्टो और न ही बेनजीर भुट्टो, कोई भी पांच साल तक राज न कर सका। उनके पहले लियाकत अली, मुहम्मद अली, फिरोज खां नून आदि भी अल्पकालिक प्रधानमंत्री ही रहे। आसिफ जरदारी अकेले ऐसे भाग्यशाली नेता हैं, जिन्होंने पांच साल तक अपनी गाड़ी खींचे रखी। अब प्रश्न यह है कि क्या नवाज शरीफ भी पांच साल तक टिके रहेंगे? फौज में उनकी मुठभेड़ होगी या नहीं?
पहली बड़ी चुनौती फौज और मुठभेड़ की संभावित वजहें यही मियां नवाज की सबसे बड़ी चुनौती है। मोटे तौर पर देखा जाए तो फौज और उनके बीच मुठभेड़ की आशंकाएं बहुत ज्यादा हैं। इसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि पिछली बार वे फौजी तख्ता-पलट के ही शिकार हुए थे। एक मुहाजिर जनरल (मुशर्रफ) ने उन्हें उलट दिया लेकिन पंजाबी वर्चस्व-वाली फौज में जूं तक नहीं रेंगी। ब्रिगेडियरों तक ने बगावत का झंडा नहीं उठाया। दूसरा, मियां नवाज आसिफ जरदारी नहीं हैं। जरदारी को सत्ता सेंत-मेंत में मिल गई थी जबकि नवाज अपने दम-खम से प्रधानमंत्री बने हैं। वे किसी भी कीमत पर फौज से अपमानित होने को तैयार नहीं होंगे। तीसरा, जनरल मुशर्रफ आजकल खुद पाकिस्तान में टिके हुए हैं। फौज में उनके वफादार अब भी होंगे। वे उन्हें उकसाए बिना नहीं रहेंगे। चौथा, मियां नवाज विदेश नीति के मामले में कई नई पहल करना चाहते हैं, जो फौज के मिजाज के विरुद्ध है। दोनों के बीच तनातनी इस हद तक बढ़ सकती है कि मुठभेड़ की नौबत आ जाए। पांचवां, जरदारी के पांच वर्षों के कार्यकाल में सरकार के मुकाबले फौज का दावा मजबूत रहा है। अमेरिका भी राष्ट्रपति के बजाय सेनापति अशफाक कयानी को ज्यादा महत्त्व देता रहा है। पाकिस्तानी फौज की पकड़ आज भी इतनी मजबूत है कि वह किसी नेता को कच्चा चबा डाल सकती है। वह मियां नवाज को कैसे बर्दाश्त करेगी?
बावजूद शरीफ मजबूत रहेंगे तो इसलिए इस कारणों के बावजूद मुझे लगता है कि फौज के मुकाबले मियां नवाज की स्थिति ज्यादा मजबूत रहेगी। इसके भी कई कारण हैं। पहला, चुनाव जीतते ही मियां साहब ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें फौज से नहीं सिर्फ मुशर्रफ से खुन्नस है। उन्होंने फौज की आलोचना कभी नहीं की। दूसरा, फौज की हैसियत अपनी ही किए से बहुत पतली हो गई है। लोगों को शक है कि बेनजीर की हत्या में फौज का हाथ था। लाल मस्जिद, अकबर बुगती की हत्या, कराची के नौसैनिक अड्डे पर धावा और सबसे ज्यादा अमेरिका द्वारा ओसामा बिन लादेन की हत्या ने पाकिस्तानी फौज की प्रतिष्ठा को पैंदे में बिठा दिया है। फौज का रुतबा काफी घट गया है। यदि फौज का पहले- जैसा असर होता तो इस चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें इमरान खान को मिलतीं, क्योंकि लोगों में यह बात फैली हुई थी कि इमरान की पीठ पर फौज है। ऐसे में फौज मियां नवाज से पंगा कैसे ले सकती है? तीसरा कारण यह है कि जनरल कयानी अब कुछ माह में ही सेवानिवृत्त हो रहे हैं। उन्हें चलाते रहने का कोई कारण नहीं है। मियां नवाज ने कहा है कि जो भी वरिष्ठ होगा, वह सेना-प्रमुख बनेगा। जाहिर है कि नए सेनापति और प्रधानमंत्री के बीच आपसी समझ काफी अच्छी होगी। चौथा, पाकिस्तान की सेना को यह समझ में आ गया है कि फौजी शासन दुनिया में बहुत बदनाम हो जाता