भारत और अमेरिका के बीच परस्पर रक्षा-सुविधाओं का जो समझौता वाशिंगटन में हुआ है, उसे लेकर चीन और पाकिस्तान जितने दुखी हैं, उतने ही दुखी हमारे कॉमरेड और कांग्रेसी भाई लोग भी हैं। इस समझौते के तहत दोनों देश अपने-अपने फौजी अड्डों पर एक-दूसरे को समय-समय पर तरह-तरह के सुविधाएं प्रदान करेंगे। जैसे ईंधन भरना, जहाजों की मरम्मत करना, रसद लेना, विश्राम करना आदि। लेकिन दोनों देश एक-दूसरे के फौजी अड्डों का इस्तेमाल युद्ध आदि के लिए नहीं कर सकेंगे। इसके अलावा सुविधाओं के इस्तेमाल के लिए भी पहले अनुमति ली जाएगी।
सारी दुनिया में फैले अमेरिका के सैकड़ों फौजी अड्डों का इस्तेमाल अब भारत कर सकेगा और अमेरिका भी भारत के अड्डों का इस्तेमाल कर सकेगा, जैसा कि उसने सद्दाम के इराक पर हमला करते हुए या पिछले दिनों भूकंप-पीड़ित नेपाल की मदद करते हुए अपने हवाई जहाजों में भारत से ईंधन भरा था।
यह समझौता भारत और अमेरिका को उतने ही नजदीक लाता हुआ दिखाई पड़ता है, जितना शीतयुद्ध के दिनों में पाकिस्तान और अमेरिका थे। रुस पर जासूसी करने के लिए अमेरिकी यू-2 विमानों ने पाकिस्तानी हवाई अड्डे से उड़ान भरी थी। अब पाक और चीन दोनों यही इल्जाम लगा रहे हैं कि भारत तो अमेरिका का दुमछुल्ला बनता जा रहा है। जो ये आरोप लगा रहे हैं, वे यह क्यों नहीं समझते कि भारत, पाकिस्तान नहीं है। भारत भी अमेरिकी अड्डे इस्तेमाल करेगा, क्योंकि एशियाई महाशक्ति के तौर पर अब उसकी अंतरराष्ट्रीय भूमिका बढ़ती चली जा रही है।
यह समझौता बराबरी का है, किसी उस्ताद और उसके पट्ठे का नहीं है। मार्क्सवादियों का यह तर्क बासी कढ़ी की तरह है कि भारत ने अपनी संप्रभुता को गिरवी रख दिया है। जब 1971 में भारत-सोवियत समझौता हुआ था, तब क्या भारत रुस का गुलाम बन गया था? भारत-अमेरिका के इस समझौते पर अटल और मनमोहन सरकारें भी संकोच में फंसी रहीं, लेकिन इस सरकार ने साहस भरा कदम उठाया है। इससे चीन और पाकिस्तान को न तो कोई नुकसान है और न ही खतरा है। अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने आतंकवाद के सवाल पर कल दिल्ली में भारत का जो तगड़ा समर्थन किया है, उससे पाकिस्तान को परेशानी हो सकती है लेकिन उस परेशानी से इस समझौते को जोड़कर देखना ठीक नहीं है। यह समझौता भारत और अमेरिका के बीच रक्षा-संबंधी अन्य समझौतों का रास्ता भी खोलेगा।
Leave a Reply