है। दुनिया के देश उससे व्यवहार तो करते हैं लेकिन उसे अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। पाकिस्तान को सुरक्षा तो चाहिए लेकिन एक राष्ट्र के नाते इज्जत भी चाहिए। इसीलिए लोकतंत्र से अब छेड़छाड़ करना उचित नहीं है। पांचवां, पाकिस्तान को आर्थिक मदद दे रहे पश्चिमी देश भी लोकतंत्र के पक्षधर है। यदि फौज ने अब किसी वजह से तख्तापलट कर दिया तो कोई आश्र्चय नहीं कि पाकिस्तान का हुक्का-पानी भी बंद हो जाए। छठा, स्वयं मियां नवाज ने इतनी ऊंचनीच देख ली है कि वे जान-बूझकर अब फौज और अदालतों से पंगा नहीं लेंगे। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर वे दो बार बैठ चुके हैं। इस तीसरी बार में वे पाकिस्तान की शक्ल बदलना चाहते हैं। इसीलिए वे अपनी ओर से शायद ही कोई ऐसी उत्तेजक कार्रवाई करें कि फौज और अदालत को तीव्र प्रतिक्रिया करनी पड़े और फिर मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी, जो कि अत्यंत कठोर व्यक्ति हैं, इसी साल सेवानिवृत्त हो रहे हैं। सातवां, इन चुनाव-परिणामों ने पाकिस्तान को चार राजनीतिक हिस्सों में बांट दिया है। बलूचिस्तान में अलगाववादी आंदोलन के सुलगने की आशंका है। तालिबान का वर्चस्व भी बढ़ता जा रहा है। ऐसे स्थिति में फौज के महत्त्व और आवश्यकता में बढ़ोतरी होगी। अत: मियां नवाज फौज को संतुष्ट और प्रसन्न ही रखना चाहेंगे। इस प्रकार, ऐसा प्रतीत होता है कि मियां नवाज की सरकार जरदारी से भी बेहतर तरीके से अपने पांच साल पूरे करेगी। राष्ट्रपति की गद्दी पर भी शीघ्र ही नवाज शरीफ का कोई आदमी ही बैठेगा।
कतार में हैं अन्य विकट चुनौतियां भी मियां नवाज की दूसरी बड़ी चुनौती है, पूरे पाकिस्तान को साथ लेकर चलने की। इस बार चुनाव परिणाम इस अदा से आए हैं कि हर प्रांत में एक अलग पार्टी की सरकार बनेगी। यह ठीक है कि अकेला पंजाब शेष सभी प्रांतों को मिलाकर भी उनसे बड़ा है और मियां नवाज की मुस्लिम लीग वहां भी काबिज है लेकिन सिर्फ केंद्र और पंजाब के दम पर पूरे पाकिस्तान को अंगूठे के नीचे नहीं रखा जा सकता। मियां साहब को सोचना होगा कि अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल में गैर-पंजाबी प्रांतों को प्रतिनिधित्व कैसे दिया जाए? यह असंभव नहीं कि वे सभी प्रमुख पार्टियों को अपनी केंद्र सरकार में सानुपातिक प्रतिनिधित्व दे दें। यदि यह न हो सके तो उन प्रांतों से अपनी पार्टी के लोगों को प्रमुख स्थान दें। उन्हें नौकरशाही में भी प्रांतीय प्रतिनिधित्व पर ध्यान देना होगा। अगर वे इस राजनीतिक संतुलन को बनाने में चूक गए तो विभिन्न प्रांतों में उन्हें बार-बार फौजें भेजने के लिए तैयार रहना होगा। यदि इन प्रांतों की स्थानीय सरकारें उनके अनुकूल नहीं होंगी तो उनकी दक्षिण एशियाई राजनीति भी विफल हो जाएगी। पाकिस्तान के जरिए भारत और मध्य एशिया को जोड़नेवाली सड़कें और गैस की पाइप लाइनें भी इन्हीं प्रांतों से होकर जाएंगी। तीसरी बड़ी चुनौती भी आंतरिक ही है। अनेक सव्रेक्षणों से पता चला है कि पाकिस्तान के लोग भारत को नहीं, पाकिस्तान के आतंकवादियों को बड़ा खतरा मानते हैं। भारत से कहीं ज्यादा लोग पाकिस्तान में आतंकवाद के शिकार होते हैं। इस समस्या से नवाज कैसे निपटेंगे? वे तो कह रहे हैं कि वे तालिबान से बात करने को तैयार हैं। उनका उग्रवादियों और कट्टरपंथियों से पुराना रिश्ता है। उन पर उनका असर भी है। लेकिन फौज को मनाना पड़ेगा। फौज तैयार है या नहीं? यदि फौज मियां साहब को मुक्त रूप से काम करने दें तो उनमें यह कूव्वत है कि वे इस समस्या को पार कर सकते हैं। खुशी की बात है कि आतंकवाद को खत्म करने पर मियां नवाज शरीफ और इमरान दोनों सहमत हो गए हैं। चौथी चुनौती अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी है। यदि मियां साहब इस लालच में फंस गए कि अमेरिका के लौटते ही वे अफगानिस्तान अराजक हो जाएगा। लाखों शरणार्थी दुबारा पाकिस्तान पर चढ़ आएंगे। तालिबान बेकाबू हो जाएंगे। इस बार कहीं ऐसा न हो कि काबुल हाथ में आने के बजाय पेशावर हाथ से निकल जाए। पठानों का कुछ भरोसा नहीं। वे किसी से दबनेवाले नहीं है। अच्छा यही होगा कि पाकिस्तान और भारत मिलकर अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण करें। अफगानिस्तान हमारे दोनों देशों का मैत्री-स्थल बने। काबुल से उठीं मैत्री और सहयोग की लहरें सारे दक्षिण एशिया को भिगो दें। पाकिस्तान जब तक अमेरिका के रहने और जाने का फायदा उठाने के फिराक में रहेगा, तब तक लंगड़ाता रहेगा। यह वक्त है कि वह अपने पांव पर खड़ा हो। पांचवी चुनौती है, पाकिस्तान के मुल आर्थिक विकास और समृद्धि की। आज का पाकिस्तान महंगाई, गरीबी, बिजली की कमी और विषमता से जितना त्रस्त है, पहले कभी नहीं था। उम्मीद है कि मियां नवाज की वणिक-बुद्धि इस परीक्षा में सफल होगी। पाकिस्तान की जनता को मियां नवाज की क्षमता का पता है। वे भारत और अन्य पड़ोसी देशों से व्यापार और आर्थिक सहयोग के इतने नए आयाम खोल सकते हैं कि पाकिस्तान रातों-रात मालामाल हो सकता है। वे दक्षिण एशिया में यूरोपीय संघ की तरह एक अखंड आर्याना खड़ा कर सकते हैं। इन सभी चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटने में जिस चुनौती का सबसे बड़ा योगदान हो सकता है, वह है, भारत से संबंध-सुधार की चुनौती। यदि भारत से संबंध सुधर जाएं तो फौज पर जो फिजूलखर्ची होती है, वह बंद हो जाए। पूरा पाकिस्तान निश्चिंत हो जाए और अपनी पूरी ताकत रचनात्मक सोच में लगाए। मियां नवाज का प्रधानमंत्री बनना इस दिशा में मजबूत कदम है। भारत के लिए भी यह अपूर्व अवसर है। करगिल-युद्ध का विरोध करने के कारण ही नवाज का तख्तापलट हुआ था। वे भारत के कारण ही हटे। अब भारत को चाहिए कि नवाज शरीफ को सफल और मजबूत बनाने में कोई कसर न उठा रखे।
इन सभी चुनौ तियों से सफलतापूर्वक निपटने में जिस चुनौती का सबसे बड़ा योगदान हो सकता है, वह है, भारत से संबंध-सु धार की चुनौती। यदि भारत से संबंध सुधर जाएं तो फौज पर जो फिजूलखर्ची होती है, वह बंद हो जाए। पूरा पाकिस्तान निश्चिंत हो जाए और अपनी पूरी ताकत रचनात्मक सोच में लगाए। मियां नवाज का प्रधानमंत्री बनना इस दिशा में मजबूत कदम है। भारत के लिए भी यह अपूर्व अवसर है। करगिल- युद्ध का विरो ध करने के कारण ही नवाज का तख्तापलट हुआ था। वे भारत के कारण ही हटे। अब भारत को चाहिए कि नवाज शरीफ को सफल और मजबूत बनाने में कोई कसर न उठा रखे
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